Gyarah Amavas - 15 in Hindi Thriller by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | ग्यारह अमावस - 15

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ग्यारह अमावस - 15



(15)

गुरुनूर उस जगह पर पहुँची जहाँ दिनेश की लाश मिली थी। उसने अपने ड्राइवर से कहा कि वह इंतज़ार करे। वह कुछ देर में आती है। जिस जगह दिनेश की लाश पड़ी थी वहाँ पुलिस की टीम अच्छी तरह देख चुकी थी। गुरुनूर उस जगह से कुछ अंदर की तरफ चली गई। वह बड़े ध्यान से चारों तरफ देख रही थी। जहाँ लाश मिली थी उससे कोई पचास मीटर अंदर जाने पर कुछ झाड़ियां थीं। गुरुनूर ने उसके पीछे देखा तो वहाँ एक ताबीज़ जैसा दिखा। उसने उसे उठाकर देखा। वह पहचान गई। ताबीज़ दिनेश के भाई दिनकर का था। जब वह दिनेश से मिलने गई थी तब दिनकर ही सबसे पहले उनसे मिला था। वह उन्हें बाहर चारपाई पर बैठाकर दिनेश को बुलाने अंदर गया था। उस वक्त उसने दिनकर के गले में ऐसा ही ताबीज़ देखा था। ताबीज़ को ध्यान से देखा तो वह एक धारदार नाखून था। उसने गौर किया तो वह उल्लू का नाखून था। उसने जेब से रुमाल निकाल कर ताबीज़ उसमें बांध दिया। उसे जेब में रख लिया।
गुरुनूर ने झाड़ियों के पीछे की जगह को और ध्यान से देखा। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कि उस जगह पर किसी के साथ बल प्रयोग किया गया था। स्पष्ट था कि बल प्रयोग दिनेश पर किया गया था। शायद उसका गला दबाकर उसकी हत्या की गई थी। हत्या की वजह पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चलती। पर जब लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजा जा रहा था तब उसकी गर्दन पर निशान दिखाई पड़े थे। दिनेश के भाई दिनकर को गुरुनूर पुलिस स्टेशन ले गई थी। उसने विलायत खान और सब इंस्पेक्टर आकाश दुबे को उससे पूछताछ करने का काम दिया था। वह चाहती थी कि अब खुद जाकर उससे पूछताछ करे।
वह वापस लौटने के लिए अपनी जीप की तरफ जा रही थी तभी इंस्पेक्टर कैलाश जोशी का फोन आ गया। उसने सूचना दी कि अहाना चतुर्वेदी नाम की एक चौदह साल की लड़की का अपहरण हुआ है। अपने साथ हुए गलत काम की वजह से बच्ची मानसिक रूप से परेशान थी। उसके माता पिता उसे बसरपुर में शांति कुटीर दीपांकर दास से मिलाने के लिए ले गए थे। पर दीपांकर दास ने कोई मदद नहीं की थी। इंस्पेक्टर कैलाश जोशी ने कहा कि वह दावे से तो नहीं कह सकता है पर उसे लग रहा है कि अहाना का अपहरण शायद उसी वजह से हुआ होगा जिस वजह से अमन का अपहरण हुआ था। इसलिए उसने इस अपहरण की सूचना दी है।
फोन रखने के बाद गुरुनूर जीप की तरफ बढ़ने लगी तो उसे एहसास हुआ कि जैसे कोई उस पर नज़र रखे हुए है। उसने इधर उधर देखा। लेकिन कोई दिखाई नहीं पड़ा। अपने मन का वहम समझ कर वह अपनी जीप में आकर बैठ गई। जीप पुलिस स्टेशन की तरफ बढ़ गई।

गुरुनूर दिनेश के भाई दिनकर के सामने कुर्सी पर बैठी थी। अब तक की पूछताछ में उसने यही कहा था कि दिनेश रोज़ तड़के उठकर टहलने के लिए जाता था। आज भी गया था। पर जब रोज़ के समय लौटकर नहीं आया तो वह उसे तलाश करने के लिए गया। जंगल में उसे अपने भाई की लाश दिखाई पड़ी‌। उसने गांव वालों को सूचना दी और उनकी सहायता से लाश को घर ले आया। गुरुनूर उसके चेहरे को कुछ क्षणों तक घूरती रही। फिर गंभीर आवाज़ में बोली,
"दिनकर....तुम्हारा भाई दिनेश रोज़ किस समय तक टहल कर लौटता था ?"
"सुबह सात साढ़े सात तक घर आ जाता था।"
"क्या वह रोज़ एक ही जगह टहलने के लिए जाता था।"
दिनकर ने कहा,
"इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता। मैं तो उसके साथ टहलने जाता नहीं था।"
गुरुनूर ने अपना चेहरा उसके कुछ नज़दीक ले जाकर कहा,
"तो फिर तुम जंगल में उस जगह कैसे पहुंँच गए जहाँ लाश पड़ी थी ?"
दिनकर इस सवाल पर सकपका गया। फिर बोला,
"बताया ना कि मैं अपने भाई को ढूंढ़ने गया था। ढूंढ़ते हुए पहुँच गया।"
गुरुनूर ने उसकी आँखों में आँखे डालकर कहा,
"आज जब मैं अपने साथी के साथ तुम्हारे घर पहुंँची थी तब सिर्फ सवा नौ बजे थे। तब तक तुम अपने भाई की अर्थी उठाने की तैयारी कर चुके थे। इतनी जल्दी तुमने सब कुछ कर लिया।"
दिनकर का चेहरा सफेद पड़ गया था। गुरुनूर ने उसका गिरेबान पकड़ कर कहा,
"क्यों मारा अपने भाई को ?"
दिनकर डरकर बोला,
"मैंने नहीं मारा है उसे।"
गुरुनूर ने गुस्से से डांटते हुए कहा,
"तुम ने ही मारा है अपने भाई को। तभी तुम्हें पता था कि उसकी लाश कहांँ मिलेगी। तुम गांव वालों को सीधे वहीं ले गए। उसका पोस्टमार्टम ना हो सके इसलिए जल्दी जल्दी अंतिम संस्कार की तैयारी भी कर ली। अब सच सच बताओ नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं है।"
दिनकर डरा हुआ था लेकिन फिर भी सच बोलने को तैयार नहीं था। उसने कहा,
"मैडम आप मुझ पर अपनी वर्दी का रौब झाड़कर जबरदस्ती जुर्म कुबूल कराना चाहती हैं। मैं सच कह रहा हूँ। मैंने अपने भाई का कत्ल नहीं किया है।"
गुरुनूर ने कहा,
"तुम जंगल में सिर्फ वहीं तक गए थे जहाँ दिनेश की लाश मिली थी।"
"हाँ मैडम.... मैं वहाँ पहुँचा तो अपने भाई की लाश देखकर कुछ देर वहीं बैठकर रोता रहा। फिर गांव वालों को लेकर अपने भाई की लाश घर ले आया।"
"घर लाते ही उसे ठिकाने लगाने की तैयारी करने लगे। तुम सोच रहे थे कि उसका दाह कर दोगे तो तुम्हारे खिलाफ कोई सबूत नहीं बचेगा। पर जहाँ तुमने दिनेश को मारा था वहाँ सबूत छोड़ आए थे।"
गुरुनूर ने अपनी जेब से रुमाल निकाला। ताबीज़ उसे दिखाते हुए बोली,
"ये तुम्हारा है ना ?"
दिनकर की आँखें डर की वजह से फैल गईं। गुरुनूर ने कहा,
"अब यह मत कहना कि तुम्हारा नहीं है। मैंने उस दिन तुम्हारे गले में देखा था। चुपचाप स्वीकार कर लो। तुमने ही दिनेश को मारा है।"
दिनकर कुछ नहीं बोला। अपना सर झुकाकर रोने लगा। गुरुनूर ने कहा,
"बताओ क्यों मारा अपने भाई को ?"
कुछ क्षणों तक रोने के बाद दिनकर ने अपने आंसू पोंछे। गुरुनूर की तरफ देखकर बोला,
"इतने सालों से मैं गांव में सबकुछ संभाल रहा था। खेती बाड़ी देखता था। अपना पैसा लगाता था। मेहनत करता था। दिनेश कभी कभार कुछ समय के लिए गांव आता था। घर और खेत में उसका हिस्सा मेरे पास था। इतने सालों में उसने मुझसे कुछ कहा भी नहीं था। मुझे लगा था कि वह शहर में ही रहेगा। उसे शहर में रहने की आदत है। रिटायरमेंट के बाद भी वहीं रहेगा। वहाँ उसका एक मकान भी था। एक बेटा था जो कुछ सालों पहले घर छोड़कर भाग गया था। मुझे लगा कि गांव में जो कुछ भी है सिर्फ मेरा है।"
दिनकर रुका। उसके चेहरे पर गुस्सा झलक रहा था। कुछ देर में बोला,
"उसने समय से पहले नौकरी से छुट्टी ले ली। गांव आकर रहने लगा। मुझे लगा कि कुछ दिन रहेगा फिर चला जाएगा। लेकिन उसका इरादा कुछ और ही था। हर चीज़ में हिसाब मांगने लगा। खेतों में कितनी फसल होती है, गाएं जो दूध देती हैं उनसे कितना मिल जाता है। मुझसे पूछता था इतने दिनों तक तुमने मुझे हर एक चीज़ में मेरा हिस्सा क्यों नहीं दिया। इधर कुछ दिनों से तो मेरी बेइज्ज़ती करने लगा था। चार दिन पहले मुझसे बोला कि इतने सालों तक मैंने उसका हिस्सा दबा कर रखा है। उस सबके बदले मैं अपना हिस्सा उसके नाम कर दूँ। वह थोड़ी बहुत रकम ऊपर से दे देगा। वह भी इसलिए क्योंकी मैं उसका छोटा भाई हूंँ।"
दिनकर ने गुरुनूर से कहा,
"इतने सालों तक मैंने उसकी हर एक चीज़ की देखभाल की। उस सबका कोई मोल नहीं। मुझसे मेरा हिस्सा लेकर भीख देने की बात कर रहा था। मुझे गुस्सा आ गया। मौका पाकर मैंने उसे मार दिया।"
अपना जुर्म कुबूल करते हुए दिनकर के चेहरे पर ज़रा भी पछतावा नहीं था। गुरुनूर ने पूछा,
"कैसे मारा ?"
दिनकर ने कहा,
"कुछ समय से वह रात को किसी गाड़ी में बैठकर कहीं जाता था। कल भी गया था। देर रात को लौटकर आया। कुछ देर में दोबारा घर से निकलते हुए मुझसे बोला कि दो तीन घंटे में लौटेगा। इस बार कोई गाड़ी नहीं थी। साथ में कोई था भी नहीं। मैं भी उसके पीछे लग गया। जंगल में झाड़ियों के पास वह कुछ कर रहा था। मुझे लगा कि इसे रास्ते से हटाने का सबसे अच्छा मौका है। मैंने पास पड़ा एक पत्थर उठाया और उस पर वार करने के लिए आगे बढ़ा। ना जाने कैसे उसे आहट लग गई। वह पलटा तो पत्थर सर पर लगने की जगह उसके कंधे पर लगा। वार तेज़ था। वह कंधा पकड़ कर बैठ गया। मैंने उसे दबोच लिया। दर्द की वजह से उसकी ताकत कम हो गई थी। फिर भी खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। मैंने अपने दोनों हाथों से उसका गला दबाकर मार दिया। उसके बाद उसकी लाश को कंधे पर लादकर उस जगह से कुछ दूर लाकर डाल दिया। मुझे लगा ऐसा करना ठीक रहेगा।"
वह रुका। कुछ सोचकर बोला,
"जब वह खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहा होगा तब ही मेरा यह ताबीज़ गले से निकल गया होगा। उल्लू के नाखून वाला यह ताबीज़ मैं अच्छी किस्मत के लिए पहनता था। इसके उतरते ही मेरी किस्मत फूट गई।"
गुरुनूर ने कहा,
"तुम्हारी किस्मत ना तो ताबीज़ के कारण बनी थी और ना ही उसके निकलने से फूट गई। जो तुम्हारे सामने है वह तुम्हारे बुरे कर्म का फल है। अपने भाई की हत्या करते हुए शर्म नहीं आई तुम्हें।"
दिनकर गुस्से से बोला,
"उसे भी कहांँ शर्म आई थी। इतनी चालाकी से मेरा हिस्सा हड़पना चाहता था। मुझे अपने किए का कोई पछतावा नहीं है।"
गुरुनूर कुछ पल उसके चेहरे को घूरती रही। उसने कहा,
"अब बताओ कांस्टेबल उद्धव कहांँ है ? उसने तुम्हें कत्ल करते देखा होगा। तुमने उसे भी मार दिया ?"
यह सुनकर दिनकर बोला,
"कौन कांस्टेबल उद्धव ? मैं किसी कांस्टेबल उद्धव को नहीं जानता हूँ। मैंने जिसे मारा था उसकी हत्या का जुर्म कुबूल कर लिया है। अब आप मुझ पर दुनिया भर के आरोप मत लगाइए।"
दिनकर ने बिना किसी डर के अपनी बात कही थी। गुरुनूर सोच रही थी कि अगर उसने कांस्टेबल उद्धव के साथ कुछ किया होता तो इतनी निडरता से यह बात ना कहता।