पिंजड़ा तोड़ न पाया पंछी, आजादी का स्वप्न अधूरा ।
उड़ना चाहा मुक्त गगन में, पर मंसूबा हुआ न पूरा ।।
नहीं पता कितने जन्मों से,इस पिंजड़े में बंद जवानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
उड़ने की उन्मुक्त गगन में, यद्यपि रही कल्पना मेरी ।
विषय वासना,लालच,डर की,लगी रही अनचाही ढेरी।।
रहा सिसकता बस पिंजड़े में,बाहर निकल न पाया प्रानी।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
आया एक खयाल एक दिन,युक्ति करूं बाहर जाने की।
कीन्ही परमेश्वर से विनती,अपना पिंजड़ा खुलवाने की।।
परमेश्वर ने मेरी सुनली,बालक ने करदी नादानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
मेरे साथ खेलने को जब,उस बालक ने पिंजड़ा खोला।
मैं उड़ गया फुर्र से तत्क्षण, मुक्त हो गया मेरा चोला ।।
एक वृक्ष पर उड़ कर बैठा,फल खाया ली हवा सुहानी।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
पहली बार विशाल जगत को, देखा,घूमा लुत्फ उठाया ।
तरह तरह के चखे मधुर फल,जो मन को भाया वह खाया।।
खूब नहाया फिर झरनों में, पिया नदी का मीठा पानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
कभी नदी की तेज धार में,बहती लकड़ी पर जा बैठा ।
लिया लुत्फ नौका विहार का,मैं अपनी किस्मत पर ऐंठा।।
कभी घोंसले की खिड़की से,लेता शीतल हवा सुहानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
कई बार सागर के ऊपर, उड़ने का आनंद उठाया ।
कई बार हिमगिरि में जाकर,शीतलता पाकर हर्षाना।।
हिमगिरि के उस दिग्दर्शन की,आभा मेरे हृदय समानी।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
बहुत दूर तक गगन गुहा में,उड़ा खूब आनंद मनाया ।
दूर चमकते उच्च क्षितिज पर,तारों का भी दर्शन पाया।।
पूनम का प्रकाश देखा तो, मेरी मन बगिया हर्षानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
बदल गया ऐसे ये जीवन, अब केवल आनंद शेष है ।
नहीं रहा अब कोई बंधन,और न कोई बचा क्लेश है।।
नहीं रही उन्मुक्त जिंदगी, में अब कोई भी हैरानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी,कदर न उसकी हमने जानी।।
कैद नहीं है अब पिंजड़े की, और न कोई बंधन पाते ।
अब असहाय नहीं हूं बिल्कुल,और न दिया किसीका खाते।।
नहीं दुखोंको ठौर बचा अब,चहुंदिशि सुख सरिता का पानी।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
नहीं विलखना और सिसकना,अब आजादी ही आजादी।
ध्यान,ज्ञान,विज्ञान समर्पण, सभी सहायक हैं बुनियादी ।।
बंधन क्या है?अहं हमारा, और हमारी ही नादानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी।।
अहंकार का अपना पिंजड़ा,जिसमें हम सब बंद बंद हैं।
मैं, मेरा तन, रिश्ते नाते, परिवारीजन मंद - मंद हैं ।।
एक परिधि छोटी दुनियां की,इर्द गिर्द कसली अनजानी।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
सबकुछ मान लिया है हमने,अपने इस भौतिक शरीर को।
बंद कर लिया इसमें खुदको,और सह रहा व्यथा पीर को।।
यद्यपि देह अनित्य, अचेतन, पर हमने वह अपनी मानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
हम शाश्वत हैं और नित्य हैं,इस पर ध्यान न गया हमारा।
इन्द्रिय जनित सुखों को हमने,अच्छा माना और विचारा।।
एक आवरण एक वस्त्र सम, यह शरीर है मेरी धानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी।।
क्षणभंगुर हैं रिश्ते सारे, क्योंकि देह भी तो नश्वर है ।
ध्यान न देते सत्य,तथ्य पर,आत्मतत्व का यह तन घर है।।
मन की इच्छा और वासना,ही अबतक जानी पहचानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी ।।
इच्छाओं की पूर्ति हेतु ही,सारा जीवन यहां बिताते ।
ढूंढ रहे आनंद उसी में, आत्मानंद ढूंढ नहिं पाते ।।
परमानंद आत्मा का सुख, वह हमने समझी बेगानी।
वीणा घर में रखी पुरानी,कदर न उसकी हमने जानी।।
आत्मतत्व,परमात्मतत्व ही,है उन्मुक्त गगन उड़ जाओ।
यदि सच्चा आनंद चाहते, तो अंतर्मन से जुड़ जाओ ।।
हम सब हैं मैं के बंधन में, इससे मुक्ति हमें ही पानी ।
वीणा घर में रखी पुरानी, कदर न उसकी हमने जानी।।
ज्ञान,कर्म वा भक्ति योग से,इस पिंजड़े को तोड़ सकोगे।
अहम् तत्व से परमतत्व तक,यह अवलम्बन जोड़ सकोगे।।
योगी,साधक गये हजारों,राह पकड़ जानी पहचानी ।
वीणा घरमें रखी पुरानी,कदर न उसकी हमने जानी।।१२०।
लगातार ............