Khangi in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | खानगी

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खानगी

मैं नहीं जानती जवाहर के संग रहा वह प्रसंग मात्र एक प्रपंच था अथवा सम्मोहन किंतु यह जरूर कह सकती हूँ स्नातकोत्तर की मेरी पढ़ाई में उसने न केवल साझा ही लगाया था वरन् संकीर्ण मेरी दृष्टि को एक नया विस्तार भी दिया था ।

सन् 1959 का वह जवाहर आज भी मेरे सामने आन खड़ा होता है । जब-जब जहाँ-तहाँ अपने उस तैल-चित्र के साथ जो उसने खुद अपने हाथों से तैयार किया था । हम एम.ए. प्रथम वर्ष के वनशिष्यों की वेलकम पार्टी के लिए एम.ए. द्वितीय वर्ष की अपनी जमात की ओर से । उस तैल-चित्र में एकल खिले हुए लाल-पीले, सफेद गुलाब, गेंदा, लिली, पौपी, सूरजमुखी एवं डैन्डेलियन के बीच झाँक रहे पुष्प् समूहों में विकास पाने वाले तिपयिा जामुनी फ्लावर एवं काले पहाड़ी पीपल के गुलाबी उन कैट किन्ज ने तो हमें लुभाया ही था किंतु उनके नीचे लिखे संदेश ने चौंकाया भी था ।

सन्देश था, लेट अ हन्ड्रड फ्लावर्ज़ ब्लूम एंड अ थाउज़ेन्ड स्कूल्ज़ ऑव थौट कन्टैन्ड लिखने-बौराने दो-सौ फूल । और आने दो, तर्क- वितर्क करते हुए हजारों मत... तालियों के बीच जवाहर ने कहा था, ब्लूम, माए फ्रैन्ड्ज़, ब्लूम । खिलो और खिलते रहो, मेरे साथियों...

आज मुझे ब्लूम के अनेक अर्थ मालूम हैं-नवयौवन, बहार, अरूणिमा, लाली आदि आदि...किंतु उस वर्ष यही एक अर्थ मालूम हुआ था: हमें खिलना है और लिखते रहना है । और उसी दिन से मैं ब्लूम के उस संदेशवाहक जवाहर, में रूचि लेने लगी थी । उसे देखती तो यही लगता वह ऊँचा कोई पहाड़ चढ़ रहा था या फिर विशाल किसी सागर के पार पहुँच जाने की तैयारी में था । जबकि मेरे अंदर तब हँसी ही हँसी होठों द्वारा उसकी दिशा में छोड़ दिया करती थी । और ऐसा भी नहीं था कि वह उसका प्रत्युत्तर नहीं देता था । प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रम में उसकी कविताएँ बेशक हमारी व्यवस्था की पटरी बदलने की बात किया करती थीं किंतु उन्हें सुनाते समय वह अपना सिर पीछे की तरफ फेंकते हुए मुझे ही अपनी टकटकी में बाँधा करता था । अपने अंगारों की दहक को बाँधा करता था । अपने अंगारों की दहक को एक शीतल रक्तिमा में बदलते हुए । और उस रक्तिमा को मैं अपने अंक में भर लेती थी और मेरे खाली हाथ गुलाब जमा करने लगते थे । बंद आँखें चाँद देखने लगती थीं और होंठ गुब्बारों में हवा भरने हेतु लालायित हो उठते थे । जभी बारिश-भरा वह दिन आन टपका था, जिसने पारस्परिक हमारे उस आदन-प्रदान पर स्थायी विराम आन लगाया था । अपने लाइब्रेरी पीरियड में अपने विभाग के एक छज्जे से मैंने जब पोर्टिको में खड़ी अपनी एम्बेसेडर कार के ड्राइवर के संग जवाहर को बातचीत में निमग्र पाया तो जिज्ञासावश मैंने लाइब्रेरी का अपना काम अधूरा छोड़ कर उसका रूख कर लिया ।

सन साठ के उन दिनों अपने उस विभाग में मोटरकार से आने वाली केवल मैं ही थी, जिस कारण ड्राइवर के लिए विभाग की उस इमारत का वह पोर्टिको कार पार्क करने के लिए उपलब्ध रहा करता था ।

’बारिश तेज हो रही है, जवाहर जी, वहाँ पहुँचते ही मैंने उसके संग वार्तालाप जमाने के लोभवश उसे अपने साथ कार में बैठ लेने का निमंत्रण दिया था ।’ आप मेरे साथ चल सकते हैं । मैं आपके घर पर आपको छोड़ सकती हूँ...

’धन्यवाद’ उसने मेरा प्रस्ताव स्वीकार करने में तनिक देर न लगायी और ड्राइवर की बगल में जा बैठा । संकोचवश मैंने उसे वहाँ बैठ लेने दिया । पीछे अपने पास बैठने के लिए नहीं कहा । प्रतिवाद नहीं किया ।

आप कहाँ जाएँगे?

जवाहर को अपने घर-परिवार ले जा कर मैं कोई बरखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहती थी। बारह, माल रोड, जवाहर ने मेरा पता दुहरा दिया ।

’जरूर आपको मेरा पता मालूम है, मैं हँस पड़ी । गुदगुदी हुई मुझे ।’

’आपका पता?’ बुरी तरह चौंक कर वह हमारे ड्राइवर का मुँह ताकने लगा ।

’हाँ काका’ ड्राइवर को परिवार के सभी बच्चे इसी नाम से पुकारते थे । हमारे पिता के साथ वह पिछले पन्द्रह वर्ष से तैनात था, और वहीं हमारे बँगले के पिछवाड़े बने सर्वेन्ट क्कार्टर में अपने परिवार के साथ रहता था ।

’आप ही इन्हें बताइए, काका, बारह माल रोड पर तो हमीं रहते हैं, मेरे अंदर की गुदगुदाहट बढ़ ली थी ।’

’बिटिया’ मालिक की बेटी हैं, लल्ला, ड्राइवर खिसिया गया । ’क्या मतलब?’ चौंकने की बारी अब मेरी थी ।

’सच’ एक झटके के साथ जवाहर ने अपनी गरदन मोड़ कर मुझ पर अपनी निगाहें दौड़ायीं ।

उन्हें फेरने हेतु । बदलने हेतु ।

सदा-सदैव के लिए । ’जवाहर हमारा बेटा है, बिटिया’ ड्राइवर की झेंप बढ़ ली । और हमें मालूम ही नहीं । स्थिति मेरी मूठ से बाहर जा रही थी ।

’हमें कौन मालूम था?’ जवाहर का स्वर कड़वाहट से भर लिया, कौन निमंत्रण आप लोग ने हमें कभी भेजा था? जो हम आपको देखने-भालने आपकी चौखट लाँघते? या फिर आप ही ने कौन अपना परदा हटा कर हमारे क्वार्टर में कभी ताका-झाँका था?

’लेकिन काका आपने तो बताया होता हम एक ही कॉलेज के एक ही विभाग में पढ़ते हैं ।’ मैंने उलाहना दिया ।

बताया इसलिए नहीं कि हम जवाहर को आपके विभाग में आप लोग के बराबर बैठे देखना चाहते थे, आप लोग से नीचे नहीं । ’यह नीचे कैसे हो जाते?’ अपनी झेंप मैंने मिटानी चाही । ’हाँ, नीचे तो नहीं ही होता ।’ जवाहर ने अपनी गरदन को एक जोरदार घुमाव दे डाला, ’क्यों कि मैं अपने को नीचा नहीं मानता । क्योंकि अपने को तोलने के मेरे बटखरे दूसरे हैं । आप वाले नहीं...’

मेरे मन में तो आया जवाब मैं कहूँ, मेरे पास भी वही बटखरे हैं जो आपके पास हैं, किंतु अपने उस अठारहवें साल में झूठ बोलना मेरी प्रकृति के प्रतिकूल था ।

बेटे को बड़ा करने में बड़ा देखने में हमने अपनी पूरी जिंदगी लगायी है, बिटिया, ड्राइवर का स्वर कातर हो आया, ’अब आपसे विनती है यह भेद आप अपने तक ही रखना । अपने घर में, अपने परिवार में, अपनी जमात में, अपने विभाग में इसे किसी के सामने खोलना नहीं ।’

’नहीं खोलूँगी काका’ मैं रूआँसी हो चली ।

मेरे हाथ शनैः-शनैः खाली हो रहे थे । उनमें जमा गुलाब मैं अब सँभाल नहीं पा रही थी । उत्तरवर्ती दिन तो और भी विकट रहे ।

मेरी आँखें चाँद की जगह नींद की राह ताकने लगी थीं और मेरे हांेठ भी गुब्बारों से अब दूर ही बने रहना चाहते थे ।

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