विजेंद्र के स्वामी पर शक़ करने और उसे समझाने के बाद क्या शुभांगी दरबार जाना बंद कर देगी? या…पढ़िए आगे: -
विजेंद्र ने शुभांगी की माँ से कहा, "अम्मा आप लोग उस स्वामी के पास क्यों जाते हो? वह कोई भगवान थोड़े ही है। आप लोग मंदिर जाइए, घर पर पूजा-अर्चना कीजिए। यदि आपको प्रवचन सुनने का शौक है तो टी वी पर भी कई प्रवचन आते हैं वह सुनिए। वहाँ जाना छोड़ दीजिए अम्मा। ऐसे अधिकतर स्वामी ढोंगी ही होते हैं। बिरला ही कोई होता है जो सच में सच्चा साधु होता है।"
"आप ग़लत समझ रहे हो बेटा, यह बिरलों में से ही एक हैं। यह बहुत अच्छे हैं, साक्षात भगवान का रूप।"
"यदि बहुत अच्छे हैं तो सिर्फ़ लड़कियों को बुला कर ही क्यों आशीर्वाद देते हैं अम्मा?"
"आज तक पूरे गाँव में कभी किसी ने भी उन पर उंगली नहीं उठाई है और तुम बिना वज़ह ही उन पर शक कर रहे हो बेटा।"
विजेंद्र अपने मन की जो बात कहने आया था, वह कह ना पाया, ना घर पर अपनी अम्मा से और ना ही यहाँ शुभांगी की अम्मा से। दुःखी मन से विजेंद्र उठ कर खड़ा हो गया और अपने घर की तरफ़ जाने लगा।
शुभांगी की रक्षा करने का उसके पास अब एक ही उपाय था कि वह भी शुभांगी से छिपकर उसके पीछे दरबार चला जाए। वहाँ का मुआयना भी कर ले कि आख़िर वहाँ स्वामी के कितने साथी हैं और उसे कितनी तैयारी के साथ वहाँ जाना पड़ेगा।
उसी दिन लगभग दस बजे के आसपास जब शुभांगी अपनी अम्मा के साथ दरबार जाने के लिए निकली तब विजेंद्र छिपकर उन पर नज़रें गड़ाए हुए था। वह धीरे-धीरे उनके पीछे चल पड़ा। उसने अपने चेहरे को मफलर से ढक कर अपनी पहचान छुपा ली ताकि गाँव के लोग उसे पहचान ना सकें। दरबार में जमा भीड़ देखकर विजेंद्र हैरान था कि कितने लोगों की श्रद्धा जुड़ी है इस स्वामी से। विजेंद्र सोच रहा था सिर्फ़ शुभांगी ही क्यों उसे गाँव की हर लड़की को बचाना होगा और पूरे गाँव के लोगों की इस अंधश्रद्धा को ख़त्म करना होगा। इसके लिए स्वामी का असली रूप सबके सामने लाना ही पड़ेगा ।
स्वामी के दरबार का मुआयना करने के बाद विजेंद्र को लगा कि इस काम के लिए उसे अपने साथ काम करने वाले कुछ और साथियों की ज़रूरत होगी। उसने अपने दोस्त इंस्पेक्टर राजन को यह सारी बातें बताई जो कि इस समय इसी गाँव में ड्यूटी पर था।
विजेंद्र की बातें सुनकर राजन ने कहा, "विजेंद्र मैं तो अभी-अभी यहाँ आया हूँ। इस बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानता पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि हमारे कुछ साथी भी स्वामी के भक्त हैं।"
"राजन हम दूसरी जगह से कुछ इंस्पेक्टर और सिपाही बुला लेंगे लेकिन उसके लिए किसी बड़े आदमी की सिफ़ारिश की ज़रूरत पड़ेगी जिसकी पहुँच ऊपर तक हो।"
"अरे हाँ, अंकल जी हैं ना विजेंद्र।"
"हाँ राजन, मैं आज ही बाबूजी से बात करता हूँ। उनके सम्बंधों के तार ऊपर तक जुड़े हुए हैं। हमें आज के बाद किसी भी लड़की को उस पाखंडी के चंगुल में नहीं फंसने देना है।"
विजेंद्र ने रात को दीनानाथ जी से कहा, "बाबूजी हमें स्वामी का पर्दाफाश करने और गाँव की बेटियों की इज़्ज़त बचाने के लिए आपकी मदद की ज़रूरत है।"
"बोलो विजेंद्र मैं क्या कर सकता हूँ? तुम जो कहोगे, मैं ज़रूर करूंगा।"
"बाबूजी हमें बाहर से कुछ पुलिस के आदमी चाहिए क्योंकि यहाँ तो ज़्यादा कर्मचारी हैं भी नहीं और जो हैं वह भी स्वामी के भक्त हैं। वह उसके विरुद्ध मन लगाकर काम नहीं करेंगे। हो सकता है हमारी योजना भी उसे जाकर बता दें और वे लोग सतर्क हो जाएँ।"
"विजेंद्र यह काम तो मैं आसानी से करवा दूँगा। तुम्हारी योजना क्या है?"
"बाबूजी वह सब आप मुझ पर छोड़ दीजिए।"
"ठीक है बेटा, मुझे तुम पर पूरा भरोसा है। तुमने यदि इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया है तो तुम ज़रूर कर लोगे।"
उसके बाद दीनानाथ जी ने अपनी पहचान के कुछ उच्च अधिकारीयों से मिलकर इस बारे में बात की और उनकी मदद से कुछ पुलिस कर्मचारियों को गाँव में मदद के लिए बुला लिया। यह सारे कर्मचारी सादे कपड़ों में ही इस काम के लिए जुट गए ताकि कोई उनको पहचान ना सके। विजेंद्र, राजन और इन सिपाहियों ने योजना के अनुसार दरबार पर नज़र रखना शुरू कर दिया।
एक दिन सुबह लगभग चार बजे विजेंद्र ने एक लड़की को सर ढक कर दरबार से बाहर आते देखा। वह जल्दी-जल्दी गाँव की तरफ़ जा रही थी। विजेंद्र ने उसका पीछा किया। दरबार से दूरी होने के बाद विजेंद्र उसके सामने आकर खड़ा हो गया। लड़की विजेंद्र को देखकर घबरा गई।
विजेंद्र ने पूछा, "तुम इतने सुबह दरबार से वापस आ रही हो इस तरह? क्यों गई थीं वहाँ और इतने अँधेरे में छिपकर चोर की तरह वापस क्यों जा रही हो?"
लड़की की आँखों में आँसू थे, बाल अस्त व्यस्त थे।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः