Laut aai khushiyan in Hindi Moral Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | लौट आईं ख़ुशियाँ

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लौट आईं ख़ुशियाँ

सरिता अपने दोनों बेटे करण और वरुण तथा दोनों बहुओं आशा और प्रीति से हमेशा नाराज़ रहती थी, कारण था ज़रूरत से अधिक अपेक्षा रखना। सरिता को ख़ुश रखने की वे चारों चाहे जितनी भी कोशिश करें लेकिन उसे कभी संतोष नहीं होता। वह हर वक़्त अपने पति राकेश से उन सभी की शिकायत करती रहती।

राकेश हमेशा उसे समझाता, "सरिता वह चारों नौकरी वाले हैं, फिर भी उनसे जितना बनता है, करते हैं। हद से अधिक चाहोगी तो हमेशा इसी तरह दुखी रहोगी।" 

अपनी ज़िद पर अड़ी सरिता अपने पति की बातों से कभी सहमत नहीं हुई। दोनों बहुओं को भी वह एक दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काती थी। घर में धीरे-धीरे कलह  बढ़ती ही जा रही थी। घर का माहौल दूषित होता चला गया, फिर भी सरिता अपनी हरकतों से बाज नहीं आई। दोनों बेटे माँ को तो कभी कुछ नहीं बोल पाते लेकिन अपनी पत्नियों को अवश्य ही समझाते थे। आशा और प्रीति में भी मन मुटाव बढ़ता ही जा रहा था। 

सरिता को भड़काने वालों की भी कमी नहीं थी। उसकी सहेलियाँ भी कुछ इसी तरह की थीं, जो हमेशा सरिता के मन में ज़हर भरती रहती थीं।    

राकेश यह जानता था इसलिए उसने एक दिन सरिता से कहा, "सरिता अपने बेटे बहु ही अपने काम आएंगे। हमारे बुढ़ापे का सहारा वही होंगे। तुम क्यों ऐसे लोगों के साथ सम्बंध रखती हो जो तुम्हारा दिमाग़ ख़राब करते रहते हैं।"  

सरिता नाराज़ हो गई और उसने कहा, "आप मेरी सहेलियों पर ग़लत आरोप लगा रहे हो। वह सब तो बहुत अच्छी हैं, मुझे समझती हैं।"  

राकेश ने फिर उसे समझाते हुए कहा, "अब भी वक़्त है संभल जाओ, एक माँ का कर्त्तव्य है अपने परिवार को जोड़ कर रखना। छोटी-मोटी ग़लतियों को नज़र अंदाज़ करना। बच्चों से ग़लती हो तो उन्हें माफ़ करना। सबसे बड़ी ग़लती जो तुम कर रही हो, हद से ज़्यादा अपेक्षा रखना। देखना सरिता यदि तुमने स्वयं को नहीं बदला तो एक ना एक दिन हमारा घर टूट जाएगा। बच्चे बड़े हैं, बार-बार अपना अपमान वह भी सहन नहीं करेंगे।" 

अपने पति की बातों को सरिता ने मानो हवा में उड़ा दिया, वह बिल्कुल नहीं बदली। आख़िरकार वही हुआ जो नहीं होना चाहिए था। आशा और प्रीति ने तंग आकर अपने-अपने पति से अलग रहने की ज़िद करना शुरू कर दिया। अंततः वरुण और करण को उनके आगे झुकना पड़ा और उन्होंने अपना ट्रांसफर मुंबई से पुणे करवा लिया। इस तरह दोनों बेटे अपने परिवार को लेकर अलग हो गए। 

दोनों भाइयों में बहुत प्यार था, समझदारी थी, अतः उन्होंने एक ही बिल्डिंग में आमने-सामने के दो घर किराए पर ले लिए। कुछ ही दिनों में आशा और प्रीति  को भी यह समझ में आ गया कि उनके बीच के मतभेद का असली कारण सरिता थी। अतः वे दोनों भी मिलजुल कर रहने लगी। 

सरिता का स्वाभिमान अभिमान में बदल चुका था। उन्होंने अपने बेटे बहुओं से नाता तोड़ दिया, ना उन्हें कभी फ़ोन किया ना ही उनका फ़ोन आने पर बात की।   करण और वरुण हर दीपावली पर अपने परिवार के साथ त्यौहार मनाने आते रहे किंतु तब भी सरिता का व्यवहार रूखा-सूखा ही रहता। वह बात-बात पर ताने मारती रहती, बहुओं का अपमान करती। लेकिन राकेश अपने बेटे-बहु के साथ बहुत प्यार से बातें करते, अधिक से अधिक समय उनके साथ बिताते।

धीरे-धीरे समय आगे बढ़ता रहा। जवानी साथ छोड़कर जाने लगी, सरिता की बढ़ती उम्र के साथ बीमारियों का आगमन हो गया। किटी पार्टी बंद होने लगी साथ घूमने फिरने वाली सहेलियों का आना-जाना कम हो गया। 

उम्र के इस पड़ाव पर सरिता को अब अपने बेटे बहू की याद सताने लगी। किंतु वह कभी अपने पति राकेश से भी यह नहीं कह पाती। भूतकाल में जब भी जाती, उन्हें अपनी ग़लतियाँ स्पष्ट दिखाई देतीं। उन्हें याद आता कि इतने वर्षों तक उनका व्यवहार कितना शर्मास्पद था। वह स्वयं भी अब शर्मिंदा हो रही थी।  सरिता को राकेश की बातें अब बार-बार याद आती थीं जिन्हें वह पहले हवा में उड़ा दिया करती थी। अपनों को वापस पाने की चाह बार-बार उनके दिल में उमड़ रही थी लेकिन अपना अभिमान कैसे तोड़े। कैसे अपनी ग़लतियाँ सभी के समक्ष स्वीकार करें।   

सरिता के अंदर चल रहे इस तूफ़ान को राकेश महसूस कर रहा था। राकेश ने अपने बेटों को फ़ोन करके सरिता के विषय में बताया। तब दोनों बेटे परिवार सहित अपनी माँ से मिलने तुरंत ही आ गए।    

गहरी सोच में डूबी हुई सरिता के कानों में अचानक ही कुछ आवाज़ें गूँजी माँ। यह आवाज़ें दोनों बेटे-बहुओं की थीं। सरिता ने आँखें खोल कर देखा तो उनके सामने पूरा परिवार खड़ा था। अपने परिवार को देखकर सरिता के मन में ऐसे बादल उमड़ रहे थे जो प्यासी, तरसी हुई धरा को पानी देकर उसकी प्यास बुझाते हैं।   

सरिता के आसपास दोनों बेटों के साथ दोनों बहुएँ भी बैठी थीं। सरिता प्यार भरा हाथ अपने बच्चों पर फिरा कर  स्वर्ग के सुख की अनुभूति कर रही थी। उनकी आँखों से आज पश्चाताप के मोती टपक रहे थे। आज उनके पास ना अभिमान था ना ही स्वाभिमान था, यदि कुछ था तो वह प्यार था।   

ख़ुशियों और प्यार के साथ एक सप्ताह कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। सरिता का मन बैठा जा रहा था, इस एक हफ्ते में मानो उसे जीवन भर की ख़ुशियाँ मिल रही थीं और इन ख़ुशियों को अब वह छोड़ना नहीं चाहती थी।

वापस जाने की घड़ी नज़दीक आ गई। आशा और प्रीति सरिता के पास आकर बैठ गईं, सरिता बुझी-बुझी दिख रही थी।   

आशा ने कहा, "माँ अब हम आपको अकेले नहीं रहने देंगे पापा और आप दोनों को अब हमारे साथ ही रहना होगा।"  

"आप चलोगी ना माँ," प्रीति ने पूछा। 

तब तक वरुण और करण भी वहाँ आ गए, सरिता क्या जवाब देगी सभी को इंतज़ार था। सबसे ज़्यादा बेचैन राकेश का दिल था किंतु वह जानता था कि बच्चों के प्यार के लिए तरसी सरिता, जो अब बदल चुकी है, पछता रही है, कभी इंकार नहीं करेगी।

  

सरिता ख़्यालों में खो गई और सोचने लगी कि शायद भगवान ने उसे यह एक सुनहरा अवसर दिया है, प्यार लुटाने के लिए, अपनी ग़लतियाँ सुधारने के लिए। परिवार के साथ जो ख़ुशियाँ कभी ना मना पाई, वह ख़ुशियाँ मनाने के लिए।   

करण ने आवाज़ लगाई, माँ जवाब दो।

  

सरिता अपने ख्यालों से जागी और कहा, "हाँ बच्चों मैं ज़रूर चलूंगी।"   

सरिता का यह जवाब सुनकर पूरा परिवार ख़ुशी से झूम उठा। राकेश मन ही मन सोच रहा था कि आज एक नई सरिता का जन्म हुआ है, जिसने पुरानी सरिता को अब मार डाला और अपनी ग़लती स्वीकार कर एक नई शुरुआत की, प्यार की शुरुआत। 

काश यह पहले हुआ होता ख़ैर देर आए दुरुस्त आए। आख़िर ख़ुशियों को लौट कर आना ही पड़ा।

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)