अभी तक आपने पढ़ा स्वामी के विषय में सुनकर विजेंद्र चिंतित हो गया। उसे शुभांगी की चिंता सताने लगी। आख़िर कौन था और कैसा था यह स्वामी पढ़िए आगे: -
"विजेंद्र वह मेरी हर बात मानती है लेकिन स्वामी के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं सुन पाती। वह कहती है काकी आप उन्हें नहीं मानतीं, नहीं विश्वास करतीं लेकिन हमारे लिए तो वह भगवान हैं, क्या करूँ जबरदस्ती तो नहीं कर सकती ना मैं।"
"अम्मा शुभांगी कितनी सुंदर है, आपको नहीं लगता कि वह खतरे में है। वह स्वामी यदि ग़लत नीयत रखता है तो उसकी नज़र शुभांगी पर ज़रूर पड़ी होगी। आपकी बातें सुनने के बाद तो मुझे उस स्वामी के आशीर्वाद में हवस की बू आ रही है।"
"हाँ तुम ठीक कह रहे हो विजेंद्र । शुभांगी के पिता उस स्वामी के बहुत ख़ास भक्त हैं शायद इसीलिए अब तक शुभांगी को उस स्वामी ने हाथ नहीं…"
बीच में ही बात काटते हुए विजेंद्र ने कहा, "नहीं अम्मा ऐसे लोगों का कोई भरोसा नहीं। वे किसी को भी अपना नहीं समझते। उन्हें केवल अपना काम होने से ही मतलब होता है।"
"विजेंद्र बेटा तुम तो पुलिस इंस्पेक्टर बन गए हो ना, तुम ही कोशिश करके देख लो। मैं तो कोशिश करके थक गई लेकिन उनकी आस्था के बंधे हुए तारों को हिला तक नहीं पाई, तोड़ने की तो बात ही जाने दो। शुभांगी के लिए मुझे भी डर लगता है, चिंता भी लगी रहती है। वह तन की जितनी सुंदर है, मन की भी उतनी ही सुंदर और पवित्र है, अल्हड़ भी है। उसे दुनियादारी की अभी उतनी समझ नहीं है, जितनी होनी चाहिए। मैं भी कई बार उसके साथ स्वामी के दरबार में गई हूँ ताकि कहीं से कोई सुराग, कोई सबूत मिल जाए। लेकिन बहुत शातिर दिमाग़ है उस स्वामी का। कभी कोई सबूत नहीं छोड़ता, कोई ग़लती नहीं करता। लड़कियों को क्या पाठ पढ़ाता है कि वो भी अपनी ज़ुबान कभी नहीं खोलतीं।"
शुभांगी पर अपना दिलो जान लुटा चुका विजेंद्र चिंतातुर हो रहा था। वह रात भर सो भी नहीं पाया।
दूसरे दिन सुबह उठते ही विजेंद्र शुभांगी के घर पहुँच गया। दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ सुनकर शुभांगी की माँ शकुंतला दरवाज़ा खोलने आई। अपने सामने विजेंद्र को देखकर उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ।
"अरे विजेंद्र बाबू आप यहाँ?"
विजेंद्र ने तुरंत ही झुककर शकुंतला के पाँव छुए।
"यह क्या कर रहे हो बेटा?"
"क्यों अम्मा, क्या मैं आपके पाँव नहीं छू सकता?"
"ऐसी कोई बात नहीं है आओ-आओ बेटा बैठो।"
शकुंतला पानी लेने अंदर गई, तब विजेंद्र की आँखें गोल-गोल इधर से उधर घूम-घूम कर शुभांगी को ढूँढ रही थीं।
तभी अंदर से आवाज़ आई, "शुभांगी बेटा उठ जा, देख तो बाहर कौन आया है?"
"सोने दो ना अम्मा।"
"अरे बाहर देख विजेंद्र बाबू आए हैं।"
"क्या? वह भला अपने घर क्यों आएँगे?"
"बाहर जा कर तो देख।"
शुभांगी नींद से उठ कर सीधे चली आई। घुँघराले काले घने बालों से झाँकता हुआ चाँद-सा मुखड़ा देख कर विजेंद्र बिना कुछ बोले मानो अपनी जगह पर स्थिर हो गया। बगासी खाते हुए शुभांगी ने पूछा, "विजेंद्र सुबह-सुबह कैसे आना हो गया?"
शकुंतला ने शुभांगी को टोकते हुए कहा, "अरे सीधा नाम क्यों ले रही है?"
"अरे अम्मा बचपन में भी तो ऐसे ही बुलाती थी।"
विजेंद्र होश में आया और उसने कहा, "क्यों शुभांगी मैं नहीं आ सकता, क्या तुम्हारे घर?"
"नहीं-नहीं पहली बार आए हो इसलिए मैंने पूछा, काकी ठीक तो हैं ना?"
"हाँ-हाँ ठीक हैं, मैं तुम्हें लेने आया हूँ।"
"क्यों कहाँ जाना है?"
"आज अम्मा के साथ तुम्हें बाज़ार जाना है ना।"
"नहीं विजेंद्र मैं आज तो बिल्कुल नहीं आ सकती। आज स्वामी जी का दरबार है।"
"अगले हफ्ते चले जाना शुभांगी।"
"नहीं यदि उन्होंने मुझे बुलाया तो मेरी क़िस्मत चमक जाएगी।"
"शुभांगी क्या वह भगवान है जो तुम्हारी क़िस्मत चमका देगा।"
"बिल्कुल भगवान ही तो हैं। तुम भी चलो हो सकता है तुम्हें भी वह आशीर्वाद के लिए बुला लें।"
"क्यों क्या वह लड़कों को भी आशीर्वाद देने के लिए बुलाता है?"
शुभांगी सोच में पड़ गई, कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा, "नहीं वह केवल लड़कियों को ही आशीर्वाद देते हैं।"
"ऐसा क्यों है शुभांगी? उसके लिए तो लड़के लड़की दोनों एक बराबर होना चाहिए फिर वह लड़कों पर अपनी कृपा दृष्टि क्यों नहीं बरसाता?"
"क्या तुम स्वामी जी पर शक़ कर रहे हो?"
"हाँ बिल्कुल, तुम्हें इस तरह अंधश्रद्धा नहीं रखनी चाहिए।"
इतने में शकुंतला चाय के साथ गरमा गरम भजिए लेकर आ गई।
रत्ना पांडे वडोदरा गुजरात
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः