अभी तक आपने पढ़ा कि गाँव के मुखिया दीनानाथ जी के बेटे विजेंद्र ने अपने बचपन की साथी शुभांगी को पाँच वर्ष के बाद जब देखा तो उसे देखता ही रह गया। क्या कह रहा है उसका मन पढ़िए आगे :-
विजेंद्र ने शहर में एक से एक मॉडर्न, एक से एक ख़ूबसूरत लड़कियाँ देखी थीं, उनसे मिला भी था और उसकी कई दोस्त भी थीं किंतु ऐसा भोलापन, ऐसा अल्हड़पन, मासूमियत लिए हुए ऐसी सुंदरता उसे वहाँ देखने को नहीं मिली थी। ऐसी सुंदरता जिसमें कहीं मेकअप का नामोनिशान तक नहीं था, चौबीसों घंटे उतनी ही एक जैसी ख़ूबसूरती। विजेंद्र आज शुभांगी को अपना दिल दे बैठा।
इतने में पार्वती काकी भी वहाँ आ गईं। शुभांगी की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "अरे विजेंद्र पहचाना इसे? कौन है यह?"
"हाँ अम्मा पहचान तो गया पर थोड़ी देर लगी, कितनी बड़ी और कितनी ख़ूबसूरत हो गई है।"
"ऐ विजेंद्र नज़र मत लगा मेरी बच्ची को।"
शुभांगी की चंचलता देखकर विजेंद्र हैरान था। वह जिधर जाती विजेंद्र की नज़रें अपने आप उसका पीछा करती हुई दिखाई देतीं। वह देख रहा था चंद मिनटों में ही शुभांगी ने घर में अस्त-व्यस्त पड़ा सारा सामान ठीक से रख दिया। उसे लग रहा था मानो शुभांगी घर के कोने-कोने से परिचित है। इतने में शुभांगी की आवाज़ उसके कानों में आई, "काकी विजेंद्र को हलवा बहुत पसंद था ना, बना दूँ?"
"तुम्हें अभी तक याद है," विजेंद्र ने पूछा?
"हाँ उसमें क्या है, बिल्कुल याद है। मुझे तो यह भी याद है कि तुम कितना सारा हलवा खा जाया करते थे।"
तभी पीछे से काकी की आवाज़ आई, "हाँ-हाँ, बना दे बेटा नेकी और पूछ-पूछ, चल फिर जल्दी से बाज़ार चलते हैं।"
"काकी ज़्यादा समय नहीं लगेगा बस दस मिनट।"
शुभांगी फटाफट हलवा बना कर ले आई।
"लो विजेंद्र खा कर बताओ कैसा बना है?"
विजेंद्र ने हलवा मुँह में रखते ही कहा, " वाह शुभांगी यह तो लाजवाब है, जैसा अम्मा बनाती हैं। तुम भी खाओ शुभांगी।"
"नहीं मेरा नाश्ता तो सुबह ही हो जाता है। मैं तुम्हारी तरह इतनी देर तक नहीं सोती।"
"मैं भी रोज़ इतनी देर तक नहीं सोता हूँ। कल रात अम्मा बाबूजी से बात करते-करते बहुत रात हो गई थी इसलिए आज उठने में देर हो गई।"
"स्वामी जी कहते हैं सुबह जल्दी उठ जाना चाहिए?"
"स्वामी जी! कौन स्वामी जी?"
"चलो-चलो शुभांगी देर हो रही है," काकी ने आवाज़ दी।
"हाँ चलो काकी," कहते हुए शुभांगी सीधे बाहर की तरफ़ चली गई और वह बात अधूरी रह गई।
उसके जाने के बाद भी विजेंद्र की आँखों में उसी की तस्वीर दिखाई दे रही थी। अब वह उनके लौटने का इंतज़ार बड़ी ही बेसब्री से कर रहा था। लगभग ढाई घंटे बाद वे दोनों वापस आए।
घर पर पार्वती काकी को छोड़ कर शुभांगी ने कहा, "काकी अब मैं जाती हूँ ।"
तभी विजेंद्र ने कहा, "अरे खाना खाकर जाना शुभांगी।"
"नहीं, माँ इंतज़ार कर रही होगी।"
इतने में पार्वती काकी की आवाज़ आई, "ठीक है शुभांगी, कल एक बार वापस बाज़ार जाना है, तुम आ जाना।"
"काकी कल तो स्वामी जी का दरबार है, मुझे वहाँ जाना होगा, अपन परसो चलेंगे।"
"कल मत जाओ ना शुभांगी?"
"नहीं काकी कल प्रवचन के बाद भजन कीर्तन भी है और क्या पता आशीर्वाद देने के लिए स्वामी जी मुझे ही बुला लें?"
शुभांगी की बातें सुनकर विजेंद्र का माथा ठनका। उसके जाते ही उसने पूछा, " अम्मा क्या है यह सब? कौन है यह स्वामी? और कैसा आशीर्वाद? यह क्या कह रही थी शुभांगी।"
"विजेंद्र यह लोग स्वामी के बहुत बड़े भक्त हैं। इन्हें बड़ी आस्था है उन पर, भगवान समझते हैं उस पाखंडी को। मुझे वह इंसान बिल्कुल पसंद नहीं परंतु ये लोग हर पंद्रह दिन में उस के दरबार में जा कर बैठते हैं प्रवचन सुनने। मुझे तो लगता है उस स्वामी की नीयत ठीक नहीं है परंतु इन लोगों को इतनी अंधश्रद्धा है कि चाहे कितना भी समझाओ यह लोग समझने को तैयार ही नहीं। यदि वह किसी को पास बुलाकर सर पर हाथ भी रख दे तो इन लोगों को लगता है कि साक्षात भगवान ने उन्हें आशीर्वाद दे दिया। किसी के साथ यदि कुछ ग़लत भी हो जाता हो तो कुछ तो उसे सच में आशीर्वाद समझ लेते हैं और कुछ हक़ीक़त को समझने के बाद बदनामी के डर से चुप रह जाते हैं।"
"अम्मा क्या आपको पूरा यक़ीन है कि यह आदमी ठीक नहीं?"
"विजेंद्र कोई सबूत तो नहीं है लेकिन वह हमेशा लड़कियों को ही आशीर्वाद देने के लिए बुलाता है इसीलिए मन में शक़ होता है।"
"तब तो अम्मा हमें शुभांगी को बचाना होगा," विजेंद्र के मुँह से यह अनायास ही निकल गया। 777
रत्ना पांडे वडोदरा गुजरात
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः