छोटे से गाँव में रहने वाली शुभांगी सोलह वर्ष की हो गई थी। उसका अंग-अंग मानो सुंदरता की परिभाषा गढ़ रहा हो। चेहरे पर उगते सूरज जैसी लालिमा, पूनम की चाँदनी जैसा बदन पर निखार, ऐसा लगता था मानो उसकी रचना करते समय भगवान सुंदरता की परिभाषा बना रहे थे। सुंदर मन, चंचलता से भरा हुआ तन, हिरनी के समान पूरे गाँव में दौड़ती भागती शुभांगी की इस सुंदरता से उसकी माँ शकुंतला बहुत डरती थी। कहीं मेरी बेटी को किसी की नज़र ना लग जाए इसलिए अभी तक भी हर रोज़ अपनी आँखों से ऊँगली में काजल लेकर उसे लगा दिया करती थी। इस तरह उनका काजल लगाना शुभांगी को भी बहुत पसंद था।
उछलती कूदती शुभांगी गाँव में सभी को बहुत पसंद थी। वह कभी 80 वर्ष की जमुना काकी के घर जाकर उन्हें काम में मदद कर देती और कभी किसी वृद्ध को अस्पताल ले कर चली जाती। गाँव के मुखिया दीनानाथ की पत्नी पार्वती काकी भी उसे बहुत पसंद करती थीं। दीनानाथ जी हमेशा व्यस्त रहते थे क्योंकि गाँव की सभी जवाबदारियों का बोझ उन्हीं के कंधों पर था। पार्वती काकी का इकलौता बेटा विजेंद्र शहर पढ़ने चला गया था। पार्वती काकी को भी शुभांगी का बड़ा सहारा था। कुछ भी खरीददारी करनी होती तो वह शुभांगी के साथ ही जाया करती थीं ।
विजेंद्र और शुभांगी बचपन में साथ-साथ खेला करते थे। उसके बाद विजेंद्र शहर चला गया। विजेंद्र के शहर जाने के बाद से उन्हें मिले हुए लंबा वक़्त गुजर गया था। जब भी छुट्टियों में विजेंद्र घर आता, शुभांगी छुट्टियाँ मनाने अपनी नानी के घर चली जाती थी। उसकी नानी पास के ही गाँव में रहती थीं। अपने नाना के गुज़र जाने के बाद शुभांगी नानी को अपने साथ गाँव ले आई। इसलिए उसका इस वर्ष गाँव जाना रुक गया।
विजेंद्र उम्र में शुभांगी से पाँच वर्ष बड़ा था। वह अपनी पढ़ाई पूरी करके, पुलिस इंस्पेक्टर की ट्रेनिंग लेकर कुछ वक़्त के लिए गाँव आया था। उसे शुभांगी को देखे हुए पाँच वर्ष बीत गए थे और शुभांगी अब सोलह वर्ष की हो गई थी। आज पार्वती काकी को कुछ खरीददारी करने बाज़ार जाना था इसलिए उन्होंने शुभांगी को बुला लिया। लाल लहंगे के ऊपर, हल्के गुलाबी रंग की चोली और उस पर पतला-सा लाल दुपट्टा शुभांगी के सौंदर्य में चार चाँद लगा रहा था। उसकी ख़ूबसूरती भरे हुए गागर से छलकते हुए पानी की तरह छलक-छलक कर मानो बह रही थी। पार्वती काकी नहाने के लिए चली गईं। लगभग दस साढ़े दस का समय था।
उसी वक़्त शुभांगी ने आकर दरवाज़ा खटखटाया। विजेंद्र गहरी नींद में सो रहा था, दरवाजे पर दस्तक की आवाज़ सुनकर वह मिचमिचाती ऑंखों से दरवाज़ा खोलने गया। दरवाज़ा खोलते ही उसे शुभांगी दिखाई दी। उसे देखते ही जो आँखें अच्छी तरह खुल भी ना पाई थीं, वही आँखें इस तरह खुल गईं मानो वह सुबह की नींद का कब से त्याग कर चुकी हों। शुभांगी के काले घुँघराले बालों की लटें हवा के साथ बार-बार उस के कपाल पर आ रही थीं। जिन्हें वह बार-बार हटाने की नाकाम कोशिश कर रही थी पर वह लटें और हवा मान ही नहीं रहे थे।
तभी उसने पूछा, “पार्वती काकी कहाँ हैं?”
अपने होशो हवास खो चुका विजेंद्र एक टक उसे देखे ही जा रहा था। उसकी आँखें क्रियाशील थीं, ऐसा लग रहा था कान सुन नहीं पा रहे हैं। सारी शक्ति आँखों ने ही अपने अंदर समेट ली है और कैमरे की तरह सामने खड़ी शुभांगी की तस्वीर को वह अपनी आँखों में क़ैद कर रही हैं।
उसने चुटकी बजाते हुए फिर से पूछा, “अरे पार्वती काकी कहाँ हैं?”
तब तक पीछे से आवाज़ आई, “अरे विजेंद्र! तू क्या कर रहा है? दरवाज़े पर कब से दस्तक हो रही है, खोल ना दरवाज़ा और उसे अंदर आने दे।”
सकपका कर विजेंद्र ने कहा, “हाँ-हाँ अंदर आओ, अम्मा नहा कर आ रही हैं।”
तभी विजेंद्र ने पूछा, “तुम शुभांगी हो ना?”
“हाँ मैं शुभांगी हूँ और तुम विजेंद्र हो।”
“अरे तुम मुझे पहचान गईं?”
“हाँ बिल्कुल”
“कैसे?”
“क्यों हवेली के हर कमरे में तो तुम्हारी बड़ी-बड़ी तस्वीर लगी हैं, जो रोज़ ही आते- जाते दिखाई देती हैं फिर पहचानूँगी कैसे नहीं?”
“क्या मैं तुम्हें याद नहीं, हम बचपन में कितना साथ में खेलते थे?”
“हाँ याद है पर अब तुम बड़ी हो गई हो, कितनी ख़ूबसूरत भी हो गई हो। तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं देखी ना मैंने, बस इसीलिए पूछना पड़ा।”
रत्ना पांडे वडोदरा गुजरात
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः