जब मेरी बी. एस. टी. सी. पूर्ण हो गयी। तब मैंने सोचा किसी ऐसे शांत जगह पर जाने की; जहाँ रहकर मैं अपना अध्ययन पूर्ण निष्ठा के साथ कर सकूँ क्योंकि असली परीक्षा तो अब आने वाली थी।
उस समय गुरुदेव चाँदन गाँव के एक निजी विद्यालय में संस्थाप्रधान के पद पर कार्यरत थे। नोरे के समान ही उस विद्यालय के बच्चें और संस्थान के संस्थापक दुर्जन सिंह जी भी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके 'जिगरी' बन गए थे।
'जिगरी' वो उनको कहते जो उनके खास हो जाते थे ।जिगर के पास वाले। और ऐसे जिगरी दोस्तों की संख्या दिन प्रतिदिन अब भी बढ़ ही रही है।
एक दिन जब गुरुदेव रविवार के दिन नोरे आये ,नोरे के दोस्तों की खबर लेने। तब मैंने उनसे अपनी समस्या बताई की नोरे में इतने सारे दोस्तों के बीच शोर - शराबा और बंतळ थोड़ी ज्यादा हो जाती है और मैं अपना अध्ययन सही तरीके से कर नहीं पा रहा हूँ। तभी गुरुदेव ने मुझे अपने साथ चांधन चलने का बोला और कहा कि साथ में अध्ययन करेंगे। और मुझे तो इतना अच्छा अवसर मिल रहा था कैसे छोड़ता हालांकि उनसे पहले नोरे के ही मित्र नेणु जी ने भी कहा था कि "आप बाड़मेर आ जाओ यहाँ समाज के ही दो कमरे बने हुए है और बहुत शांत वातावरण भी है । यहाँ आपका अध्ययन अच्छे से हो जाएगा।"
पर जब गुरुदेव ने चांधन चलने को कहा तो सोचा वहीं चले जाएं गुरुदेव के सानिध्य में । और अगली ही सुबह सोमवार को गुरुदेव के साथ चांधन चला गया।
जो सूखे रेगिस्तान को भी चमन बना दे । वैसा ही कार्य गुरुदेव ने किया । गुरुदेव ने उस विद्यालय में जैसा कार्य किया उसी का परिणाम है कि आज भी उस संस्थान के मालिक उनके इतने नजदीकी है।
जिस दिन उनके साथ मैं चांधन पहुंचा तब सावन का सोमवार था और वहीं पर भगवान शिव के मंदिर में आराधना हो रही थी। सुबह का नाश्ता करके ही हम विद्यालय पहुंच गए और विद्यालय में गुरुदेव ऐसे थे जैसे एक गमले में बहुत सारे छोटे पुष्पों के मध्य गुलाब के फूल । उनकी उपस्थिति सभी को अपनी और अनायास ही आकृष्ट कर रही थी। मैंने पहली कक्षा में एक कालांश लिया और फिर कुछ देर स्टाफ रूम में बैठा और उनके ऑफिस और विद्यालय का कुछ निरीक्षण किया।
विद्यालय समय के पश्चात रूम में जाने पर मेरा मन अचानक पूरा बदल गया। मेरे मन में अचानक न जाने कैसे ऐसा विचार आ गया कि मैंने गुरुदेव को कह दिया कि मुझे बाड़मेर जाना है नेणु जी के पास क्योंकि उनसे पहले बात की थी और वो न जाने क्या सोचेंगे।
लेकिन इसके पीछे कारण था मेरे ज्यादा सोचने वाले मन का। गुरुदेव ने कहा था कि यहाँ न तो रूम का किराया लगेगा। खाना भी बना हुआ मिलेगा। बस थोड़ी देर स्कूल जाके आएंगे और फिर अपना अध्ययन करेंगे।
लेकिन यह बात मेरे मन में बार-बार आ रही थी कि अगर स्कूल में जाऊंगा तो उतना टाइम अध्ययन को नहीं दे पाऊंगा। और रूम में भी गुरुदेव के परिचित आते रहते है फिर शायद अध्ययन उतने प्रभावी रूप से कर न सकूँ। फिर सोचा गुरुदेव को ये बात बता दूं लेकिन पता था तब गुरुदेव मुझे स्कूल जाने से मना कर देते और रूम में सिर्फ अध्ययन करने का बोलते। लेकिन फिर मन ने सोचा कि अगर ऐसे ही रूम में रहा तो अच्छा नहीं लगेगा कि बिना किराए और खाने की इतनी अच्छी सुविधा का भोग करूँ।
तब मन ने कहा यहाँ से खिसक ले।
मन में चलने वाले इस विचारों और विश्लेषण ने मन में ऐसी दुविधा उत्पन्न कर दी कि में शाम को ही बस में वापस जैसलमेर आ गया। मेरे मन की यह दुविधा मैंने आज तक गुरुदेव से नहीं कही लेकिन यह पढ़कर अवश्य पता चल ही जाएगी। इसलिए माफ करना गुरुदेव। गुरुदेव जिन्होंने इतना सोचा और किया मेरे लिए पर ऐसे एक ही दिन में उनके पास से लौटकर आना । यह सोचकर आज भी एक पीड़ा सी हो जाती है दिल में; कि यह पता नहीं कैसे हो गया मेरे से।
इस घटना के पश्चात मैं बाड़मेर चला गया नेणु जी के पास और दो महीने अच्छे से अध्ययन करने के पश्चात गुरुदेव के साथ बिताए हुए मेरे स्वर्णिम समय की स्वर्णिम शुरुआत होती है।