रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 7
काव्य संकलन-
समर्पण-
देश की सुरक्षा के,
सजग पहरेदारों के,
कर कमलों में-
समर्पित है काव्य संकलन।
‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्द-
आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।
आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वा.-(म.प्र)
हो गई खाली यहाँ पर,दौलतों की कोठियाँ,
है नहीं संतोष जब तक,सोच जाली सभी के।
क्या किसी ने की अभी तक,भूख की पैमास की,
बादशाहे,या मजूरे,पेट खाली है सभी के।।301।।
अगर अब भी नहीं संभले,होएगी तूफान ये,
फिर रुकेगी नहीं रोके,वह समय नजदीक आया।
जब कभी भड़की है इनके,पेट की वो आग भी,
बुझाने को जो भी दौड़ा,वह तो झुलसा हुआ पाया।।302।।
आए हो लेने यहाँ पर,जिंदगी का जब मजा,
काट लो हँस खेल जीवन,जी रहे क्यों ऐंठकर।
दावतों में जहाँ बफर हो,कंजूशियाँ किस वास्ते,
तौलते तौला और माशा,मयखाने में भी बैठकर।।303।।
लोग अब भी जानकर सब,जान नहीं पाए तुझे,
ताल-स्वर-लय से अलग सब,कौन सी यह तान है।
नमन है तेरी कला को,कलावर शत-शत यहाँ,
पुज रहे जो,संग के भी भगवान,के भगवान है।।304।।
उस ओर ही केवल यहाँ,है निगाहें सभी की,
देखता है कौन तुझको,फिर रहा अंजान बन।
युग-युगों से पुज रहे,तेरी कला के करिश्में,
छू रहे है जिगर को भी,वे जिगर भगवान बन।।305।।
बात करती है सभी से,क्या कभी तुमने सुनी,
किस कदर ऊँची उठी है,इस धरा की मंजिले।
सिर्फ देखो ना बुंलदी,करिश्मा बुनियाद का,
जो जिगर पर ले खड़ी है,मंजिले दर मंजिले।।306।।
और तुम अब भी न जागे,बदलते बस करवटें,
खोलकर आँखे तो देखो,सूर्य निकला आसमां।
हौसले ऊँचे अगर तो,छू सकोगे फलक को,
छू लिया है धूल ने भी,हौसलों से आसमां।।307।।
और अब आगे न बढ़ना,हद तुम्हारी यहीं तक,
है बनाता कौन दुनियाँ,जानते है यह सभी।
तुम बनाते जा रहे हो,मंजिले दर मंजिले,
उस खुदा से भी क्या ऊँचे,हो सकोगे क्या कभी।।308।।
इस तरह से बहुत सारा,गाँठ में मत बाँध चल,
साथ में नहिं जाएगा कुछ,बाँट दे-सौगात को।
गर मिटाना है तुझे भी,दर्द का यह सिलसिला,
बदल लो तुम हर खुशी में,दर्द की औकाद को।।309।।
जिंदगी का सिलसिला यह,चल रहा कब से न जाने,
दर-बदर होता रहा और गुदड़ियाँ सीता रहा।
खून वे पीते रहे और नोंचते रहे चाम को,
जिगर को पूँछों जरा यह,किस तरह जीवन रहा।।310।।
बहुत गहरा और चौड़ा,दर्द का दरियाव ये,
पार बिरला पा सका है,जान पाया जो वखत।
दर्द का एहसास केवल,जान सकते दर्द से,
राखना इसको संभाले,ये कसौटी है-फकत।।311।।
किस तरह कहते रहे सब,ताज खुशियों से भरा,
मास की तो क्या कहे,वे हाड़ भी तो बीनते।
बैठकर भी ताज पर,भूखे दिखे वे आज भी,
वे-सहारों के अभी भी,वे निवाले छीनते।।312।।
इस तरह,वे-हालियत में,आज की दुनियाँ दिखी,
है कहाँ संसार सुख का,श्वास गिन-गिन छोड़ती।
फुल यहाँ पर वेयर हाउस,मौज मस्ती जश्न के,
उस तरफ भूखों की लाइन,भूख से दम तोड़ती।।313।।
यदि नहीं तो,वे खबर सी जिंदगी में क्या मिला,
कीमती सा यह सफर भी,क्यों उजाड़ा है सभी।
तुम को गहरा मानते है,उस समंदर से अधिक,
आज के वातावरण पर,क्या बिचारा है कभी।।314।।
यह कहानी सी नहीं है,हकीकत की बात है,
नियति की लीला रुके बरु,कलम तो रुकती नहीं।
हो गई है भौथरीं,तलवार की वह धार भी,
जोर-जर-जुल्मों के आगे,कलम तो झुकती नहीं।। 315।।
क्या कभी भूलें-भुलेगे,आपके एहसान ये,
जिंदगी की हर तमन्ना आपने पूरी करी।
और अब भी चल रहे हो,वेधड़क अपनी डगर,
आदमी नहीं देवता हो,तुम पुजोगे हर घरी।।316।।
होयेंगे वे शीप,संकुल,जो बिके होगे कभी,
यह नहीं उनकी है वस्ती,जो झुके दरबार में।
नहीं बिकेगें कुर्सियों के मोल में,यह भूल है,
क्या कभी हीरे बिके है,शाक के बाजार में।।317।।
स्वाद जो इसमें रहा है,वह कहाँ अमृत मिले
भूलकर भी नहीं पीएगें,हम अमर,इससे सभी।
जहर ही पीते रहे हम,पीढ़ियों से आजतक,
जहर ही अमृत हमारा,नहीं पीया अमृत कभी।।318।।
सोच की औकाद ओछी,हर समय तुम में रही,
फिर कहाँ चिंतन हो अच्छा,ये तुम्हारे नाम है।
हम जिए है अरु जिएगें,आग के घर बैठकर,
तुम भलां पंखे हिलाओ,यह तुम्हारा काम है।।319।।
यह नसीहत है तुम्हें,इस कलम को मत छेड़ना,
डूब जाऐगा जहाँ,इसकी उगलती बूँद में।
है स्वर्ग इसमें सुखों का,बस इसे पहिचान लो,
हैं छिपे संग्राम,इसकी इक उबलती बूँद में।।320।।
तुम भलां मानो न मानो,मानना इक दिन पड़े,
यह कहानी है अनौखी,पा सको संतोष कर।
नेह का रस बहुत मीठा,पके आमों से अधिक,
छोड़ने को मन न करता,बार-बार चूसकर।।321।।
पैर नहीं थकते कभी भी,डूब गई कई कस्तियाँ,
है नहीं इन पर भरोसा,है भरोसा पैर पर।
नाज हो तुमको भलां,उन कस्तियों पर आज भी,
पार तो हमने किए,सातों समंदर तैर कर।।322।।
हो खड़े अपने ही पैरों,नहीं भरोसा और का,
अपने सदां अपने रहे है,गैर होते-गैर से।
डूबतीं देखी गयीं,वे कस्तियाँ कई बार तो,
कर दिया छोटा समंदर,तैरकर इन पैर से।।323।।
खूब खींचो और तानों सोच के इस सोच को,
नहीं कहीं ढूड़े मिले कुछ,कोई बाजारु है नहीं।
जो लिखा,कुछ भी लिखा,अपना लिखा,
मत करो शंका जरा,कोई उधारु है नहीं।।324।।
जी रहे तो जिओ हँसते,चार दिन के दौर में,
दर्द भी पीकर हँसो नित,अश्क टपकाना मना।
आदमी तो आदमी है,राह में थकता नहीं,
सूर्य तो निश्चय उगेगा,कहाँ टिके कोहरा घना।।325
तुम्हें रखना है संभाले,अश्क की तासीर को,
अश्क की गहराई समझों,जो छुपी है अश्क में।
इन्हें मत योहीं उडेलो कीमती ये अश्क है,
पी लिए थे सप्त सागर,टपकते उस अश्क में।।326।।
सप्त सागर से बड़ी है,बूँद इसकी एक ही,
जान ली जिसने है कीमत,वो निराला शक्श है।
जिंदगी में आँसुओ से,कीमती कुछ भी नहीं,
ये नहीं तो कुछ भी नहीं,जिंदगी ही अश्क है।।327।।
मैं तुम्हें अपना समझता,तुम कढ़े कुछ और ही,
वो जख्म चौड़े हुए है,कढ़ सके नहीं पाटकर।
अब तलक रक्खा छुपाकर,तुम को गुनाहों की तरह,
कर दिये टुकड़े दिलों के,नस्तरों से काटकर।।328।।
गरजतें बादल न समझो,दर्द की वो पीर है,
जी रहे जीवन में घुट-घुट,बस यहीं सब जान ले।
देख लो सारा जहाँ ही,गमों में डूबा हुआ,
खूब ही घिर-घिर बरसतें,ये रहे वे बादले।।329।।
दूरियाँ बढ़ती गई नित,बस यहीं तो भूल है,
हो न पाए एक अब तक,सोचते आए सदां।
मंजिले हमरी और तुमरीं,तथा उनकी एक ही,
समझने की जरुरत है,रास्ते होते जुदा।।330।।
थी जहां जन्नत,जहन्नुम कर दई,
रो रहा है वह खुदा अब,केश अपने नोंचकर।
यहाँ कई ईंसान भी,हैवान होता जा रहे,
उस खुदा ने नहीं बनाया,था इसे यह सोचकर।।331।।
वक्त को खोना,बड़ी ही भूल होगी,
जो गया,सो गया,लौटकर नहीं आता है।
वक्त की तासीर को,समझो तो,हो जरा,
तुम भलां रुकते रहो,वक्त गुजर जाता है।।332।।
चल पड़ो उस राह पर,राह जो इंसान की,
हो गया उस पार निश्चय,सत्य मारग जो चला।
बड़ी मुश्किलों से तुम्हें,ये मंजर मिला है,
तुम इसे यूँ-ऐसे क्यों,बेफिकर गँवाते हो भलां।।333।।
अति किसी की भी हो,अच्छी नहीं होती,
बर्फ भी तो,आग की तासीर देती है।
इसलिए चलना तुम्हें है,सोचकर सब कुछ यहां,
वो टिटहरी भी कुछ देख कर,अण्डे सेती है।।334।।
सब्र की बुनियाद गहरी,मानते क्यों कर नहींॽ,
इसलिए कुछ क्षण गुजारो,ये अंधेरा छटेगा।
सब्र तो राखो मनों में,रात लम्बी नहीं होती,
है यहीं निश्चय सदां से,सूरज सुबह ही उगेगा।।335।।
बने अंजान क्यों बैठे,करो कुछ गौर तो अब भी,
काठ भी बनता है चंदन,अनेको बार घिसके।
तुम्हारा इस कदर चलना,तुम्हें मंजिल थमाएगाॽ,
सोच लो इन लिवासों पर,अनेको रंग है किसके।।336।।
कसर तो छोड़ी नहीं है तुमने कोई,
बहुत बौने हो गए,सच में उदर से।
दोस्तों से तो,लगा दुश्मन भले है,
मारते तो है,मगर नहीं इस कदर से।।337।।
क्या कहें ऐसी कहानी,आज तुमरी,
आस्तीनी साँप हो,अब समझ पाया।
डुबोते है बीच में,दुश्मन हमेशा,
दोस्तों ने लाकर,किनारे पर डुबाया।।338।।
इस करम पर रोएगा,विश्वास इक दिन,
वे मौत ही मरना पड़ेगा,दूर दुर-दरे पर।
डूबते यदि बीच में,नहीं दर्द होता,
डूबने का दर्द है,बस इस किनारे पर।।339।।
तुम बने हो एक दूजे के सहायक,
अलग होकर,नहीं चले व्यापार डेरा।
इंसान से पहिचान तेरी है,ये खुदा,
चल रहा है इसी से,यह संसार तेरा।।340।।
दूध की पहिचान है ज्यों,नीर के संग,
बाद्य की पहिचान,त्यों है शब्द-भेरी।
मानते है तूँ बड़ा इंसान से भी,
हो नहीं सकती,इंसान बिन पहिचान तेरी।।341।।
आज के इस बदचलन माहौल को लख,
हो रहे चिंता ग्रसित,इंसाफ के घर।
है अगर इंसाफ की कोई तराजू,
बह मिलेगी तो,सिर्फ इंसान के घर।।342।।
जब अमन-जन्नत बनेगीं यह धरा,
आऐगा कब यहाँ पर ऐसा मुहुरत।
यदि दिलों में,एकता के भाव जागे,
न्याय के दरबार की फिर कहाँ जरुरत।।343।।
जो चला इंसानियत की राह हर क्षण,
उसी ने पाई जहाँ में,मानवी सौगात है।
मानते-सब में बराबर है खुदा ही,
इंसान होना तो, यहाँ बड़ी सी बात है।।344।।
जो चले इस राह पर,बन गए देवता वो,
प्रकृति भी तो चल पड़ी,उसकी कही में।
जो चला अपनी तरह से,राह अपनी,
मंजिलों को पा लिया,उसने सही में।।345।।
इस जमीं पर छोड़ कुछ ऐसी निशानी,
जो लिखें इतिहास के पन्ने,लिखा तो।
और की राहों पर चलना,कहाँ मुश्किल,
खुद बना तूँ राह,चलकर के तो दिखा तो।।346।।
लकीर का फकीर नहीं,तो हौसलें दिखा,
क्या बनाई,पर्वतों को काट तूनें राह अपनी।
यदि सही तो,तूँ यमुन और गंग होगा,
होऐगे उपमान छोटे,बानगी होगा तूँ अपनी।।347।।
जो मिला,मिलकर रहा,पूजा जहाँ ने,
वह हुआ है देवता,और कुछ है ही नहीं।
इंसान हो तो,टूटकर भी मिल रहो,
अन्यथा जीवन में,और कुछ है ही नहीं।।348।।
कई है भटकाव राहों में,मगर-
राह अपनी पर चलों,तब तो जानें सभी।
सुबह का भूला,जो लौटे शाम तक,
तो उसे भूला नहीं,कोई कहते कभी।।349।।
दीपक नहीं,जो एक झौकें से बुझे,
फूटकर ज्वालामुखी,कब क्या रुका है।
राह आया रोकने,जो मिटा है कई तरह,
नियति का सिद्धांत,किससे मिट सका है।।350।।