Rang badalta aadmi, Badnam Girgit - 6 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 6

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रंग बदलता आदमी, बदनाम गिरगिट - 6

रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट 6

समर्पण-

काव्य संकलन-

देश की सुरक्षा के,

सजग पहरेदारों के,

कर कमलों में-

समर्पित है काव्य संकलन।

‘रंग बदलता आदमी,बदनाम गिरगिट’

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

मो.9981284867

दो शब्द-

आज के परिवेश की,धरती की आकुलता और व्यवस्था को लेकर आ रहा है एक नवीन काव्य संकलन ‘रंग बदलता आदमी- बदनाम गिरगिट’-अपने दर्दीले ह्रदय उद्वेलनों की मर्मान्तक पीड़ा को,आपके चिंतन आँगन में परोसते हुए सुभाषीशों का आभारी बनना चाहता है।

आशा है आप अवश्य ही आर्शीवाद प्रदान करैंगे- सादर।

वेदराम प्रजापति

मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा

ग्वा.-(म.प्र)

मैं भी समझता सब कुछ,तसल्ली कब तलक दोगे,

फैसला होऐगा वो ही,जिसे हम तुम समझते है।

मगर कई बार यह देखा,कि किस्मत बदलती पहलू,

तुम्हारी इन दुवाओं से,कही कुछ पल बदलते है।।251।।

राह जो दुर्गम रहीं,आसान ही होती दिखीं,

पहुँचकर ही मंजिलो पर,खुश हुआ-कूल्हा नहीं।

रोकते ही रह गए,हालात के रोड़े मुझे,

पर चला,दे ढोकरे ही,लक्ष्य को भूला नहीं।।252।।

इस लिये ही हर कहीं,साहस तुम्हारा बोलता,

आसमाँ को भी झुकाया,इस धरा की चाह ने।

बहुत रोका था मुझे,हर मोड़ पर हालात ने,

रुक न पाए कदम मेरे,हार मानी राह ने।।253।।

चल सके हो तुम कहाँॽ,औकाद से हटकर कभी,

हो सके क्या तुम किसी के,दूध पीकर भी कहीं।

क्यों उठाने फन लगे हो,फुँकार ही तो बहुत है,

यह जमाना जानता सब,तुम किसी के भी नहीं।।254।।

सच तुम्हारी चाल को भी,जानते है सब कोई,

हो नहीं सकते हो अच्छे,काटते दबकर सदां।

लग रहा यूँ,फन तुम्हारा कुचलना ही पड़ेगा,

सोच लो अब भी समय है,कोई कुछ कह ले भलां।।255।।

इस जमाने ने तुम्हारी,बहुत ही पूजा करी,

दूध पीकर भी हमेशा,उगलते विष ही रहे।

टोरकर अब दाँत सारे,जहर की ग्रंथी निकाले,

नहीं सुनेगे अब किसी की,बहुत कुछ सहते रहे।।256।।

क्या खरीदोगेॽ बताओ आज के बाजार में,

मोल माटी के यहाँ पर,अस्मतें भी बिक रहीं।

बिगड़ता ही दिख रहा,बाजार का माहौल सब,

अर्थियों पर राजशाही,रोटियाँ भी सिक रहीं।।257।।

बहुत ही नाचीज समझो,जिंदगी को आज तुम,

मोल इसका तुम समझ लो,शाक-भाजी सा रहा।

हैं नहीं संकोच कोई,यहाँ खुला बाजार है,

बेच लो सब कुछ,खरीदो,कौन किससे कम रहा।।258।।

यह जमाना जाऐगा,किस दिशा की ओर में,

समझ सकता है न कोई,दर्द को है दर्द भी।

है नहीं कोई भी पर्दा,मुल्क की तासीर में,

हो रहा है नाच नंगा,साथ में-वे-पर्द भी।।259।।

अनगिनत बेचैनियों से,है भरा इंसान अब,

बेतुकी सी चाल चलता,समझना भी बहुत मुश्किल।

आज के हालात इतने,गिर चुके है साथियों,

आदमी को आदमी भी,कहना हुआ बड़ा मुश्किल।।260।।

बाहरी पौशाक कुछ है,और अंदर और कुछ,

लग रहे है ये हमारे,किन्तु वे है हर तरफ।

आज के भगवान देखो,कंचनो से तुल रहे,

लुढ़कते वे पेंदी होकर,इस तरफ से उस तरफ।।261।।

जिस जिंदगी को,जिंदगी तुम समझ कर बैठे,

उसकी कहानी को रात भर,वे झिल्लियाँ गाती रहीं।

बनना चाहो गर खरा सोना,तो कसौटी पर कसो,

यदि नहीं तो,इंसान कहाने में,शर्म भी आती रही।।262।।

जानकर सब कुछ यहाँ पर,लोग संभले है नहीं,

लग रहा ये धरा भी,अब गई और तब गई।

मयकसी में बैठकर के,कह रहे इंसान हम,

या खुदा जहन्नुम तुम्हारी,क्या कभी जन्नत हुई।।263।।

उम्र भी लम्बी हुई,इस न्याय की औकाद की,

पीढ़ियाँ मिटती गई,पर नहीं मिला कोई नक्शा।

फाईलें भी मर चुकीं,और झड़ गए पन्ने सभी,

किन्तु मुंशिफ ने,न अब तक न्याय कोई वक्शा।।264।।

लिखों वो,जो एक पक्तिं ही,बदल दे जीवन,

जिस तरह से जोड़-घटने में,है सफल हासिल।

लिख दई तहरीर ईतनी,क्या मिला इससे कभी,

बदलना उसने न सीखा,जो रहा हर समय कातिल।।265।।

बहुत से मुंशिफ बदल गए,फट गई हैं फाइलें,

न्याय की औकाद कैसीॽ,रो रही पीढ़ी।

खाक में मिलते दिखे सब,आस के पन्ने,

स्वास ने भी हार मानी,न्यायालय सीढ़ी।।266।।

किस तरह रह पाएगी,इंसानियत जीवित,

ढूढ़ना है हल कोई भी,और क्या कहना।

न्याय की औकाद ओछी,बिक रहे मुंशिफ,

या खुदा तुझसे इबादत,किस खलक रहना।।267।।

जानना वे चाहते,नहीं जानने तुमने दिया,

सब तरह अंजान रक्खातुम नहीं माने।

कब उगा सूरज यहाँ पर,और कब डूबा,

उन बिचारों की खता क्याॽ,जो नहीं जाने।।268।।

तब कहीं चुकता बनोगे,इस धरा के कर्ज से,

हो मिलन इंसानियत का,जिंदगी व्सवहार में।

सूर्य तो ऐसा उगाओ,जो नहीं डूबे कभी,

बस उजाला ही उजाला,हो भरा संसार में।।269।।

यदि रहा जो यही क्रम,वीरान दुनियाँ जान लो,

छा रहे विपल्व के बादल,यह नियति का तार है।

कहाँ बहारों का जमाना,फूल भी मुरझा रहे,

चमन का गुल्जार होना,इस तरह दुश्वार है।।270।।

चेतना खोती दिखा रही,चिंतनों की यह धरा,

कश्तियों की क्या कहे,डूबते है जहाज तक।

पत्थरों के देवता,भगवान कैसे हो गए.

रात दिन जो एक करते,वे पुजे कब,आजतक।।271।।

कोई भी समझा नहीं है,राज इसका आज भी,

आज कल की बात क्याॽ,यों ही जमाने जा रहे।

इंसान से भी है बड़ी,पाषाण की ये मूर्तियाँ,

हर समय जिनकी इबादत,लोग करते आ रहे।।272।।

किस लिए आया यहाँ पर,याद कर उसकी जरा,

भूल जा यहाँ की कहानी,व्यर्थ काहे खाक छाने।

साथ जाते है कभी क्याॽ,धन-इमारत-स्वर्ण भी,

व्यर्थ में क्यों सिर खपायी,नाचीज के लाने।।273।।

भागता क्यों फिर रहा,कस्तूरिया मृग सा बना,

तेरी खुदी में है खुदा,और सब जाली।

साथ कुछ जाता नहीं है,सब यही रहता,

तूँ अकेला जाएगा,और हाथ भी खाली।।274।।

उठक बैठक खूब होगी,नींद नहीं आ पाएगी,

जो रहा साथी तुम्हारा,दूर उससे क्यों हटे।

याद तुझको आऐगीं ही,उस समय की बात सब,

चैन नहीं तुझको मिलेगा,बदलकर भी करवटें।।275।।

नींव के पत्थर बनो तो,मंजिलें पूजे तुम्हें,

धन्य हो जीवन तुम्हारा,मान लो अब ही,जगे।

कर सको कुछ काम ऐसे,इस सदी के वास्ते,

नहीं भुलाए जा सकोगे,भूलना मुशिकल लगे।।276।।

फिर कहाँ अंतर रहेगा,इस जमीं और स्वर्ग में,

क्यों बनो अंजान प्यारे,यह सभी कुछ,जानकर।

हो गया यदि कुछ अनूठा,इस चमन के वास्ते,

गीत गाएगे धरा पर,देवता भी आनकर।।277।।

और कब तक खेलते ही,रहोगे खूँ होलियाँ,

तुम भलाँ समझो न समझो,खूब पहिचाना तुम्हें।

एक दिन में,बार कितने,बदलते हो मुखौटे,

हो बड़े बहुरुपिए तुम,आज ही जाना तुम्हें।।278।।

इस तरह की जिंदगी जीकर कहाँ को जाओगे,

तुम कटीली झाड़ियाँ हो,सुमन के गमला नहीं।

रुप इतने आपके कैसे संभालो हो-भलां,

ये निगोड़ा एक ही तो,आज तक सभला नहीं।।279।।

और तुम हमको सताते जा रहे,रुकते नहीं,

घूँट गम के बस यही तक,पी रहे है आजतक।

मजबूर इतना मत करो,कि मुठ्ठियाँ कसना पड़े,

हम तुम्हारे ही लिए तो,जी रहे हैआज तक।।280।।

इसलिए घरती पे आओ,ओ धरा के देवता,

नियति के इस खेल को,नहीं जान पाए आज तक।

मत चढ़ो इतनी ऊँचाई,सभल भी नहीं पाओगे,

जो गिरा इतने से नीचे,उठ सका नहीं आज तक।।281।।

इस तरह की राम लीला,खेलना अब बंद कर,

हाथ नहीं आएगा कुछ भी,इस तरह,जो चाहते।

बहुत कुछ खोना ही पड़ता,तब कहीं मिलता है कुछ,

चाहते हो बहुत कुछ,करना नहीं कुछ चाहते।।282।।

खून में बदलो पसीना,इस पसीने के लिए,

आओ मिलकर यह करे,संसार होगा सुख भरा।

मस्त मौलो की जरुरत,है नहीं इस जहाँ में,

तुम निकाले जाओगे,मेहनत कशों की यह धरा।।283।।

पर्दा उठाया जा रहा है,इस नकाबी भेष का,

बन्द हो चारों तरफ से,कोई नहीं है रास्ते।

तुमने किया है जो यहाँ,वख्शे नहीं अब जाओगे,

तुम उजागर हो गए,अपने किये के वास्ते।।284।।

लाख कोशिश तुम करो,मेरी धरा गुल्जार है,

देखती आँखे हजारों,मूँद सकते तुम नहीं।

हर सजा के वास्ते,मैं तो यहाँ मंजूर हूँ,

जहन में जिंदा रहूँगा,भूल सकते तुम नहीं।।285।।

तुम कसर छोड़ो नहीं,मेरी मिटाने हस्तियाँ,

पर मुझे विश्वास इतना,तुम मिटा सकते नहीं।

फिर कहाँ चिंता मुझे है,सत्य का मंजर मेरा,

सत्य सृष्टि का विधाता,तुम मिटा सकते नहीं।।286।।

किए जो बार,पीछे से,तुम्हारी हरकतें ओछी,

अगर हैं हौसले तुम में,जरा कुछ सामने आओ,

तुम्हे में मुद्दतों से जानता,औकाद ओछी है,

अभी भी माफ कर सकता,जरा कुछ संभल तो जाओ।।287।।

नहीं है पैर कातिल से,नहीं ये मुठ्ठियाँ पोली,

भुजाओ में ठसक अब भी,तुम्हें सौ बार मारेगें।

दिए है जख्म जो गहरे,कभी भी भर नहीं सकते,

जब भी मारना होगा,तुम्हें सरे आम मारेगें।।288।।

तुम्हारी हरकतें देखीं,लगी है बालपन जैसी,

मगर,अब सोच ली हमने,तुम्हारा नाम पलटेगे।

तुम्हारे कायदे झूठे,तुम्हारे वायदे झूठे,

तसल्ली है नहीं अब तो,तुम्हारा तख्त पलटेगे।।289।।

तुम्हें कई बार छोड़ा है,बितायी मुद्दतें ऐसे,

मगर हो नियत के ओछे,तुम्हारे हाड़ बीनेगे।

तुम्हारी हरकते ऐसी,गुजारे होएगे कैसे,

तुम्हें चैलेंज देते है,तुम्हारा राज्य छीनेगे।।290।।

जुर्म करने वालो को,सजा मिलती है जरुर,

नियम है सत्य कुदरत का,हर किसी के वास्ते।

इसलिए ही जुर्म की तासीर,ओछी सब कहे,

सोचकर,अपनी जमीं के,खोजने है रास्ते।।291।।

अभी भी संभलकर चल लो,नियति का यह संदेशा है,

सभी के आँख के कंकड़,हो सकते कैसे जुदा।

जो चला विपरीत होकर,नियति ने वक्सा नहीं,

बच सका नहीं न्यायकर्ता,हो भलां चाहे खुदा।।292।।

तुम्हें चुनौती है,लाख कोशिश कर लो,

काम नहीं आएगी,तुम्हारी कोई भी कला।

हमें चाँद ना समझों,जो धब्बो से भरा है,

कब टिका है अंधेरा,सूर्य उगने पर भलां।।293।।

हट जाएगे तेरे,ये सारे के सारे नकाव,

अब उजागर हो गया सब,जो चला-सो चला।

दूर्वीन मंगालो,तुम्हारी आँखे बहुत कमजोर है,

दाग मिलने से रहे,सूर्य के चहरे पर भला।।294।।

समझ आती नहीं है,चाल इनकी इतनी बेढंगी,

न जाने कौन सा जादू है,अभी तक चलता रहा।

ये बहुत ही छली है,हर कोई तो है जानता,

जानकर भी तो इनको,हर कोई भी छलता रहा।।295।।

इनका करिशमा,लोग देखते ही रह जाते है,

सब कुछ जानकर भी,सारी दुनियाँ बेखबर सोती है।

इस छली जिंदगी पर,कोई भी तो विश्वास नहीं करता,

कभी-कभी तो ये,बाबन से भी विराट होती है।।296।।

विश्वास नहीं होता है,फिर भी मानते है लोग,

सच से लगते है वे किस्से,कहानी सभी।

बुरे दिनों में,अपने भी पराय होते है,

वो सोने के हार भी,मयूरों ने निगले कभी।।297।।

इस लिए तो लोग कहते है,समय को मत भूलना,

समय होता है बड़ा बलवान,समय को जानो सभी।

क्या कहे किस्मत की खूबी,बुरे दिन आए जभी,

उछलकर जल में समा गई,मछलियाँ भी वे भुजी।।298।।

कर रहे बहुत अच्छा,हम समझते ही रहे,

हमारे सब कयासी महल,यहाँ पर हो गए धूरा।

कभी सोचा नहीं था कि,रहेगे हम कभी पीछे,

हमारी समझ ने हमको,यहाँ धोका दिया पूरा।।299।।

झेलकर सारी समस्या,जी रहे है आज भी,

और जीते ही रहेगे,कोई शिकवा है नहीं।

अंतडी ये पेट की,गीत गाती है सदाँ,

पर किसी के सामने,हाथ पैलाए नहीं।।300।।