भाग -44
तुम्हारे नहीं कहते ही मैं गुस्से में बोला, 'चल हट, तुझसे कुछ नहीं होगा। तेरे साथ मैं भी पड़ा रहूंगा। हम-दोनों जिंदगी में जो कर सकते थे, वह कर चुके। अब जो ज़िंदगी बची है, उसमें ऐसे ही अपना नाम, अस्तित्व खोने, जब-तक शरीर चले तब-तक गुलामी करने, और जब ना चले, तब एड़िया घिस-घिसकर मरना है, समझी। इसलिए अब से यह सब कहना-सुनना बंद। गुलामी जितनी कर सकते हैं, वही करें बस। अब चल उठ, तेरे कमरे का सामान यहां ले आएं। नहीं तो कमीनी बहनें निकाल देंगी।'
यह कहते हुए मैं खड़ा हो गया। लेकिन तुमने फिर हाथ पकड़ कर बैठा लिया और बोली, ' सुनो, इतनी जल्दी गुस्सा ना हुआ करो। पहले ठंडे दिमाग से बात को समझो। तुम मर्द हो, थाने पर तुम्हें वो खतरा नहीं है, जो औरत के नाते मुझको है। हालाँकि मेरी इज्जत तो यहां भी नहीं बची। औरतों ने ही औरत को लूटवाया। मगर यहां मलाल इसलिए ज़्यादा नहीं है क्योंकि मैं खुद भी उसी रास्ते पर चल कर अपना कुछ भला कर लेना चाहती थी।
लेकिन थाने पर पहले पुलिस वाले जी भर लूटेंगे, फिर बात आगे बढ़ेगी। तब-तक थाने पर ये कमीनी बहनें गड्डी तौल देंगी। सब-कुछ इनके मनमाफिक हो जाएगा। हम कहीं के नहीं रहेंगे । मुझे डर है कि तब मैं तुमको भी खो बैठूंगी। अब तू ही बता मैं गलत हूं कि सही। अगर मैं गलत हूं, तो तू जैसा कहेगा, मैं सब-कुछ आंख मूंदकर वैसा ही करूंगी।'
तुम्हारी बात मुझे सही लगी। थाने में उस महिला का हाल देख ही चुका था।अचानक ही उसकी याद आ गई, सोचा पता नहीं बेचारी ज़िंदा बची थी या नहीं। खुद पर पड़ी मार भी भूला नहीं था। दिमाग में यह सारी बातें आते ही मैं कुछ बोल नहीं पाया। बात को बदलने के लिए कहा, 'चल अच्छा सामान ले आएं। जैसा कह रही है, वैसा ही कर।'
'सामान सवेरे ले आएंगे, बहुत रात हो गई है। चल सो।'
अगले दिन सवेरे जब मैं पांच बजे सोकर उठा, तो देखा तुम पहले ही अपना सारा सामान ला चुकी थी।
मैंने तुमसे कहा, 'अरे ये क्या बात हुई, मैंने तो कहा ही था कि साथ ले आएंगे। काहे को अकेले परेशान हुई। कब उठी बताया भी नहीं।'
'सामान है ही कितना, जो बेवजह तेरी नींद खराब करती। चार बजे नींद खुली, सोचा काम-धाम में लगने से पहले सामान ही उठा लाऊँ, नहीं तो फिर दिन-भर फुर्सत नहीं मिलेगी। एक बार तुझे जगाने की सोची, लेकिन बेखबर सोता देखकर सोचा, जाने दो, अकेले ही ले आती हूं। थोड़ी देर पहले ही आकर बैठी हूं। सोचा इन बहनों का मुंह देखने से पहले थोड़ा आराम कर लूं।'
'ठीक है। करती तो तू अपने मन की ही है।'
इस दिन के बाद फिर कभी हम-दोनों के बीच कोई कारोबार करने, रमानी हाऊस को छोड़ने आदि को लेकर कोई बात नहीं हुई। असल में हम-दोनों बरसों से समय की चोट खा-खा कर टूट चुके थे। इसलिए कोई भी बड़ा कदम उठाने से पहले असफलता, मुश्किलों को लेकर भीतर समाये डर को खत्म नहीं कर पाते थे, और इस डर से बच निकलने का कारण ढूंढ लेते थे।
इसी सोच के चलते अब हम-दोनों रमानी बहनों की और भी ज्यादा सेवा करने लगे थे। उनको कुछ बताए बिना ट्रक भी बेच दिया। उससे जो रकम मिली वह उन लोगों को दे दी, जिनसे माल ले-ले कर रमानी फैक्ट्री में दिया था। इसके बाद भी कुछ बकाया रह गया था। लेनदारों का जब ज़्यादा दबाव पड़ा, तो फिर रमानी बहनों के हाथ जोड़े, कहा पगार से काटती रहना, तब उन्होंने काम भर का पैसा दिया।
ऐसा हम-दोनों ने इसलिए कहा, क्योंकि हम जानते थे, कि अगर यह कहेंगे कि हमारे माल का भुगतान कर दें तो निश्चित ही एक पैसा नहीं देंगी।
हम-दोनों ने कलेजे पर पत्थर रख कर संतोष कर लिया कि, हमारे तब-तक के जीवन की सारी कमाई डूब गई। कहीं गिर गई। हालांकि तुम उस बात को लेकर बहुत दिनों तक रोई थी। तब मैं तुम्हें समझाता था। तुम्हारी हालत देखकर मुझे बहुत कष्ट होता। मैं अपनी पगार से हर बार तुम्हें आधा पैसा देने लगा। आगे कुछ महीने बाद ही एक ज्वाइंट एकाउंट खुलवा लिया गया। उसी में दोनों आधी से ज़्यादा पगार जमा करने लगे। मैं कहता सैमी, असल में रमानी बहनों द्वारा हमें बासू-सैमी ही कहने के कारण हमें भी इन्हीं नामों की आदत पड़ गई थी। हम आपस में भी इन्हीं नामों से एक-दूसरे को बुलाते थे।
जैसे-जैसे पैसा जमा होने लगा, मेरे दिमाग में योजनाएं फिर कुलबुलाने लगीं। जब पैसा जमा कर मैं कहता, 'सैमी सुन, जब ज़्यादा पैसा जमा हो जाएगा, तो अब की रमानी बहनों को बिना बताए ही कुछ धंधा करूंगा। मैं उस भले मानुष होटल वाले का जिक्र करते हुए कहता कि, उन्हीं से होटल के धंधे के बारे में पता कर, वही करूंगा।'
यह सुनते ही तुम कहती 'छोड़ न, अब कुछ काम-धंधा करने की बात न किया कर।'
मैं बात दोहराता तो तुम बिदकती हुई कहती, 'तेरा दिमाग फिरा का फिरा रहेगा। अरे ये पैसे वाले सब एक जैसे होते हैं। वो भी बड़ा कारोबारी है। तू इतना नहीं समझता कि, जब तू उसी के जैसा धंधा करने को कहेगा, तो वो ये नहीं सोचेगा कि, ये तो मेरी ही दुकान बंद कराने आ गया। फिर जैसे इन बहनों ने फंसाकर नचाया ना, वो भी ऐसे ही कहीं फंसा देगा।'
'अरे, मैं उसकी दुकान के पास अपनी दुकान थोड़ी न खोलूंगा। उसे पहले ही बता दूंगा कि, मैं अपना धंधा किसी दूसरे इलाके में खोलूंगा।'
मैं तुमसे जब जोर देकर कहता कि, उसने चलते समय कहा था कि, ''जब कहीं बात ना बनें तो निःसंकोच चले आना।'' इस पर तुम मुंह सिकोड़ कर, 'हूंअअ' कह कर रह जाती।
मगर अपना धंधा फिर शुरू करने का मुझ पर जुनून सवार हो चुका था। इसके चलते मैं कहने भर को ही कुछ पैसा खर्च करता। बाकी सब जमा कर देता। कपड़े तक न खरीदता, रमानी बहनें जो ड्रेस देतीं उन्हीं से काम चलाता। तुम तो रमानी बहनों से पहले की ही तरह और कपड़े फिर झटकने लगी थी। फिर भी मैं तुम्हारे मन का कुछ भी लेने में संकोच नहीं करता था, क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि, मेरे कारण तुम अपनी इच्छाओं को मारो।
इस बीच देखते-देखते मैं रमानी बहनों का शैडो, ड्राइवर, रमानी हाउस संभालने वाला आदि सब-कुछ बन गया। तुमको भी संभालने वाला, क्योंकि तब-तक तुम भी बड़ी तेज़ी से हर काम के लिए मुझ पर ही निर्भर होती चली जा रही थी। लेकिन इन सब के बीच हम-दोनों इस बात से अनजान थे कि, रमानी बहनें कई नए गुल खिलाने की तैयारी में लगी हैं।
उनकी नई फैक्ट्री सहित, बाकी फैक्ट्रियां भी धुंआधार चल निकलीं थीं। भाई ने भी अमेरिका से आना-जाना शुरू कर दिया था। उसी के जरिए माल एक्सपोर्ट भी होने लगा था। इसी के साथ हम-दोनों के काम का बोझ भी बढ़ता जा रहा था। काम के हिसाब से तो नहीं, हां फिर भी, हमारी पगार भी बढ़ रही थी। इतना ही नहीं हम-दोनों मिलकर, किसी न किसी बहाने दोनों से, हर महीने इतना पैसा झटक लेते थे, जो हमारे पगार के बराबर होता था। शुरू में हम डरते थे, लेकिन बाद में रमानी बहनों द्वारा मिले धोखे का बदला लेने के लिए यही करते रहे।
जब भी हम पैसा झटक पाते, तो हमें ऐसा संतोष होता, जैसे हमने रमानी बहनों से अपना कुछ पैसा वापस ले लिया। यह और पगार को मिलाकर जल्दी ही हम-दोनों ने इतना पैसा इकट्ठा कर लिया, जितने की चोट हमें इन बहनों ने दी थी। जिस रोज हम-दोनों ने जोड़-जाड़ कर यह जाना था, उस दिन खुशी के मारे हम-दोनों एकदम पागल हुए जा रहे थे। हम ऐसा महसूस कर रहे थे, जैसे कि हमने अपने काम-धंधे से अपना पहला बहुत बड़ा मुनाफा कमा लिया है।
मैंने तभी गणपति बप्पा सिद्धि विनायक को मन ही मन प्रणाम किया और यह प्रार्थना की कि, हे भगवान! हमें ऐसा मौका दें, कि हम तुम्हारे चरणों में आकर प्रसाद चढ़ा सकें। मैंने यह बात तुमसे कही, तो तुम खुश होकर बोली, 'सच रे तू सही कह रहा है। हमें गणपति बप्पा के पास चलना चाहिए। उन्होंने हमें हमारा पैसा वापस दिया। हमारी हालत कितनी अच्छी हो गई है। ये हीरो-सीरो भी, उनकी कितनी पूजा करते हैं। उनकी मूर्ति घर में स्थापित करते हैं। ये रमानी बहनें तो आए दिन वहां जाती हैं। जब-तब देवी मुम्बा आई के मंदिर भी जाती रहती हैं। देख ना, कैसे दिन-दूना, रात-चौगुना बढ़ी जा रही हैं।'
जब तुम बड़ी खुशी-खुशी अपनी बात कह रही थी, तभी मेरे दिमाग में एक डर भी पैदा हुआ जा रहा था, तुम्हारे चुप होते ही मैंने कहा, 'लेकिन सैमी मेरे मन में वहां जाने को लेकर एक डर, एक संकोच भी पैदा हो रहा है।'
यह सुनते ही तुम आश्चर्य से बोली, 'डर! गणपति बप्पा, देवी मुम्बा आई के मंदिर जाने में कैसा डर, कैसा संकोच, तुम्हें क्या हो गया है ?'
'सैमी, मन में डर यह है कि, हम जिस बात की खुशी पर भगवान के पास जाना चाह रहे हैं कि, हमने अपना ठगा गया पैसा वापस पा लिया है, वह तो हम-दोनों ने भी एक तरह से ठगे ही हैं। ज़्यादातर झूठ बोल कर ही लिए गए हैं। यह गलत है, और भगवान तो गलत काम के लिए सजा ही देते हैं। गलत करने वाले को कभी बर्दाश्त नहीं करते। कहीं वह हम-दोनों को भी, हमारे पाप के लिए सजा ना दे दें । यही डर है मन में।'