भाग -40
'वाह कितना बढ़िया लेक्चर दिया है। मैं तो सोच रहा था कि, अभी पूरी तरह होश में ही नहीं हो, बात क्या बताओगी। मगर तुम्हारी बातों से तो लगता ही नहीं कि तुम शराब, ड्रग्स की खुमारी में हो।'
'क्या बताऊँ रे, मर्दों ने इतने जख्म दिए हैं, कि उनके सामने दुगुने होशोहवाश में रहने की आदत पड़ गई है।'
'पति के अलावा और किन मर्दों ने तुझे जख्म दिए, बात चली है तो लगे हाथ उन सबके भी नाम बता दे, क्यों अपने कपार (सिर) पर बोझा लादे हुए है।'
मेरी बात पर तुम कुछ बताने के बजाये उस हालत में भी हँसते-हँसते दोहरी हो गई तो मैंने कहा, 'अरे पागल हो गई है क्या? मैंने कोई चुटकुला सुनाया है क्या, जो हंस रही है।'
'नहीं, तू कभी-कभी अपने बड़वापुर की बोली बोल देता है तो मज़ा आ जाता है, और ये भी पता चल जाता है कि तू सच में गुस्से में है। क्योंकि गुस्सा होने पर ही तू बड़वापुर की बोली बोलता है।'
'अब जब जान गई है कि मैं सच में गुस्से हूँ, तो चल अब जल्दी-जल्दी उन सब मर्दों के बारे में बता जिन्होंने तुझे जख्म दिए।'
'ज़िद कर रहा है तो बताये दे रही हूँ, हालांकि अब इन बातों का कोई मतलब नहीं है। शौहर के बाद दूसरा जख्म खानदान ही के एक आदमी ने दिया। रिश्ते में चच्चा लगता था, अपने व्यवहार, काम दिलाने के झांसे से उसने मेरा विश्वाश जीत लिया। काम के लिए उसके साथ यहाँ आ गई। यहाँ उसने पहली ही रात मेरे यकीन का खून करते हुए मुझे रात-भर लूटा।और फिर अगले दो हफ्ते तक वो न दिन देखे, न रात, जब मन हो तब मुझे लूटता, कुचलता रहा और मैं अपनी मजबूर रूह को जार-जार आंसू बहाते देखती रही।
एक दिन मुझे भनक लगी कि, वह किसी दल्ले को मुझे बेचने की बात पक्की कर चुका है। यह जानते ही मेरी रूह काँप उठी। उसी रात मुझे किसी तरह मौक़ा मिल गया, और मैं उस जानवर के चंगुल से निकल भागी। फिर एक के बाद एक पांच घरों में काम किया। इनमें से एक कमीना निकला, उसने भी धोखे से मुझे चार-पांच दिन रौंदा।
पहले सोचा पुलिस में रिपोर्ट लिखाऊं, फिर रुक गई कि, इस अनजान शहर में मेरी कौन सुनेगा, पैसे के दम पर मुझे ही फंसवा देगा। इसके बाद भटकते-भटकते यहाँ रमानी साहब के पास पहुँच गई, वो बेचारे मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे। कुछ सालों के बाद एक दिन मुझ से बोले, ''समीना अभी तुम्हारी कोई ज्यादा उम्र नहीं हुई है, कब-तक ऐसे अकेली रहोगी, अगर तुम तैयार हो तो किसी भले आदमी के साथ तुम्हारा निकाह करवा दूँ ।''
लेकिन मैं निकाह के नाम से ही सिहर उठती हूँ, तो मना कर दिया। कहा, ''बाबू जी, बस अपना प्यार मुझ पर हमेशा बनाये रखिये, मुझे निकाह के नाम से ही नफरत हो गई है।'' मेरे मन की बात जानने के बाद उन्होंने फिर कभी मुझसे निकाह की बात नहीं की। जब-तक रहे तब-तक एक बाप ही की तरह मानते रहे। लोगों से मिले सारे जख्म ऐसे हैं, जिन्होंने मुझे अब इतना मजबूत बना दिया है कि, अब कोई मुझे जख्म देना चाहेगा तो मैं उसका पूरा जीवन जख्मों से भर दूँगी, समझे। मैंने सब बता दिया, अब तो खुश हो?'
समीना उस समय तुम्हारी बातों ने मेरा गुस्सा बहुत कम कर दिया था, लेकिन खत्म नहीं। साथ ही इन बातों ने बुढ़ापे, तेज़ी से बढ़ती उम्र को लेकर मुझे डरा दिया था। मगर यह सोचते ही मेरा पारा चढ़ जाता कि, तुम रात-भर किसी दूसरे मर्द के साथ सोई। जब मैं ज़्यादा बड़बड़ाया, गुस्सा हुआ तो तुम भी गुस्सा हो गई।
बड़ी दबंगई से चार बातें सुनाते हुए बेलौस बोली, 'सुन, तू तो ऐसे धौंस जमा रहा है, जैसे कि मैं तेरी ब्याहता बीवी हूं, और मुझे दूसरे मर्द की छाया भी नहीं देखनी चाहिए। अरे जैसे तू मुझे चाहता है, वैसे ही मैं तुझे। दोनों मिलकर कारोबार के लिए आगे बढ़ना चाहते हैं। उसी के लिए सारी कोशिश कर रहे हैं। उसी के लिए तू उस औरत के पास गया, तो मैं उस मर्द के पास।
उस औरत के पास जाकर जब तू गलत नहीं है, तू खराब नहीं हुआ, तो मैं उस मर्द के पास जाकर कैसे गलत हो गई? कहाँ से खराब हो गई? मैं तो तेरे पर गुस्सा नहीं हो रही। मुझ पर तो कोई फ़र्क नहीं पड़ गया। तुझे क्यों इतना फ़र्क पड़ गया। अगर फ़र्क पड़ गया है तो सुन, और दो-चार साल काम करने की उम्र निकल गई, तो कुछ भी देखने, फ़र्क करने के लायक ही नहीं रह जाओगे।
बुरा मत मानना, तब सिर्फ़ माथे पर हाथ रखकर, पछताने लायक ही रह जाओगे। इसके बाद जब और वक्त बीत जाएगा तब, तब के लिए कहूँगी कि एड़िया ही रगड़ोगे। पछताने लायक भी नहीं बचोगे। तब मेरी यही बातें याद कर-कर के आंसू बहाओगे। मगर नहीं, तब तो आंखों में आंसू भी नहीं बचेंगे। रही बात मेरी, तो मैं हार मानने वाली नहीं हूं।
तू नहीं, तो ना सही, मैं अकेले ही आगे बढूँगी, क्योंकि मुझे ये गरीबी मंजूर नहीं। एड़िया रगड़-रगड़ कर बुढ़ापा काटने की सोच कर ही मुझे नफरत होती है। तुझे मेरे साथ चलना है तो चल, नहीं चलना है तो न चल। कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर जो करना है वह मुझे अभी का अभी बता दे, इसी समय। मैं उसी हिसाब से अपना काम आगे बढाऊँ।'
तुम अपनी बात पूरी करते-करते बहुत ज्यादा गुस्से में आ गई थी। आंखों से आंसू भी निकल रहे थे। पता नहीं गुस्से के कारण या कि, यह सोचकर कि मैं तुमसे अलग हो जाऊँगा। तुम्हारी सूजी-सूजी आंखों से मोटे-मोटे गिरते आंसू देखकर मुझे तुम पर दया आ गई। साथ ही यह भी सोचा कि तुम सच कह रही हो। कड़वा सच। चाहे बुढ़ापे वाली बात हो, या ब्याहता बीवी की। या यह कि हम-दोनों ने एक ही काम किया, एक ही उद्देश्य के लिए किया, तो फिर एक गलत और दूसरा सही कैसे होगा? मैं यही सब सोचता तुम्हें देखता रहा, क्या कहूं कुछ समझ नहीं पा रहा था, तो तुम अपना धैर्य खो बैठी।
मेरे हाथ को पकड़ कर, झिंझोड़ती हुई बोली, 'मुझे अभी बताओ, समझे। मेरे पास तुम्हारी तरह टाइम नहीं है। बताओ.....
तुम मुझे बार-बार झिंझोड़ने लगी तो मैंने तुम्हें बांहों में भर लिया। मगर बोला कुछ भी नहीं। तो तुम बांहों से छूटने की हल्की-फुल्की कोशिश करती हुई बोली, 'मुझे तुम्हारा जवाब सुनना है, मुझे साफ-साफ बताओ।'
तुम्हारी जिद पर मैंने तुम्हें छोड़ दिया, और तुम्हारे चेहरे को दोनों हाथों से पकड़ कर एकदम अपने चेहरे के सामने कर लिया, तुम्हारी आंखों में झांकते हुए कहा, 'मैं तेरे साथ-साथ ही चलूंगा। जो तुझे करना है, वही मुझे भी करना है। काहे को परेशान होती है। चल, चल उठ।'
मेरे इतना कहते ही तुमने दोनों हाथों से आंखें पोंछते हुए पूछा, 'कहां?'
'मेरे कमरे में, और कहां?'
इतना कहते हुए मैं तुम्हारा हाथ पकड़े-पकड़े उठा और अपने कमरे में ले आया। तभी तुम एकदम रुकती हुई बोली, 'सुनो, मैं नहा कर आती हूं। एक तो बदन बहुत टूट रहा है, दूसरे उस हरामी जानवर ने कुत्ते की तरह रात-भर मुझे रगड़ा, नोचा-खसोटा है।'
'ठीक है जा। मुंह में ढेर सा मंजन भी भर कर लेना। नशे में उसे खूब नोचा-खसोटा तो तूने भी होगा ना।'
तुम्हारी बात सुनते ही मुझे लगा था कि जैसे तुम्हारे बदन से उस हरामी आदमी की ऐसी घिनौनीं बदबू आ रही है, कि नाक ही फट जाएगी। तभी तुमने पलटवार सा करते हुए कहा, 'सुन, तू भी नहा ले। तुम-दोनों ने भी तो चमकाया होगा एक-दूसरे को।'
तुम्हारी इस औचक बात से मैं झटका खा ठहर सा गया। आखिर मैंने कहा, 'तू जा, मैं पहले ही नहा चुका हूं।'
तभी तुम्हारे चेहरे पर मुझे कुछ शोख भाव सा दिखा, उस शोख भाव के साथ ही तुम बोली, 'अच्छा, तो चल, चल मेरे साथ फिर से नहा। हम-दोनों ने उन सबको खुश किया है। चल, अब खुद भी खुश हो लेते हैं।'
तुम्हारी बातों का मतलब मैं समझ गया था। मैं कुछ बोल पाता, कि तभी तुम मुझे खींचती हुई रमानी बहनों के बड़े से, बहुत से ताम-झाम वाले बाथरूम की ओर लेकर चल दी। उस ताम-झाम को दोनों बहने जकूज़ी बोलती थीं। मैंने मना किया कि दोनों बहनें नाराज़ हो जाएंगी, तो तुम इठलाती हुई बोली, 'दोनों बेसुध पड़ी होंगी। काहे को डरता है।'
उस अय्याशी भरी रात के बाद हम-दोनों ने उस ख़ास वीआईपी बाथरूम में ख़ास साबुन, शैम्पू से खूब नहाया, और फिर दो-दो गिलास संतरे का जूस पीकर रात-भर एक दूसरे की बाँहों में समाये, आराम से सोये।