Vah ab bhi vahi hai - 39 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 39

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वह अब भी वहीं है - 39

भाग -39

गुस्से में तुमको झिड़क कर मैं चला गया। उस समय मेरे दिमाग में यह बात भी आई कि, जो भी हो तुम छब्बी नहीं बन सकती। सारे मेहमान अगले दिन सुबह ही चले गए। मैं भी सुबह ही दो घंटे काम करने के बाद अपने कमरे में आकर लेट गया। मैं अपने को बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। वह महिला एक बड़ी अधिकारी, और उससे भी बड़ी अय्याश औरत थी, उसे मेरा साथ पसंद आया था, मैं इतना ही जान सका था।

रमानी बहनें अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल हुई थीं। अपनी सफलता के लिए उन्होंने शराब-शबाब, ड्रग्स, छल-कपट सब प्रयोग किया था। सारे मेहमान किसी न किसी बेहद उत्तेजक ड्रग्स के प्रभाव में थे। खुद दोनों बहनें भी, लेकिन बड़ी चालाकी से उन्होंने खुद कम डोज ली थी। घर के नौकरों का सही परिचय छिपाया था। मैं और तुम मेहमानों के लिए रमानी बहनों के ख़ास सहयोगी थे।

दोपहर करीब दो बजे बजे मैंने खाना खाना चाहा तो खा नहीं पाया। जो ड्रग्स उस महिला ने मुझे सिगरेट में पिलाई थी, उसके चलते मुझे प्यास खूब लग रही थी। लेकिन जब पानी पीना शुरू करूं, तो पी नहीं पाता। भयंकर गर्मीं लग रही थी। सुबह से चार बार नहा चुका था। नहाने के बाद बड़ी राहत मिलती थी।

उस ड्रग्स से अगले पूरे दिन जहां मेरी हालत पस्त रही, वहीं वह महिला जब उठी तो उसे देख कर नहीं लग रहा था कि, उसकी हालत मेरी तुलना में आधी भी खराब है। मैंने उसके पहले तमाम भूखी-बेशर्म औरतें देखी थीं, लेकिन वह सब उसके सामने कमतर थीं। समीना उसने पूरी बेहयाई से ऐसे-ऐसे काम किये, करवाए कि सोच कर आज भी शर्मिंदगी से भर उठता हूँ।

मुझे ड्रग्स न दी गई होती, तो मैं शराब के नशे में भी वह सब नहीं कर सकता था। सुबह जब उठा था तो वह पूरी निर्लज्जता के साथ बेड पर चारों खाने चित्त, बेसुध पड़ी थी। उसे उस हालत में देख कर मन में आया कि, सर के ऊपर तक उठा कर पटक दूँ इसी बेड पर, जिस पर इसने मेरे साथ अय्याशी की सारी सीमाएं पागलपन की हद तक पार कीं।

वह टैटू की भी बड़ी दीवानी थी। शरीर के कई ख़ास-ख़ास हिस्सों पर उर्दू में न जाने क्या-क्या लिखवा रखा था। उसे देख कर मन ही मन कहा, निर्लज जब टैटू बनवाने के लिए न जाने किस-किस के सामने पूरा बदन उघाड़ चुकी है, तो यहाँ जो कुछ किया वह इसके लिए कौन सी बड़ी बात है।

मैंने करीब तीन बजे जब चौथी बार थोड़ी अजवाइन खाकर, किसी तरह पानी पिया तब जाकर मुझे कुछ राहत मिली। जब राहत मिली तो तुमको ढूंढ़ा कि बात करूँ, कि जब मैं उस

सांवली हिडिम्बा के पास चला गया तो आखिर रात भर कहाँ-कहाँ, क्या-क्या हुआ ? लेकिन तभी सोचा कि, अभी तक तू नज़र नहीं आई, कहीं रात-भर उन्हीं स्थितियों से तू भी तो नहीं गुजरी जिससे मैं गुजरा, और अब ड्रग्स वगैरह के चलते किसी कोने में पस्त पड़ी है।

जब ढूंढ़ा तो तुम किचेन से लगे स्टोर रूम में जमीन पर बेसुध सो रही थी। उसी ख़ास साड़ी में। तुम्हारे सारे कपड़े ऐसे अस्त-व्यस्त हो रहे थे, जैसे तुमने किसी तरह उन्हें खींच-तान कर अपने तन से लपेट लिया हो। तुमने अपनी समझ से सोने के लिए जमीन पर चादर बिछाई थी, लेकिन तुम चादर से अलग जमीन पर थी ।

मैं भी उस औरत के साथ बहुत ऊट-पटांग हालत में पड़ा था। तुम्हारे साथ क्या-क्या हुआ? रात-भर तुमने क्या-क्या किया? तुम्हारी स्थिति मुझे साफ़-साफ़ बता रही थी। मेरे मन में आया कि तुम बहुत थकी होगी, ना उठाऊँ तुम्हें। मगर रात-भर का काला इतिहास जानने की व्याकुलता में मैंने तुम्हें कई आवाज़ें दीं, लेकिन उठने को कौन कहे, तुम हिली तक नहीं। मुझे कुछ शक हुआ तो तुम्हारे चेहरे के पास बैठ गया। तुम्हारे सिर को हिला-हिला कर दो-तीन बार बुलाया तो तुम बड़ी मुश्किल से उंहू..अ..., करके रह गयी।

मैंने मुंह सूंघा तो मेरा शक सही निकला। उस समय भी शराब और किसी ड्रग्स की तीखी बद्बू आ रही थी। मुझे बड़ी गुस्सा आई। मन में ही कहा, ये तो रमानी बहनों की नानी है। तुम्हारी हालत देखकर मैंने तुम्हारे कपड़े ठीक किये और चला आया अपने कमरे में।

उस दिन रमानी बहनें शाम को कहीं गईं और देर रात को लौंटी। मैं सारे समय अपने कमरे में पड़ा रहा। बार-बार तुमको देख कर आता कि, तुम्हारा नशा उतरे तो तुमसे बात करूं। लेकिन जब तुम रात ग्यारह बजे तक भी नहीं आई, तो मुझसे नहीं रहा गया।

खीझ कर फिर पहुंचा तो तुम वहाँ के बजाय अपने कमरे में मिली। तखत पर सिर दिवार से टिकाए आँखें बंद किए बैठी थी। चेहरे पर अच्छी-खासी सूजन थी। आंखें कुछ ज़्यादा ही सूजी थीं। तुम्हें देखकर गुस्सा आ रही थी। मेरी आहट पाकर तुमने धीरे से आंखें खोलीं, कुछ देर मुझे देखा, फिर हाथ से इशारा कर बगल में बैठने को कहा। तुम बहुत ही ज़्यादा थकी हुई लग रही थी। मैं बैठकर कुछ देर तुम्हारे चेहरे को देखता रहा, तो तुम बहुत मुश्किल से बोली, 'क्या देख रहे हो?'

'कल तूने बहुत ज़्यादा पी थी क्या?'

'चल जाने दे।'

'बता न, ड्रग्स भी ली थी?'

'छोड़ न, रात गई, बात गई। आगे की देखते हैं।'

तुम्हारी जुबान उस समय भी लड़खड़ा रही थी। आंखों, चेहरे पर आ-जा रहे भावों को देख कर मुझे पक्का विश्वाश हो गया था कि, बीती रात तुम्हारे साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिसे तुम छिपा रही हो। मैंने दोनों हाथों से तुम्हारे चेहरे को पकड़ते हुए कहा, 'देख समीना, मेरी तरफ देख, मेरी आंखों में देखकर बता, कल रात क्या-क्या हुआ ? तूने क्या-क्या किया ? बोल रात-भर तूने क्या किया?'

'अरे बोल तो दिया न, काहे को बार-बार वही बात बोले जा रहा है। कहा न वो रात बीत गई, दूसरी रात आ गई। अब आज की बात कर, आगे की बात कर, आगे की पूछ न क्या पूछना है?'

इस बार तुम थोड़ी तेज़ आवाज में, गुस्सा दिखाती हुई बोली थी। इससे मुझे भी गुस्सा आ गया। मैं भी तुम्हारे ही अंदाज में बोला, 'सुन जो पूछ रहा हूं वह बता। रात गई, बात गई कह कर बहुत कुछ छिपा रही है तू, मैं ये नहीं होने दूंगा, समझी। मैं सब जान कर ही तुझे छोड़ूंगा।'

मैं एक हाथ से तुम्हारे जबड़े को पकड़े हुए था। मेरी पकड़ गुस्से में सख्त हो गई थी। इस बार लगा कि तुम मेरे गुस्से से थोड़ा डरी। तुमने मेरी पकड़ से छूटने की कोशिश शुरू कर दी। लेकिन गुस्से में मेरी पकड़ कम नहीं हुई तो तुम घुटी-घुटी सी आवाज में बोली, 'अरे छोड़ ना, तभी तो बोलूंगी।'

'जल्दी बोल.. टालने की या झूठ बोलने की कोशिश ना करना। बता दे रहा हूं।'

'मैं झूठ-झाठ काहे को बोलूंगी। बहुत सच सुनना चाहता है न, तो सुन ले, जो तूने किया, वही सब मैंने भी किया।'

'क्या!'

'चाैंकता काहे को है। अरे जब तेरे को दिमाग से काम लेने को बोल कर वहां भेजा, तो मुझे भी तो दिमाग से काम लेना था। नहीं तो काम बिगड़ जाता, और तब तू कहता कि, मैंने तुझे तो भेज दिया, और खुद..

'चुप्प।'

मैंने गुस्से में एक बार फिर तुम्हारा मुंह कस कर दबा दिया। कुछ देर बाद छोड़ते हुए कहा, ' साली, तुझ में और इन बहनों में कोई अंतर नहीं है। ये भी बद्जात हैं, तू भी....

मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर सका था, कि तुम बीच में ही बोली, 

'हां, मैं भी बद्जात हूं। कुछ देर बद्जात बनकर, अगर मैं गरीबी, गुलामी की ज़िंदगी से निकलकर, तन कर खड़ी हो सकती हूं। ऐशो-आराम की ज़िंदगी जी सकती हूं, तो मुझे कोई हिचक नहीं, कोई ऐतराज नहीं बदजात बनने में। और हां, एक बात साफ-साफ बताऊं कि, मैं यह भी नहीं चाहती कि जब हम-दोनों गुलामी से बाहर आएं, तो तुम ये ताना मारो कि, इसके लिए तुमने कुर्बानी दी। मैंने कुछ किया ही नहीं। इसलिए जब मेरे सामने बात आई, तो मैंने सोचा, चलो जो काम करेंगे, दोनों मिलकर करेंगे। बराबर-बराबर करेंगे, और तब मैंने तुम्हारी तरह हिचकिचाहट नहीं दिखाई, कि मुझे धकेला गया तब गई।'

'तो क्या अपने आप ही जाकर खड़ी हो गई उस कमीने के सामने, कि लो मैं आ गई, जो करना हो करो।'

'खुद क्यों चली जाऊँगी। देख गुस्सा थूक, ठंडे दिमाग से काम कर। तू खुद बता चुका है कि, तू कितने सालों से कहां-कहां से भटकता चला आ रहा है। क्या-क्या किया है। कितने-कितने दिनों तक भूखा रहा है। पीने को पानी तक नहीं मिला। मेरा भी यही हाल रहा है। सोच, सोच जरा। हम-दोनों की कितनी उमर हो गई है। अभी हाथ-पैर चल रहे हैं, तो हाड़-तोड़ मेहनत करके पेट भर लेते हैं। कपड़ा पहन लेते हैं। लेकिन जरा सोच, जब ऐसे घिसते-घिसते इतनी उम्र हो जाएगी कि, हाड़-तोड़ मेहनत करने लायक नहीं रहेंगे, तब क्या करेंगे?

तब फिर हमारे सामने एक ही रास्ता बचेगा कि, या तो हम भूखों एड़िया रगड़-रगड़ कर मर जाएं या फिर हाथ में कटोरा लेकर दर-दर भीख मांगें। सड़क किनारे, कहीं कूड़े-कचरे में चिथड़े लपेटे पड़े रहें, और ऐसे ही भूख-प्यास, कपड़े दवा-दारू के लिए एड़िया रगड़-रगड़ कर उम्र पूरी होने से पहले ही मर जाएं। तन को कफ़न तक नसीब नहीं होगा। दफ़न, फूंकने की बात छोड़, कुत्ते ही नोंच-नाच कर खत्म कर देंगे, अब तो यह भी सोचना गलत है।

क्योंकि लगता है कि जल्दी ही कुत्ते भी ख़त्म हो जाएंगे। नगर-निगम वाले उनकी बधिया कर, नस्ल ही खत्म किये जा रहे हैं। और जरा उस दुर्गति की सोच कि अगर शरीर के अंग बेचने वाले तस्कर उठा ले गए तो शरीर को किस तरह चीर-फाड़ कर एक-एक अंग कहाँ-कहाँ बेच देंगे ये दुनिया कभी नहीं जान पाएगी।

इतने भिखारी अचानक ही गायब हो जाते हैं, तुम्हें क्या लगता है कि उन्हें कोई घर मिल जाता है, ये तस्कर ही उठा ले जाते हैं। अरे सोच ज़रा ठंडे दिमाग से सोच। फिर कुछ बोल, नहीं तो हमारी भी रूहें भटकती रहेंगी, तड़पती रहेंगी यहीं। क्या यही चाहते हो। हमारे आगे-पीछे तो कोई लड़का-बच्चा हैं नहीं, जो हमारी बुढ़ापे में देखभाल करेंगे। तू मेरी छोड़ अपनी सोच, सोच जरा, अगर तेरे पास पैसे होते, मकान होता, तो क्या अब-तक तू शादी नहीं बनाता। बीवी नहीं लाता। बच्चे नहीं पैदा करता। अब-तक तेरे बच्चे बड़े-बड़े नहीं हो गए होते। तू गाड़ी में रोज अपनी बीवी-बच्चों को लेकर घूमने नहीं जा रहा होता। ई सब इसीलिए नहीं हो पाया ना, कि इतने पैसे पास नहीं थे, और अब भी नहीं हैं।

रही बात मेरी, तो मैं तो शौहर के सहारे थी। उसे ही अपनी दुनिया, अपना सब-कुछ मानती थी। मुझे क्या मालूम था कि, जिसे अपनी दुनिया, अपना रहनुमा मानकर चल रही हूं, निश्चिंत हूं, एक दिन वही दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकेगा। उसने जब मुझे गोस्त की हड्डी की तरह चूस कर फेंक दिया, तब मेरी आंखें खुलीं। ठोकर खा-खाकर मैंने सबक सीख लिया है। इसलिए पैसा इकट्ठा करना शुरू किया।

मगर यह भी जानती हूं कि, इतने से कुछ नहीं होगा। और यह भी सोचती हूँ कि, अगर हमारे शौहर या सारे मर्दों को मनपसंद औरत के साथ सुख से जीने का हक़ है, तो हमें भी हक़ है अपने मनपसंद मर्दों के साथ रहने का। वो जब चाहें, जिस भी औरत से ऐश कर सकते हैं, तो हम भी करेंगे।

कल देखा नहीं मर्दों को, सबकी बीवियां घर पर थीं, लेकिन उनसे झूठ-फरेब बोल कर यहां औरतों को गोस्त लगी हड्डी की तरह ऐसे चूस रहे थे, जैसे जीवन में पहली बार औरत मिली हो। मैं तो उस औरत की तारीफ करूंगी जो तुम्हारे साथ थी। इतने मर्दों के होने के बावजूद उसमें कोई हिचक नहीं थी, बल्कि मर्दों से कहीं चार कदम आगे थी। मैं पक्के तौर पर कहती हूँ कि, मर्दों के असली रूप को देखने के बाद ही उसमें यह हिम्मत आई।

वह अच्छी तरह जानती-समझती होगी कि उसका पति भी ऐसे ही मर्दों की दुनिया से है। मैंने भी बहुत जानी-समझी है यह दुनिया, इसीलिए तुझे पहचानने में देर नहीं लगी। मुझे जब लगा कि, तू सुख लेना ही नहीं, देना भी जानता है, तो मैंने तुझे अपना लिया। तुझे इसलिए भी अपना माना कि, मुझे यह भी यकीन है कि, तेरे साथ कोई कारोबार आराम से बढ़ा लूंगी। बुढ़ापा सड़क किनारे कीड़े-मकोड़े सा नहीं, अपने बढ़िया से घर में तेरे साथ बिताऊँगी। दोनों एक-दूसरे का सहारा बनेंगे।'