Vah ab bhi vahi hai - 35 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 35

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वह अब भी वहीं है - 35

भाग -35

मगर तुम वो कहाँ थी, जो पीछा छोड़ देतीं हैं। मैं बाहर जाने लगा तो तुम बोली, 'अरे मैंने तो मजाक किया था। इतना काहे को लाल-पीला हो रहा है। फिर यहां साथ काम कर रहे हैं, तो सामने तो आना ही पड़ेगा। मुंह फेर कर एक जगह कैसे रहा जा सकता है। ऐसे तो काम नहीं हो पाएगा, और तब ये रमानी बहनें ना, जैसे इन्होंने बाकियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, वैसे ही हम दोनों को भी दिखा देंगी। इसलिए ये बात अच्छी तरह समझ ले कि सामने आना है, बार-बार आना है।'

लेकिन मैं इतना गुस्से में था कि तुम्हारी किसी भी बात का कोई जवाब नहीं दिया। अपने काम में लग गया। कुछ पैकेट कोरियर करने थे, वही तैयार करने लगा। उस दिन तुमने रात तक कई बार बात करने की कोशिश की, लेकिन मैं नहीं बोला। मुझे तुम्हारी बातें सूई की तरह चुभ रही थीं।

बड़ी देर रात को जब मैं सर्वेंट रूम में आकर, थका-हारा आराम कर रहा था, तो तुम आ गई। तुम्हें देखकर मुझे फिर गुस्सा आ गया। लेकिन तुम खड़ी मुस्कुराती रही। मैं जमीन ही पर अपना बिस्तर लगाए था, क्योंकि जो बेड मिला था उस पर मेरे पैर बाहर निकले रहते थे, जिससे मैं सो नहीं पाता था। तुम खड़ी मुस्कुरा जरूर रही थी, लेकिन चेहरे पर दिन-भर की जी-तोड़ मेहनत की थकान भी साफ दिख रही थी।

जब मैं बड़ी देर तक कुछ नहीं बोला, तो तुम बड़े अपनत्व से बोली, 'इतना गुस्सा है, इतनी देर से खड़ी हूं। बैठने को भी नहीं बोल रहा है। काम कर-कर पैर एकदम फटे जा रहे हैं। मैंने तो खाली मजाक किया था। कुछ समझा था तो बोल दिया था। अब गुस्सा थूक भी दे न।'

उस समय तुम्हारी आवाज़ में अपनत्व की वह धार थी कि, मैं खुद को रोक नहीं सका। मगर फिर भी कुछ बोला नहीं। बस उठ कर बैठ गया। तुम्हारे बैठने के लिए आधा बिस्तर खाली कर दिया। तब तुम आकर बगल में बैठ गई। दीवार के सहारे सिर टिका कर। रमानी हाउस में पहुँचने के बाद यह पहला अवसर था काम-धाम के बाद, जब तुम सोने के समय बेधड़क मेरे कमरे में आकर बैठी थी।

मैंने सोचा, कहीं रमानी बहनों ने देख लिया तो पता नहीं क्या सोचेंगी। कहीं मुझे लफड़ेबाज समझ कर बाहर न भगा दें। मन में थोड़ा भय उत्पन्न हुआ तो मैंने कहा, 'इतनी रात में तुमको मेरे कमरे में नहीं आना चाहिए, ये बहनें देख लेगीं तो तुझे औरत होने के नाते भले ही कुछ ना कहें, लेकिन मुझे निकाल बाहर कर देंगी।'

'चिंता मत कर, इन दोनों की रग-रग से वाकिफ हूँ। इनको हमारे-तुम्हारे जैसे काम करने वाले ढूंढ़े नहीं मिलेंगे, और ये पिंजरे जैसे कमरे देकर हम-पर कोई अहसान नहीं किया है। काम के साथ-साथ हाउस की रखवाली करने वाला भी तो कोई चाहिए ना। सिक्योरिटी गार्ड रखेंगी तो उसका खर्चा देना पड़ेगा।'

'चलो ठीक है। मगर इस समय क्यों आई हो? आधी रात हो रही है। मुझे नींद आ रही है।'

इस पर तुमने बहुत इठलाते हुए अंगड़ाई ली, और बड़ी मादक आवाज़ में बोली, 'थकान उतारने आई हूं।'

तुम्हारी इस बात, अंदाज़ से मैं थोड़ा असमंजस में आ गया। मैंने प्रश्नभरी आँखों से तुम्हें देखते हुए कहा, 'तो अपने कमरे में उतारो, मेरे कमरे में क्यों आई हो?'

'अपने कमरे में केवल अपनी थकान उतार पाती। तेरा गुस्सा नहीं। इसीलिए तेरे कमरे में आ गई। इतना टाइम हो गया। अब गुस्सा थूक दे ना। क्या रखा है इस गुस्से में?'

मैं चुप रहा तो तुम मेरे और करीब आकर बोली, 'देखो, मुझे इतना बुरा मत समझो। मैं थोड़ा तीखा जरूर बोलती हूं, लेकिन कसम से, मेरे मन में कोई बुरा खयाल नहीं होता। पता नहीं क्यों, उस समय क्या हो गया था मुझे कि कह दिया। जब कि मेरी-तेरी हालत में फ़र्क ही क्या? क्या है बताओ? इसीलिए कह रही हूँ कि मजाक को मजाक ही रहने दो ना। ऐसे गुस्सा रहोगे तो मैं रात भर सो नहीं पाऊँगी।'

मुझे लगा कि यह कहते हुए तुम काफी गंभीर हो गई हो। उस समय तुम दिन वाली समीना से एकदम अलग नजर आ रही थी। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि, जैसे तुममें मेरी छब्बी उतर आई है। मुझे तुम पर दया आ गई। फिर भी मैं चुप रहा तो तुम बोली, 'इतना ही गुस्सा है, तो ठीक है, चल माफी मांगती हूं तेरे से। अब तो गुस्सा थूक दे।'

अचानक मुझे मजाक सूझा। मैंने सोचा, तुझे थोड़ा परेशान करते हैं। यह सोच कर मैं ना सिर्फ़ चुप रहा, बल्कि मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। इसके बाद तुम चुप बैठी रही। देखती रही मुझे। फिर बिल्कुल थकी-हारी सी उठी, और बहुत ही बोझिल कदमों से बाहर जाने लगी। कनखियों से तुम्हारे चेहरे को देख कर मुझे लगा कि, तुम तो बस रोने ही वाली हो। यह देख कर मैं चुपके से उठा और तुम जैसे ही दरवाजे के पास पहुंची, वैसे ही तेज़ी से तुम्हें गोद में उठा लिया। जब-तक तुम कुछ समझो तब-तक मैंने तुम्हें सिर से ऊपर तान दिया। तुम एकदम सकपका उठी। कुछ पल तो समझ ही नहीं पाई कि क्या हुआ। जब मैंने आवाज़ में मसखरी, शरारत घोलते हुए कहा, 'देर से ही सही, तेरे को तान दिया ऊपर। अब बोल कहां उतारूं?'

मगर तुम भी कम नहीं थी। तुरंत नहले पर दहला दिया। बोली, 'जब-तक न कहूं, तब-तक ताने रहो, देखती हूं विलेन-राजा में कितना दम है।'

अब मैं मुसीबत में था। तुम्हारा अच्छा-खासा पैंसठ-सत्तर का वजन ज्यादा देर संभालना मेरे लिए मुश्किल था। मगर तुम मेरी उम्मीद से ज़्यादा समझदार निकली, तुरंत ही बोली, 'अरे जल्दी उतार, मेरे को चक्कर आ रहा है।' मैंने तुरंत उतार दिया। कुछ सेकेंड और ना कहती तो भी मैं उतार देता, क्योंकि मैं संभाल नहीं पा रहा था। तुम मुझे मजाक में भी शर्मसार होते नहीं देखना चाहती थी, इसलिए तुरंत नीचे उतारने को कहा।

हम-दोनों आमने-सामने एकदम सटे हुए खड़े थे। मैंने तुम्हें दोनों हाथों से भींच कर अपने से चिपका रखा था। ठीक वैसे ही तुमने मुझे पकड़ा हुआ था। हम-दोनों बहुत खुश थे। लग ही नहीं रहा था कि हम दिन-भर के थके-मांदे हैं। तुम्हारा चेहरा मेरे सीने से लगा हुआ था। तुम चेहरा ऊपर किये बड़े प्यार से मुझे देख रही थी। तुम्हारी आँखों से प्यार बरस रहा था। तुम्हारे होंठ मुझे ऐसे फड़कते हुए से लगे, कि अगर तुम्हारा चेहरा मेरे चेहरे की ऊंचाई तक होता तो तुम्हारे होंठ, मेरे होंठों पर आँखों की ही तरह प्यार बरसा रहे होते।

अपने लिए तुममें उमड़ते प्यार को देख कर मैंने तुम्हें गोद में उठा लिया, और फिर बड़ी देर तक हम-दोनों का प्यार एक-दूसरे पर बरसता रहा। यह जी भर, बरस कर जब थमा, तब तुम बोली, 'देखो रमानी परिवार मुझे बराबर आगे बढ़ने की सीख देता है। मैं ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं हूं। लेकिन देखकर सीखना खूब जानती हूं। इसीलिए मैंने तुम्हें बताया था कि यह परिवार भी कभी हमारी-तुम्हारी तरह ही पैदल था। इसने मौके़ का फायदा उठाया, मेहनत की, आज अरबपति है।'

'तो क्या हम-दोनों मेहनत नहीं करते, और मौका कहां से ढूंढें ?'

'देख विलेन-किंग मैं यही तो कह रही हूं कि, मेहनत तो सबसे ज़्यादा किसान-मजदूर करते हैं, मगर भूख से मरते भी यही हैं। कोई अरबपति कभी भूख से मरा है क्या? वो ज़्यादा खा-खाकर मरते हैं।'

'साफ-साफ बताओ ना, क्या कहना चाह रही हो। मैं सीधे तरीके से कही बात ज़्यादा अच्छी तरीके से समझता हूं। घुमा-फिरा कर कही गई बात मेरी समझ में नहीं आती है।'

मैं तुम्हारे चेहरे को पढ़ना, समझना चाह रहा था। कोशिश की तो अचानक ही तुम मुझे बड़ी रहस्यमयी सी दिखने लगी। हम-दोनों ही एक दूसरे को चुप देख रहे थे, कुछ देर देखने के बाद तुम बोली, 'देखो, मैं तुम्हारी मेहनत, ईमानदारी देखकर कई दिन से कहना चाह रही थी, लेकिन तुम्हारा विलेन-किंग बनने का जो सपना है ना, उसके चलते डर रही थी कि, कहीं तुम बुरा ना मान जाओ।'

'देखो मुझे नींद आ रही है। जो बताना है, जल्दी-जल्दी बताओ।'

'गुस्सा तो नहीं होगा? '

'नहीं होऊंगा, बोल ना।'

'देखो मैं कह रही हूं कि, सबसे पहले तो विलेन-फिलेन बनने का फितूर मन से निकाल। हक़ीक़त को देख, तू लंबा-चौड़ा है तो क्या? तेरे पीछे कोई बड़ा हाथ नहीं है। तूने कहीं ऐक्टिंग सीखी नहीं। तुझे ऐक्टिंग आती नहीं। फिर तुझे कहां से ऐक्टिंग का मौका मिल जाएगा। लेकिन पैसा रहेगा तो एक दिन खुद अपनी पिक्चर बनाकर अपना सपना पूरा कर लेना।

जैसे ये डेढ़ फुटिया पेपर वालों को पैसा दे-दे कर अपने को किंग लिखवाता है, बादशाह लिखवाता है, वैसे ही तू भी लिखवाना, बल्कि तुझे तो ऐसा करने की जरुरत ही नहीं होगी, तू तो बादशाहों जैसा है ही, पेपर वाले तो तुझे अपने आप ही बादशाहों का बादशाह लिखेंगे।'

समीना तुम्हारी यह बात मुझे बहुत खराब लगी थी, लेकिन अपनी नाराजगी को छिपाते हुए मैंने कहा, 'तुम्हारी बात मेरी एकदम समझ में नहीं आ रही। अरे कहां से मैं इतनी जल्दी ढेरों पैसा कमा लूँगा, कि फिल्म बना कर अपना सपना पूरा करने लगूंगा। यहां खाने-रहने तक का ठिकाना नहीं। बात करोड़ों की पिक्चर बनाने की कर रही हो। तुम्हारी बात सुनकर तो अम्मा की बात याद आ रही है कि, ''घर में नहीं दाना, अम्मा गईं भुनाने।''

'अरे हद कर दी तुमने, मैंने पहले ही कहा कि, रमानी भी पहले हमारी-तुम्हारी ही तरह फुटपथिए ही थे। मगर मौके़ का फायदा उठाया और बढ़ गए आगे। आज अपना जो सपना चाहते हैं, चुटकी बजाते पूरा कर लेते हैं।'

'क्या मौका-मौका लगा रखा है, अरे ऐसा कौन सा मौका था जिसने रमानी को अरबपति बना दिया और हमारे पास ऐसा कौन सा मौका है, जो हमें अरबपति बना देगा ? अकारण ही नींद बर्बाद कर रही हो अपनी भी, हमारी भी। जो बताना है वो तुरंत सही-सही बताओ। नहीं मुझे सोने दो। समझी।'

'तेरी यही तो मुश्किल है, कि, तेरे में सब्र नहीं है। सुन जल्दी-जल्दी, रमानी जिस सेठ के यहां था, वहीं उसने किसी तरह उनका विश्वास जीता। फिर उन्हीं का....

'ये सब छोड़, खाली ये बता कि, मेरे लिए कौन सा मौका है, जिसे मैं देख नहीं पा रहा और तू देख रही है। मुझे सीधे-सीधे वो बता बस।'

'तो सुन मेरे दिमाग में कल एक बात आई है। अकेले मैं कुछ कर नहीं सकती। मुझे लगा कि तू मिल जाए, तो हम-दोनों भी फुटपथिए से अरबपति बन जाएंगे।'

'ओफ्फो... अरे आगे बढ़, करना क्या है, वह बता जल्दी। एक ही बात बार-बार कहे जा रही है।'

मैंने बहुत खीझ कर कहा, तो तुम सीधे मुद्दे पर आकर बोली, ‘सुनो आज ही दोनों बहनें एक और फैक्ट्री की बात कर रही थीं। जिसमें उन्हें बहुत ढेर सा पुराना प्लास्टिक हर हफ्ते चाहिए। वो क्या कहते हैं कि, जो, अरे सामान बनाने के लिए बार-बार पुराना माल लेते हैं। फिर गला के उसी से नया बनाते हैं।'

'हां तो....उसमें हम लोग क्या कर लेंगे?'

'चाहेंगे तो बहुत कुछ कर लेंगे।'

'जैसे?'

'जैसे कि, कैसे भी हम-दोनों एक छोटा डाला कहीं से जुगाड़ लेंगे। फिर तू ये जितने कूड़ा इकट्ठा करने वाले हैं, इनमें से तमाम को जोड़ना। तू गाड़ी लेकर इनके ही ठिकाने पर जाकर खाली प्लास्टिक इकट्ठा कर लिया करेगा। फिर सीधे रमानी फैक्ट्री में बेच देगा। और जब पैसा आने लगेगा तो इस काम को और बढ़ाते ही जाएंगे, और बड़ी गाड़ी खरीद लेंगे।

इन बहनों के हाथ-पांव भी जोड़ने पड़े, तो मैं जोड़कर मना लूंगी कि, हमारा सारा माल वो खरीदें। इससे माल बिकेगा कि नहीं, इसकी चिंता नहीं रहेगी। इन बहनों का जो स्वभाव है न, उसे देखते हुए हमें पूरा विश्वास है कि, हम अपने मकसद में कामयाब होंगे। बस तू मान जा। सारा दारोमदार तेरे ही ऊपर है। तेरी ''हां'' में ही छिपा है सबकुछ।'