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चलें नीड़ की ओर - लघुकथा संकलन

अच्छीं लघुकथायें : कुछ पर काम किया जाना बाकी है
समीक्षक- रामगोपाल भावुक कथाकार
चलें नीड़ की ओर लघुकथा संकलन -
सम्पादक - कान्ता रॉय
सह सम्पादक -चन्द्रेश कुमार छतलानी
मुल्य-565 रु.
प्रकाशक-अपना प्रकाशन, म.न. 21, सी- सेक्टर, सुभाष कॉलोनी
हाई टेंशन लाइन के पास, गोविन्दपुरा, भोपाल,462023
लघुकथा चलें नीड़ की ओर के 108 मनके सामने है।
फ्लेप पर कान्ता रॉय लिखती हैं, लघुकथा जीवन की गाथा नहीं है लघुकथा विसंगतियों को चिन्हितकर उसे अपना दृष्टिकोण स्थापित करने की विधा है। सम्पादक ने 300 पृष्ठों में इन सब को स्थान देकर एक कठिन काम कर दिखाया है। इसी कारण प्रत्येक लघुकथा कार का संक्षिप्त परिचय भी देना सम्भव नहीं हो सका है। मेरा मानना है कि उनका परिचय देते, चाहे एक पंक्ति में ही देते।
सम्पादक कान्ता रॉय जी लिखतीं है एक लघुकथा सुख, दुःख, हर्ष, शोक, हास्य , चिंता, विरोध मनोभावों में से किसी एक की अभिव्यक्त कर अधिक प्रभावी हो सकती है। एक से अधिक मनोभावों वाली लघुकथा उतनी प्रभावशाली नहीं हो सकती।
कान्ता रॉय जी ने इस संकलन में प्रकाशित रचनाओं को इसी द्रष्टिकोण में रखकर सम्पादित किया होगा।
लघुकथा के बारे में मेरा सोच अलग है। जिस तरह गजल में पहली पंक्ति बात कहने के लिये भूमिका का काम करती है। दूसरी पंक्ति में पूरा भाव उतर कर सामने आ जाता हैं। श्रोता के मुँह से अनायास वाह निकल जाती है। बात उसे अन्दर ही अन्दर उद्वेलित करने लगती है, लेकिन उसमें केवल एक मुद्दा ही उठायें तभी यह सम्भव हो पायेगा।
इसी तरह पहले पेरा ग्राफ में बात की भूमिका रहे लेकिन दूसरे पेरा ग्राफ में बात का पूरा तथ्य प्रगट हो जाये। पाठक विचार बदलाव की स्थिति के बारे में सोचने लगे।
अपनी बात कहने के लिये यदि विस्तार अधिक किया तो उस स्थिति में कथा का रूप धारण करने की स्थिति पैदा होने लगती है। लघुकथा के अंत में श्शब्द चातुर्य का इस्तमालकर प्रभावित करता हुआ कोई संवाद लघुकथा को प्राणवान बना देता है। इसमें लेखकीय प्रवेश से बचना चाहिए

लघुकथा में एक कथ्य यानी एक विचार को बुनना होता है।
जिसको पढ़कर पाठक नई दिशा में बदलाव की सोचने लगे।
पुस्तक में सबसे पहली लघुकथा योगराज प्रभाकर गुरु गोविन्द के साथ हैं। गुरू का सच्चा उत्तराधिकारी वह शिष्य ही है जो ईमानदारी से उनकी समीक्षा कर सके।
उनकी जमूरे लघुकथा भी लगभग दो पेज की लघुकथा ही है। इसमें लोग अपने मातहतों को पैसे के लिये जमूरे की तरह नचाना चाहते हैं लेकिन उसका अस्तित्व भी उनसे जूझने के लिये मुठ्ठी भीच लेता है।
अशोक भाटिया जी की लघुकथा ओं कीं पकड़ अच्छी लगी। इस संकलन में उनकी एहसास, दानी और अपना देश तीन लघुकथा ये समाहित हैं।
एहसास में कुत्तों के लिये डले साफे से नायक को उठना पड़ता है। लेकिन प्रदर्शनी खत्म होने पर वे चाय पीने एक खोके पर पहुंचते हैं तो उन्हें देखकर कुछ दूसरे लोग उठ जाते हैं जैसे ये कुतों के लिये उठे थे।
दानी में हम दान उन्हें देना चाहते हैं जो बाद में काम आयें।यही सही दान देना हैं।
अपना देश में एक अनाथलय में पली बच्ची देश का अपने सपनों का चित्र बनाती है जिसके पेट वाले भाग में वह सुकुड़कर सो जाती है।
अशोक जैन की लघुकथा गिरगिट में दहेज प्रथा पर तंज है।
अशोक मनवानी की सांप और इंसान में सांप से इंसान ज्यादा विषौला है।
अर्चना त्रिपाठी की लघुकथा अधिकार में आदमी के शौक पर उसका खुद का अधिकार है।
ओम प्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ की तीर्थ यात्रा में तीर्थ यात्रा से बडा बुजुर्गों की सेवा को माना है।
ऊषा भदौरिया की लघुकथा असहाय में मन्दिर में बैठे देव जब अपने को असहाय महसूस करें, अपने सामने लोगों के गलत आचरण देखते रह जायें लेकिन ऊषा तो उन देव के त्रिशूल से उसे मरवा देतीं हैं। रचना का नाम असहाय निर्थक सिद्ध हो जाता है।
कुँवर प्रेमिल जी को लाठी से बहुत प्रेम नजर आ रहा है। वे इस विषय पर पी. एच.डी. करना चाहते हैं और इस हेतु गाँधी बाबा से लाठी ही भेंट में माँगना नहीं छोड़ते।
कान्ता रॉय जी की लघुकथा प्यार समय के फेर में बदलते दृष्टिकोण का कथ्य है।
बैकग्राउंड लघुकथा तो डॉक्टर से ब्याह करने के बाद उसकी पत्नी उसके ग्रामीण परिवेश की बैकग्राउंड जानकर उसे छोड़कर जाने को तैयार है।
कागज का गांव में कागज में विकसित होते गांव गायब होते जा रहे हैं।
सामान्य आदमी बनकर समाज का हिस्सा बना रह सकते हो लेकिन जैसे ही चरित्र में उग आये टेढ़ेपन से चले तो कूडे करकट का पहाड़ खडा कर लेंगे। अगर तुम उस पर झंडा लेकर चढ़ गये तो लोग उस पर ढ़ेर सारे सवालिया निशान खडे कर देंगे।
उपमा शर्मा की फादर्स डे साढ़े तीन पंक्ति की लघुकथा बहुत ही अच्छी लगी। बधाई।
कुमार गौरव की लघुकथा बेटी सही संदेश देने वाली है । उसे तीसरे पेरा तक ले जाने की क्या जरूरत है। बात तो दो पेरा में ही पूरी हो गई।

कीर्ति गांधी के तीन कंधे संसार के काम बिना एक दूसरे के सहयोग के बिना पूरे नहीं किये जा सकते। एक कंधा पुत्र है तो तीन कंधों की जरूरत पड़ेगी ही।
गणेश जी बागी की लघुकथा विरोध में बिना सोचे समझे इसलिये विरोध करना है क्यों कि वे विरोधी दल के विधायक है।
अब घनश्याम मैथिल‘अमृत अपने- अपने झंड़े लेकर सामने हैं। सभी अपने नेताओं के कहने से अपने- अपने झंड़े पहराने में लगे हैं। इससे बेशुमार रंग -बिरंगे झंड़ों के बीच तिरेगा झंड़े का अस्त्वि कहीं गुम न हो जाये यही चिंता का विषय है।
डॉ. चित्त रंजन मित्तल पुतले का दर्द लेकर सामने हैं। हर दशहरे पर रावण का पुतला जलाया जाता है लेकिन जब किसी बलात्कारी से उसे जलवाया जाता है तो वह पुतला भी इससे बहुत दुःखी हो जाता है।
निर्मला सिंह की नास्तिक लघुकथा पर दृष्टि डालें- इसमें मानवता की सेवा करने वाला नस्तिक मन्दिर, मस्जिद और चर्च के पुजारियों से श्रेष्ठ है।
पवन जैन की लघुकथा कन्यादान में एक छोटी बलिका दान का विरोध करती है- तो क्या दादू, आप मुझे भी दान में दे दोगे? मुझे नहीं बंधना खूटे से।
पदम गोधा की लघुकथा चंदन का टीका में कोई चरित्रहीन व्यक्ति चंदन का टीका लगाने से पवित्र नहीं बन जाता।
पूर्णिमा शर्मा की बीजारोपण में जब उसकें पति रवि उसकी पुस्तक पढ़ने बैठे और बोले कहानी तो गजब की है। वह मुस्कराई और सोचने लगी-‘तुम्हारा ही दिया हुआ तो है यह दशं।
चंद्रा रायता की उद्यान सौन्दर्यीकरण में सौन्दर्यीकरण के नाम पर इकत्रित लोग गंदगी फैला कर चले जाते हैं।
जानकी विष्ट वाही की अतृप्ति में आदमी का यह भाव कभी किसी को संन्तुष्टि नहीं दे पाता।
भूपिन्द्रर कौर की इंसानियत में एक्सी ड़ेन्ट में धायल बच्चे को कोई बचाने नहीं आता जबकि सूअर के बच्चे को बचाने सूअर एवं गाय के बच्चे को बचाने गाय आ जाते है। यानी इंसानियत किनमें शेष है।
मदन लाल श्रीमाली की पुनर्जन्म को अपने आसपास ढूढ़ रहा था। बात पूरी कर दी है अन्तिम पेरा जोड़ने से लघुकथा पहेली सी हो गई।
महिमा वर्मा श्रीवास्तव की मासूम प्रश्न में बेटी के चाह के लिये मनौती मांगना, बेटी को बेटा बेटा कह कर सम्बोधित करना, लेकिन बेटी का यह प्रश्न की आप बेटे को बेटी कह कर क्यों नहीं बुलातीं। एक सोच छोड़कर जाने वाली लघुकथा है।
माला झा की धर्मान्तरण में पत्नी का बुढ़ापे में निर्जला व्रत छुड़ाने के लिये प्रेरित करणा धर्मान्तरण ही है।
मधुदीप गुप्त की लघुकथा तुम इतना चुप क्यों हो दोस्तों में अनेक प्रश्न सामने होने पर भी चुप रहने से क्रोध आना स्वाभाविक है।
मृणाल आशुतोष की लघुकथा परम्परा सुगठित लगी। इसमें दुर्गापूजा और कन्या पूजन की परम्परा तोड़कर गार्ड की बेटी के किडनी स्टोन के लिये उस पैसे को देने का विचार सही परम्परा का निर्माण है।
रवि प्रभाकर की लघुकथा चट्टे-बट्टे अच्छी लगी। मंत्री जी का भाई कभी इस बहाने कभी किसी बहाने मांग पर मांग करता रहता है। मित्रों ने सुझाया क्यों चिंता करते हो तुम जो पुल बना रहे हो उसमें से दो मुटठी सीमेंट और निकाल लेना।
रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु की लघुकथा मुखौटा में नेताजी एक उपेक्षित पड़ा मुखौटा लगाकर चुनाव में उतर जाते हैं और चुनाव जीत भी जाते है लेकिन जब उस मुखौटे को उतार कर देखते हैं तो वह एक डाकू का मुखौटा होता है। वर्तमान राजनीति पर अच्छा व्यग्य है।
राजकुमार द्विवेदी की लघुकथा पढ़े लिखे में पढ़े-लिखे लोग जब बिल्ली के रास्ते काटने जैसे अंध विश्वास में फस जाते है तो यह देखकर एक बुजुर्ग कहता है-ये पढ़े- लिखे लोग भी...!
राज श्री रावत की लघुकथा बड़ा बेटा जब मुख्य मंत्री बनकर उस नगर में तो आता है लेकिन अपने घर नहीं आता जो उसकी मां सोचती है। उसके लिये यह घर छोटा पड़ गया है। सचमुच बेटा बड़ा हो गया है।
मुज्जफर इकबाल सिद्वीकी की ताक-झांक में बस्तु क्रय करते समय एक सेल्स गर्ल पर अधिक ध्यान जाये। यह भी ताक-झांक ही है।
विनय कुमार की लघुकथा गुनाह में अदालत के सामने यह स्वीकार करना कि ऐसे व्यक्ति का कत्ल करना गुनाह है तो मैं भी वो गुनाह बार-बार करुंगी।
लेकिन इसका अंतिम पेरा मेरी समझ में नहीं आया।
कॉपते पत्ते विनीता राहुरिकर की लघुकथा में पति का यह कहना कि मुझे जो चीज पसन्द आती है उसे हासिल करके मानता हूं लेकिन जैसे ही उस चीज से मन भरा तो दूर कर देता हूं। यह सुनकर तो पत्नी कॉपते पत्ते सी थरथराती खड़ी रह गई। लधु कथाकार ने इस पेराग्राफ का निरर्थक विस्तार कर दिया है।
शब्द मसीहा की फास्ट टैªक कोर्ट और श्यामसुन्दर अग्रवाल की भिखारिन संतुलित लघुकथायें हैं।
शशी बंसल की जैसा बीज वैसा फसल,शोभना श्याम की रिस्ता सार्थक लघुकथायें हैं।
संजीव वर्मा ‘सलिल’ की लघुकथायें समाज का प्रायश्चित,श्शुद्ध आचरण और विक्षिप्तता की झलक प्रभावित करने वाली लघुकथायें हैं।
सविता मिश्र की लघुकथायें भरपाई, हवाएं और बड़ा न्यायधीस पठनीय हैं।
इस माला के मनकों में कुछ लघुकथायें लघुकथा की परिभाषा को सार्थक करती दिखीं है।
इनमें कुछ कहने को लघुकथा ये हैं लेकिन उनके फलक पूरे कथात्म हैं।
लेह का हिम एक कथा सी लगी। पहले खबर आना कि पति नहीं रहे। बाद में उनके जिन्दा होने की खबर और उनका घर लौट गाना।
ज्योत्सना कपिल की दंश भी ऐसी ही कथा है जिसमें बेटी और दामाद को झगड़ते हुए देखकर पश्चाताप होता हैं। जातिवाद के घेरे में एक अच्छे लड़के को छोडकर ऐसे शराबी लड़के से व्याह देते हैं।
तेजवीर सिंह की मजदूर दिवस भी कथा की श्रेणाी में आनी चाहिए। जिसका पूरा वृतांत कथात्मक है।
डॉ.मालती बसंत महावर की दिल की आवाज में से पूरी कथा झाक रही है।
मधु जैन की कथा नाजायज अच्छी है। थोड़ा विस्तार होता तो पूरी कहानी होती। सम्भव है इसे लघुकथा का रूप देने के लिए संक्षिप्त कर दिया हो।
वर्षा चौबे की सलवार सूट एवं शिखा तिवारी की चरित्रहीना कथायें बाहर आने को व्याकुल दिख रही है। इस विषय पर ये अच्छी कहानियां हो सकती है।
संतोष श्रीवास्तव के अंगारे, रंगभेद एवं फैसला कथा के रूप में आने को व्याकुल दिखीं।
सुभाष नीरव की पेट की चिंता और रंग परिवर्तन में थोड़ा सा विस्तार और दे देते तो वे कथा के रूप में भी उन्हें प्रकाशित किया जा सकता है।
मैंने यहां आकार और शब्द संख्या के हिसाब से देखना शुरू किया तो राज बोहरे की बिसात सबसे बड़ी लघुकथा दो पेज की है। इसमें मृत्युभोज जैसे संवेदन शील विषय का मुद्दा उठाकर उसकी जमीन हड़पने के लिये नजदीकी लोग बिसात बिछाते दिखाई देते हैं।
मिथलेश कलमकार ने भी बिसात नाम से लघुकथा का सृजन किया है। इसमें बड़े अधिकारी छोटे कर्मचारियों से किस प्रकार उन्हें फसाकर उनसे पैसा ऐठने के लिये किस पकार बिसात विछाते हैं। इस बात का सफलता पूर्वक चित्रण इस कथा में किया गया है।
ऐसी ही दो लघुकथा यें बलराम जी की मसीहा की आंखें में मंच पर माइक छीन कर अपनी बातें कहना है और आदमी में सच्चे आदमी की तलाश है।
ये तीनों ही लघुकथायें कथाओं का प्रतिरूप है। लगता है संकलन में सम्मिलित होने कथाओं को लघुकथा के रूप में तरासा गया है।
ऐसे ही मुकेश साहनी की प्रतिमाएं सुरेश नीरव की पेट की चिंता रंग परिवर्तन सुनील बर्मा की कोई अपना सा ,सुनीता प्रकाश की दुविधा, सुधीर द्विवेदी की जगह कथा सीं लगीं हैं।
कुछ लघुकथा ये पहलियाँ बुझाने से लगीं- कान्ता रॉय जी की तमाशबीन, नरेन्द्र नोहर सिंह धु्रव की मोह माया,चंद्रेश कुमार छतलानी जी की डर, धार्मिक पुस्तक ,माँ पूतना, भागीरथ परिहार की अंधी दौड,ऐसी ही लघुकथायें लगी। लघुकथा कथा साहित्य की ही हिस्सा है। सभी लघुकथा कारों को इस बात का लेखन के समय ध्यान रखना ही चाहिए।
राजेन्द्र गौड़ की लघुकथा धर्म-कर्म अन्त में उपदेशात्मक हो गई।
विरेन्द्रर वीर मेहता की कथा देवी मां में पहला पेरा अनावश्यक है। इस कथा को दो पेराग्राफ मे ही पूरा किया जा सकता था।
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की चीटियाँ सुनीता त्यागी की संकल्प सीमा सिंह की विचार और सत्यजीत रॉय की मानसिकता पहेलियां सी बुझा रही हैं।
शेख शहजाद उस्मानी की मुखाग्नि उलझी सी लघुकथा लगी।
ये कुछ लघुकथायें पहेलिओं सीं लगीं हैं। उन पर काम किया जाये तो वे अच्छीं लघुकथा हो सकती है।
सच कहूं इतने बड़े सागर में डुबकी लगाकर पार करना मुझे बहुत ही कठिन कार्य लगा है। जिसमें सभी के साथ न्यायकर पाना कैसे सम्भव है? लघुकथाकारों की अपनी सीमायें हैं, उसी के अनुसार इनका सृजन हुआ है। ऐसे ही सभी समीक्षकों की भी अपनी- अपनी सीमायें हैं।
मैं बानगी के लिये अपनी एक लघुकथा प्रस्तुत कर रहा हूँ।
बाप- दादा की इज्जत
सुबह जब सुदेश सोकर उठा, जब पत्नी सरला अपनी रसोई के बर्तनों को सम्बोधित करके कह रही थी-‘ अरे! महिनों से खाली पड़े हो। आज तुम्हारे बिकने का नम्बर आ गया है। तुम्हारे धैर्य की दाद देनी पड़ेगी। वे भी क्या करें, मेहनत -मजूरी करने में बाप- दादा की इज्जत जाती है। अब जोर- जोर से मत बजो, नही तो वे कहेंगे सोने नहीं देती।
यह सुनकर सुदेश में चेतना का संचार हुआ। वह उठा और निवृत होकर नगर के चौराहे पर काम की तलाश में मजदूरों की पंक्ति में जाकर खड़ा हो गया।
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