व्यग्यं के सलीब पर टंगे मसीही चेहरे
यशवन्त कोठारी
व्यग्यं के क्षेत्र में हर लेखक, पत्रकार, कवि, कहानीकार अपना भाग्य आजमा रहा है। स्थिति ऐसी हे कि हर कोई व्यग्यं का सलीब लेकर चलने को तैयार हो रहा है। मामला राजधानी का हो या कस्बे का या महानगर का हर कोई व्यग्यं का माल ठेले पर रख कर गली गली निकल पड़ा है। व्यग्यं ले लो की आवाजे आती है और मोहल्ले वाले दरवाजे बन्द कर खिड़कियों से झांकने लग जाते है। लेकिन कुछ लोग अभी भी दुनिया को खिड़की के बजाय छत पर से देखना पसन्द करते है।
जिसे देखो वही व्यग्यं के फटे में अपनी टांग अड़ा रहा है। अपने कमजोर पंजे में व्यग्यं को पकड़कर सड़क पर चलने के बजाय दौड़ रहा है। हर ऐरा गेरा नत्थू खैरा व्यग्यं की तलवार लेकर मैदान-ए-जंग में कूद पड़ रहा है और व्यग्यं की तलवार से पानी को काटने की नाकाम कोशिश कर रहा है। वैसे पानी में रह कर मगर से वैर करना उचित नहीं है, मगर अपनी बात को कहना भी जरुरी है। सलीब को चाक चोबन्द रखने में अपनी ही गर्दन चाक हो जाती है।
कभी साहित्य में सन्नाटे की बड़ी चर्चा थी आजकल व्यग्यं में कोलाहल की चर्चा है। कई समझदार आचार्य जो स्वयं को गणेशजी से कम नहीं समझते अपने अपने चूहो को अक्सर ज्ञान देते रहते है-बकवास बन्द करो। व्यग्यं के क्षेत्र में और ससंद में बड़ा फर्क है। थोड़ी सी धूप और थोड़ी सी रोशनी चाहिये बस। सब ठीक हो जाता है। छुटभैये आचार्य भी पचास साल पुरानी कतरनों के सहारे व्यग्यं में क्षेत्र में डण्ड पैल रहे है। बुरा मानने का चलन नहीं है अरे बुरा मान कर भी क्या कर लोंगे ? समसामयिक व्यवस्था में बने रहने के लिए जरुरी है कि अपने सलीब को धो,पोछ,चमका कर चिकना बना कर गले में टांग लो ताकि दूर से ही दिखाई दे कि देखो वो या वे चले आ रहे है। पुरस्कारों को खरीदने-बेचने का नया चलन चल पड़ा है। वर्तमान व्यग्यं का संकट क्या है ? क्यों है ? आदि यक्ष प्रश्नों का उत्तर देना राप्टीय चरित्र के समूचे संकट को नकारना है। जब राप्ट के चरित्र में ही संकट है तो व्यग्यं के सलीब पर संकट होना आवश्यक है। सभी सलीब व और सलीब पर लटके चेहरे पुराने है अलग अलग समय पर अलग अलग मुखौटे लगा लेते है। और सीमित समझ और सीमित समय के हालात में सीमित चिन्ता कर रहे है। दलित व्यग्यं, स्त्री-व्यग्यं, मध्यम वर्गीय व्यग्यं निम्न वर्गीय व्यग्यं, युवा व्यग्यं, वरिप्ठ-जन व्यग्यं जैसे नये नये मापदण्ड उछलकर सलीब पर लटकने को बेताब है। सच पूछा भैया तो मुझ सा बेईमान कौन है ? कहॉ कहॉं अतिक्रमण नहीं किये। कहां कहां दरखास्त नहीं लगाई। प्रजातन्त्र में प्रश्नों का पिटारा किसी जादूगर की तरह ले चला। लेकिन इस महान देश के खेत खलिहान, सड़क, पनघट, शिक्षा, स्वास्थ्य, नेता, किसी ने भी किसी पर ध्यान नहीं दिया। व्यग्यं अपने हाल में ‘एकलाचालो रे ’ की गति से चलायमान था, है और रहेगा।
अस्तु , ये व्यग्यं लिखने और लिख कर हरिशंकर परसाई या शरद जोशी बनने की महत्वाकांक्षा ही है कि व्यक्ति व्यग्यं लेकर सीधा अखबारों, पत्रिकाओं की ओर भागता नजर आता है। ज्यादा समझदार हो तो देश की राजधानी या राज्यों की राजधानी का टिकट कटा लेता है। ेजमाना कुछ ऐसा आ गया है सर जी कि सीखने के लिए किसी के पास समय नहीं है, कहीं विपय दिखा नहीं की सब के सब पिल पड़ते है और एक ही विपय पर सवा सत्ताईस रचनाएॅं सम्पादक या प्रकाशक की टेबल पर आकर गिर जाती है। बेचारा सम्पादक या प्रकाशक किसी एकाध को छाप-छूप कर अपना कर्तव्य पूरा कर शेप को रद्दी के हवाले कर किसी दूसरे काम में स्वयं को झोंक देता है। हकीकत बात ये है भाई कि जहॉं पर व्यग्यं समाप्त होता है वहीं से व्यग्यंकार शुरु हो जाता है और व्यग्यंकार के शुरु हो जाने मात्र से ही व्यग्यं की यात्रा में मसीही चेहरे उभर कर सामने आ जाते है। कुछ चेहरे किसी पत्रिका के सम्पादक के रुप में सामने आते है और कुछ चेहरे स्वयं के उपर व्यग्यं का सलीब टांग कर सड़क से संसद तक चहल कदमी शुरु कर देते है।
व्यग्यं के नीड़ों में पन्छी चहचहाते रहते है। कुछ चिड़ियाये भी चहकती रहती है। कभी कभी अपने सौभाग्य या दुर्भाग्य पर आंसू बहाने वाले ढूढ़ लिये जाते है। व्यग्यं के दृप्टि कोण से राजधानी हो या कस्बा लेखन की फसले खूब हो रही है और फसलों के बीच बीच में बहुत सारी खरपतवार भी उग ही आती है।
कुछ चेहरे ऐसे भी है जो पदम पुरस्कारों की दौड़ में शामिल है और पार्टी के मुख्यालयों से लगा कर साहित्य अकादमी के कार्यालयों तक दोड़ते रहते है। बीच में गृहमंत्रालय के संयुक्त सचिव-पदमपुरस्कार से मिलना नहीं भूलते। उन्हें याद आते है वे स्वर्णिम दिन जब एक-एक कर के हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्री लालशुक्ल, काका हाथरसी, बरसाने लाल चतुर्वेदी, कन्हैयालाल नन्दन, के.पी. सक्सेना जैसों को पदम पुरस्कार मिले और व्यग्यं के आकाश में आतिश बाजियां छुटी। इधर कुछ समय स ेपदम पुरस्कारों की सूची से व्यग्यं-लेखक, हास्यकार सब गायब हो गये है और राजधानी की सड़कों पर सन्नाटा व्याप रहा है कैसा समय आया है भैय्या सलीब की कीलियां चुभने लगी है। कुछ लोग व्यग्यं के क्षेत्र में जोर आजमाने के बाद अपनी असफलता को हिन्दी में एम.ए. करके छुपाने में व्यस्त हो गये। एम.ए. करने के बाद वे एम. फिल, पी.एच.डि, डी.लिट वगैरह करके व्यग्यं का कल्याण करने का दावा करने में लग गये। जब कल्याण हो गया तो व्यग्यं साहित्य की डाक्टरी के क्लिनिक खोल कर बैठ गये। ये सब व्यग्यं के डाक्टर एक दूसरे के रोगियों को बहकाने का महान कार्य करते है, उस क्लिनिक पर मत जाना वो तो केवल बुखार का इलाज कर सकता है और तुम्हे तो डायबिटीज या रक्तचाप है। ये लोग अपनी अपनी शिप्य मण्डली के साथ सामूहिक कीर्तन करने में व्यस्त है। कई मसीहाई लेखक लेखन की दुकान बन्द करके अपने डाक्टरी क्लिनिक पर बैठ कर मक्खियां मार रहे है और कुछ ने क्लिनिक के बाहर खुले में पत्रिका रुपी प्रयोगशालाएॅं खोल दी है। और आने जाने वाले के व्यग्यं की जांच पडताल के नाम पर भारी फीस वसूलने में लग गये है। जो फीस नहीं दे सकता उसकी रिपोर्ट गलत-शलत लिख देने की परम्परा भी डल गई है।
कुछ मसीहाई चेहरो ने विश्व विधालयों के आचार्यो के रुप में स्वयं को प्रतिप्ठित कर लिया है ओर इस काम मंे अपने चेले-चाटियों के साथ लगे हुए है। व्यग्यंचार्यो ने काव्य शास्त्र, नाटक शास्त्र और सौन्दर्य शास्त्र की अनुपालना में व्यग्यं शास्त्र की स्थापना करने के लिए भी चन्दा इकठ्ठा करना शुरु कर दिया है। व्यग्यं साहित्य की अवधारणा किसी भी राजनीतिक दल की अवधारणा की तरह ही है, पता नहीं चलता कब वे सत्तधारी दल में है और कब विरोधी दल में। विसंगतियों के नाम से मसीहाई चेहरे सर्वत्र दृप्टिगोचर होते रहते है।
अपने गले में लटके व्यग्यं के सलीब से वे आन्दोलनांे की फुहार छोड़ते रहते है। कई चेहरे कई आन्दोलन खा गये है और डकार नहीं ले रहे है। कुछ को आन्दोलनों के आफरे चढ़ गये है। राजधानी से निपट कर जब भी ये चेहरे कस्बेों तक आते है तो कोई न कोई चीज अपने साथ अवश्य लेकर जाते है। वे नकली ठहाको से दुनिया हिला देने की कूबत रखते है। दो-चार-सौ शब्दो के द्वारा खबरो की ऐसी चीड़ फाड़ करते है कि लगता है सरकार, सत्ता, व्यवस्था सब दहल जायेगी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता। सरकारे, सत्ता चलती है और सलीब पर टंगा चेहरा उदास होकर फिर किसी खबर के पीछे चल पड़ता है। प्रान्तीय राजधानियों में भी ये सलीब चमकते-दमकते रहते है। एक रियलिटी शो है जो अनवरत चलता रहता है। व्यग्यं में आन्दोलन या आन्दोलन में व्यग्यं कभी कभी समझ में नहीं आता मगर सब मिलकर कुछ न कुछ करने को तैयार। सब कहते है सुबह अखबार पढ़ो, दोपहर में लिखो और सांयकाल तक किसी न किसी सम्पादक के टेबल पर रखकर उसके उपर एक बाटली रख दो। एक दो दिन में बाटली का असर नजर आ जाता है, रचना भी नजर आ जाती है और कालान्तर में चेक, डाफ्ट, मनीआर्डर के भी दर्शन हो जाते है। एक मसीहाई चेहरे ने मुझे कहा-
भाई साहब बहुत व्यस्त हॅंू। 2 जगह व्यग्यं भेजने है। एक जगह से कहानी की भी मांग आई है। क्या करु कुछ समझ नहीं आता। ’’सम्पादक जी के नाराज होने का खतरा है कि व्यग्यं भूंजू या कहानी।‘‘ मैंने कहा यार हम सब भी इसी कारण नाराज है तुम कुछ मत भेजो। यही सबसे बड़ी सेवा होगी। मगर जिसने गले में सलीब लटका रखा है वो मानता थोडी है। बहुत सारे व्यग्यंकार नदियों के किनारे बैठकर व्यग्यं साधना करते है, और साधना करते करते आराधना और योगासन की तरफ चले जाते है। असफल व्यग्यंकार आगे जाकर सफल व्यग्यं-पत्रिका-सम्पादक बनने के ख्वाब देखता है। और यदि कोई फाइनेसर मिल जाये तो क्या कहने। वे किसी न किसी फाउण्डेशन, टस्ट, समिति का पुरस्कार ले लेते है या चयन समिति में घुसकर मसीहा बन जाते है। सभी एक जैसा लिख रहे है किसी को भी पुरस्कार दे दो या कोई भी लेले या क्या फरक पड़ता है। सभी का लेखन निप्प्राण व नीरस है। आज लिखा, कल छपा, परसो कूड़ा, करकट, कजोड़ा बस खेल खतम पैसा हजम। मसीही चेहरे अपनी अभिलापा को दबाये रखते है और मसीही अन्दाज में ठुमके लगाते रहते है। और कुछ महान आत्माएं सम्पूण विरक्ति के साथ आपाधापी से दूर असाधारण लिखने के नाम पर अपनी अन्धेरी गुफा में कागज, कलम, कम्प्यूटर, लेपटाप लेकर घुस जाते है, परिणाम चाहे जो हो उन्हे अपनी साधना से मतलब। कभी कभी एक दूसरे की शिकायत कर ठहरे पानी में कंकड फेंकने से भी बाज नहीं आते।
व्यग्यं का सलीब कैसा है ? ये भी एक शाश्वत प्रश्न है। कभी घटिया सलीब और बढिया मसीहा हो जाता है और कभी घटिया मसीहा और बढिया सलीब हो जाता है।
एक होती है विचारो की दुनिया, एक होती है असली दुनिया, एक होती है विकारो की दुनिया और आजकल एक होती है आभासी दुनिया और आभासी और काल्पनिक दुनिया में सब विचरण करते है। इस दुनिया में डेस्टिनी भी है और कहीं कहीं डाइनेस्टी भी। डेस्टिनी के सहारे ही सब मसीहा धरती पर चल रहे है। कुछ के हाथ में खप्पर है, कुछ भभूत रमा रहे है, कुछ फकीराना अन्दाज में है और कुछ पीर ओलिया, मठाधीश बन कर बैठ गये है। जो इन सब में नहीं है वो कहीं नही है और सब जगह है। सब जगह होने से कहीं भी कभी भी आने-जाने की आजादी है। आवाजाही बनी रहे और जो कहना है वो पत्रकारीय शैली में कहना आसान है ऐसा कहना है एक और मसी जीवी मसीहा का जिनका सलीब कुछ कुछ पुराना हो गया है। हर मसीहा की अपनी अपनी ढ़पली और अपना अपना राग है। कुछ जनवादी है कुछ प्रगतिवादी और कुछ कलहवादी। सांस्कृतिक नीति के अभाव में सर्वत्र सांस्कृतिक अत्याचार, अनाचार, बलात्कार हो रहे है और मसीहा है कि अपने अपने सलीब के क्रॅास ठीक कर रहे है। मसीहाओं पर जो आरोप लगाये जाते है वे इतने टुच्चे होते है कि मसीहाओं की महानता से मेल नहीं खाते और स्वतः नप्ट हो जाते है। सलीब, मसीहा और ऐसे सैंकडो सवाल साहित्य में रामायण और महाभारत की तरह ही है। हर चेहरा मसीहा है और पर्दे के पीछे क्या है ? कोई नहीं जानता। सब अकेले है और अपने अपने अजनबी है। एक लम्बा रेगिस्तान व्यग्यं के सलीब के साथ साथ दूर तक चला जा रहा है। मसीही चेहरे पर चमक बढ़ती जा रही है क्यों कि रात में रियलिटी शो है। और शो में कृत्रिम रोशनी से ही काम चलता भाई।
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यशवन्त कोठारी, 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर जयपुर - 2,..09414461207