Sansaar ki sarvshreshth dhyan pranaliya - 5 - last part in Hindi Spiritual Stories by Brijmohan sharma books and stories PDF | संसार की सर्वश्रेष्ठ ध्यान प्रणालियाँ - 5 - अंतिम भाग

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संसार की सर्वश्रेष्ठ ध्यान प्रणालियाँ - 5 - अंतिम भाग

अध्याय – पांच
(शब्दातीत यात्रा)
 

सावधानियां

ध्यान करते वक्त कुछ सावधानियां आवश्यक हैं ।

यदि आप का ध्यान न लग रहा हो तो मन पर ज्यादा जोर न दें । ध्यान रोक दें अथवा न करें, टाल दें । कुछ समय बाद ध्यान का अभ्यास करें ।

अपनी क्षमता से अधिक समय व उर्जा न लगाएं ।

यदि बोअर हो गए हों तो संगीत के साथ भगवान का कीर्तन करें ।

जैसे उं नमः शिवाय, उं नमः शिवाय अथवा श्रीक्रष्ण गोविंद हरे मुरारे आदि संगीतमय कीर्तन करें ।

ऐक युवक किसी गुरू के पास ध्यान सीखने पहुंचा ।

गुरू ने उसे पहले यम नियम की शिक्षा दी व अनेक माह तक संयम का पालन करवाया ।

स्ंयम की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर गुरू ने ऐक दिन उसे ध्यान की दीक्षा दी । साथ ही कहा, ‘ स्मरण रहे वत्स ! ध्यान करते वक्त तुम्हारे मन में कोई बंदर का विचार न आने पाए । ’

ऐक माह बाद गुरू ने चेले से उसकी प्रगति के विषय में जानना चाहा ।

युवक बोला, ‘ गुरूजी मेरा ध्यान का अभ्यास तो ठीक चल रहा है किन्तु ऐक बंदर बराबर ध्यान के दौरान मेरे नैत्रों के आगे बैठा रहता है । उसे कितना भी भगाओ किन्तु वह भागता नहीं । ’

गुरू खुब हंसे व उन्होने चेले को ध्यान के दौरान बंदर न आने की सावधानी से मुक्त कर दिया । तब जाकर उसका ध्यान का सही अभ्यास आरंभ हुआ।

मित्रों निषेध का निर्देश अपना उल्टा असर बताता है । अतः कोई विचार शुभ हो या अशुभ, हमें हर विचार से निर्लिप्त रहकर उसे सिर्फ साक्षीभाव से देखते रहना है ।

इसके अलावा अहंकारी व मान सम्मान के लोभी साधुओं के चेले बनने से बचें । अनेक साधू उंची गादियों को पाने के लिए बड़ी बुरी तरह से हिंसक होते देखे गए हैं । अन्य अनेक साधु अत्यंत क्रोधी तो अन्य को अपने बहुत से चेले होने का अभिमान होता है । अतः सावधानी आवश्यक है । बाहरी दिखावे, पहनावे, अनेक शिष्यो की जमात व लच्छेदार भाषण - इनके झांसे में आने से बचें । विवेकानंद ने परमहंस रामक्रष्ण को गुरू बनाने के पुर्व अनेक दिनों तक उन्हें परखा था ।

ध्यान के चरण

मैं ध्यान प्रक्रिया के निम्न चरण अपनाता हूं:

प्रातः बड़े सवेरे उठकर नित्य क्रिया से निव्रत्त होइये ।

कुछ मिनट तक निम्न ध्यान कीजिए:

प्रथम स्टेप:

1 हमारे सिर के सर्चोच्च भाग में अथवा मानसिक नैत्रों के सम्मुख दिव्य शिवलिंग विराजित है । लिंग से दिव्य प्रकाश, दिव्य आनंद व शांति निःस्रत हो रहे हैं । फिर प्रार्थना करिए:

‘ हे प्रभु ! हे करूणानिधान ! आपकी जय हो ! आपने हम पर बड़ी क्रपा की ! आपने हमें बहुत कुछ दिया, आपने हमें मनुष्य जन्म दिया । आपका कोटि कोटि धन्यवाद ! ऐसी क्रपा व करुणा बनाए रखिए, भगवन ! हमें सदबुद्धि दीजिए कि हम दीन दुखियों की सेवा करे,, परोपकार करें, किसी का दिल न दुखाएं । ’

“भगवान की क्रपा की वृष्टि हो रही है” ( तीन बार दोहराएं व तीव्रता से भगवद्क्रपा की अनुभूति करें ) ।

द्वितिय स्टेप:

2 दृष्टा कौन है ? देखने का प्रयास कीजिऐ । स्वयं की ओर मुड़िये ।

3 कुछ समय तक अपने विचारों का अवलोकन करने का प्रयास करें ।

तृतीय स्टेप: कल्पना करें, मैं दिव्य आत्मस्वरूप सत्ता हूं ! मैं मन, शरीर से परे हूं ! मैं सुख, दुख, राग, द्वेष आदि सभी विकारों से रहित हूं ! मैं आकाश स्वरूप हू ! मैं प्रकाश स्वरूप् हूं ।

मैं आनंद व शान्ति स्वरुप हूँ I

 

चतुर्थ स्टेप:

5 दिव्य शिवलिंग का ह्दय में ध्यान करें। लिंग से दिव्य प्रकाश, आनंद व शांति निःस्रत हो रहे है।

भगवान का भजन करें:

उं नमः शिवाय, उं नमः शिवाय ( अनेक बार आनंद से झूमकर गाएं । )

आहा ! आहा ! क्या आनंद आया ! मनुष्य जीवन सफल हो गया !

मन पर अनावश्यक प्रेशर न दें ।

स्वमन का ध्यान

स्वयं के मन का अवलोकन, यह बहुत श्रेष्ठ ध्यान प्रणाली है ।

यह निरापद वैज्ञानिक ध्यान प्रणाली है ।

प्रारंभ में यह कठिन प्रतीत होती है किन्तु धीरज रखने व प्रयास करते रहने पर यह सुगम लगने लगती है ।

इस विधि का सबसे बड़ा फायदा यह है कि अपने मन में छिपे दुर्गुण जैसे काम, क्रोध, आदि से हमारा साक्षात्कार होता है । इन आवेगों के आने पर हम उनके प्रति सजग हो जाते हैं ।

इस सजगता का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति पर इन दुर्गुणों की पकड़ ढीली पड़ती जाती है । हमारे मन मे सर्वदा बड़ी तेजी से विचार चलते रहते हैं । बिना परिवर्तन की इच्छा के इनके प्रति सजग होना, संक्षेप मे यही हमें करना है । धीरे धीरे आपकी चेतना दिव्यता के क्षेत्र में प्रवेश करने लगेगी ।

अनंत का क्षेत्र

ध्यान का क्षेत्र अनंत का क्षेत्र है। यहां यह कोई नहीं कह सकता कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया है।

ऐक व्यक्ति को ध्यान के दौरान ऐक प्रकार का अनुभव होता है तो वहीं दूसरे व्यक्ति को कुछ भिन्न प्रकार का अनुभव हो सकता है । यही ध्यान की खूबसूरती है। कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि उसने मंजिल प्राप्त कर ली है।

क्या अनंत की यात्रा में मंजिल हो सकती है ? हां पड़ाव अवश्य हो सकते हैं । अतः ध्यान ऐसी क्रिया है कि बस करते जाइये । वेदों में कहा है, ‘ चरैवेति चरेवैति ’ अर्थात् चलते ही चलो, चलते ही चलो ।

शब्दातीत यात्रा

यहां से आगे की यात्रा शब्दातीत है । जिसे कठोपनिषद में कहा गया है, 

‘ यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ’ अर्थात ध्यान का वह क्षेत्र जहां मनुष्य के मन व वाणी की पहुंच नहीं है ।

मन के परे चेतना के इन उच्चतर स्तरों को हम सिर्फ इशारे से समझा सकते हैं। यहां से आगे हम न्यूनतम शब्दों में योग के उच्चतर स्तरों को सकेतों के द्वारा व्यक्त करने का प्रयास करेंगे ।

अतः निगेटिव्ज के द्वारा संकेत को समझने का प्रयास कीजिए। उपनिषदों में उस महत्तर सत्ता को ‘ नेति नेति ’ ( यह नहीं, वह भी नहीं ) द्वारा समझाया गया है ।

ध्यान का आनंद

क्या ध्यान के आनंद को बतलाया जा सकता है ?

क्या गूंगा किसी मधुर स्वाद को बतला सकता है ?

जिस तरह गूंगे के लिए स्वाद की अभिव्यक्ति संभव नहीं वैसे ही ध्यान की शब्दों में अभिव्यक्ति संभव नहीं ।

फिर भी उच्च भाषा व भावों द्वारा कुछ सीमा तक उसे व्यक्त किया जा सकता है । जैसे कि जे क्रष्णमूर्ति ने अपनी पुस्तक ‘ द ओनली रिवोल्यूशन ’ में अपनी दिव्य अनुभूति को व्यक्त किया है। यह ऐक अनुपम ग्रन्थ है।

सिर्फ यही कहा जा सकता है कि संसार का कोई सुख ध्यान के आनंद की बराबरी नहीं कर सकता ।

ध्यान की आव्रत्ति

ध्यान दिन में कितनी बार व कितना किया जाना चाहिए ?

इसका उत्तर यह है कि प्रारंभ मे ध्यान दो बार व बहुत कम समय यथा पांच या दस मिनट से ही शुरू करना चाहिए ।

धीरे धीरे रूचि के अनुसार समय व आव्रत्ति बढ़ा देना चाहिए ।

समय दस मिनट से धीरे धीरे बढ़ा कर आधा से ऐक घंटा कर देना चाहिए । जब ध्यान स्वतः प्रारंभ होने लगे तो फिर समय की पाबंदी नहीं है।

सच्चे साधक को ध्यान के प्रति पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए । ध्यान को जीवन का सर्वोच्च ध्येय मानते हुए अपने जीवन को ढालना चाहिए । समस्त प्रकार के तनाव उत्पन्न करने वाले कार्यो से बचना चाहिए । अधिक गपशप लगाने वाले व तामसी लोगों से दूर रहें । यम नियम का यथा शक्ति पालन करें। अपनी आजीविका के लिए जो तनाव जरूरी है वह रहेगा ।

साधक को अपने दुर्गुणों के प्रति पूर्णतया सतर्क रहकर उनसे दूर रहने का प्रयास करना चाहिए । सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करें । दूसरों के द्वारा की गई गलतियों को क्षमा करने का प्रयास करें । किसी के बुरा करने पर भी उससे बदले की भावना न रखें। लेशमात्र भी गर्व न करें । खुद के प्रचार से बचें।

रामायण व गीता का सार

रामायण भक्तिभाव से पूर्ण ऐक अनुपम काव्यग्रन्थ है ।

मैं ऐक चौपाई में इसका सम्पूर्ण सार बताना चाहता हूं ।

भगवान राम शबरी से मिलने उसकी कुटिया में जाते हैं । अनेक साधुओं ने उन्हे निम्न कुल की उस भक्त से मिलने के लिए मना किया किन्तु भगवान कहते हैं कि मैं सिर्फ ऐक नाता मानता हूं और वह है भक्ति का नाता ।

‘‘ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता, मानउं ऐक भगति कर नाता ।

जाति पांति कुल धर्म बड़ाई, धन बल परिजन गुन समुदाई ।

भगति हीन नर सोहई कैसा, बिनु जल बारिद देखिअ जैसा । ’

शबरी बड़े आदर भाव से उनका स्वागत करती है व उन्हे प्रेम भरे बैर खिलाती है ।

श्रीराम उन प्रेम भरे बैरों को बड़े चाव से खाते हुए प्रेम में मगन होकर अपना हृदय खोलते हुए अपने सच्चे स्वरूप का परिचय देते हुए कहते हैं:

अरे शबरी ! कोई मुझे राजा दशरथ का पुत्र, कोई वीर घनुर्धर तो अन्य कोई राक्षसो का संहारक समझता है किन्तु मै आज तुझे अपना सच्चा स्वरूप बतलाता हूं।

‘ मम दर्शन फल परम अनूपा जीव पाव निज सहज सरूपा ’

अर्थात, हे शबरी ! मेरे दर्शन का अनुपम फल है - जीव को अपने सरल सहज स्वरूप का दर्शन होना ’

ओ शबरी ! इस समय तू मेरे नहीं वरन अपने ही सच्चे सहज प्राक्रत स्वरूप का दर्शन कर रही है।

मित्रों! यह स्वरूप कुछ और नहीं वरन स्वयं का आत्मस्वरूप है । अर्थात भगवान सभी प्राणियों में आत्मरूप में विराजित है । इसी प्रकार गीता में भगवान क्रष्ण अपने सखा अर्जुन के समक्ष प्रेमोन्मेष में आकर कहते हैं: ‘ अयमात्मा गुढ़ाकेशः सर्वभूताशयः स्थितः ’

अर्थात ‘ हे अर्जुन ! कोई मुझे मुरली वाला, तो कोई मुझे गोवर्धन पर्वत को उठाने वाला, कोई ग्वालबाल का सखा तो कोई अन्य राक्षशो का वध करने वाला समझता है किन्तु वास्तव मे मै सभी प्राणियों के हृदय में उनकी आत्मा के रूप में विराजित आत्मा हूं ।’

इस प्रकार रामायण व गीता एक ही आत्मा की ओर लक्ष्य करती है । बड़ा सुंदर प्रसंग है । बड़ी गहरी बात है व बहुत कम भक्तों का इन पंक्तियों की ओर ध्यान जाता है । अधिकांश लोग ग्रंथ में वर्णित किस्से कहानियों पर ही ध्यान देते हैं ।

‘ साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय, सार सार को गहि रहे थेाथा देइ उड़ाय । हमे ग्रंथ के सार पर ध्यान देना चाहिए ।

ध्यान की लहरें

अनेक दिनों तक आप ध्यान के प्रयास करते है लेकिन आप सफल नहीं होते। जब आप नित्य प्रातः ध्यान के लिए बैठते हैं, आपको ध्यान नहीं लगता । इस तरह अनेक दिन, महीने यहां तक कि वर्षो तक आपके प्रयास सफल नहीं होते । किन्तु आप बिना निराश हुए मेहनत व लगन से प्रभु की प्रार्थना करते हुए निरंतर अनवरत ध्यान क्रिया को जारी रखते हैं।

ऐक दिन आप पाते हैं कि समय के साथ ध्यान का प्रयास किए बिना ही आप का मन स्थिर होने लगता है । ध्यान की ऐक जबर्दस्त लहर आपकी चेतना पर अधिकार कर लेती है । इस आवेश के ऊपर आपका कोई नियंत्रण नहीं है। किन्तु बाद में अनेक बार आपके चाहने पर भी वह अनुभव नहीं लौटता । फिर ऐक दिन अनजाने में वही दिव्य अनुभव आप पर पुनः छा जाता है । ध्यान क्रिया की ऐक सुंदर लहर आपके अंदर प्रविष्ट होती है । तब आपके प्रयास के सुंदर फल अपने आप प्रकट होने लगते हैं। मैं स्वयं का उदाहरण देना चाहता हूं । मुझे अनेक वर्षो तक ध्यान में कोई सफलता नहीं मिली ।

किन्तु मैंने ध्यान करना जारी रखा । ऐक दिन ध्यान का झो्ंका आया । मेरा मन शरीर बिलकुल स्थिर हो गया। मेरी चेतना दिव्य तरंगों में बहने लगी । निश्चित ही यह कोई काल्पनिक स्थिति नहीं है ।

वैराग्य भाव

ध्यान साधना के लिऐ वैराग्य का होना बड़ा सहायक है।

गीता में अर्जुन क्रष्ण से पूछता है, ‘‘ हे क्रष्ण ! मन को ऐकाग्र करना उतना ही कठिन है जितना वायु को वश में करना ।’’

क्रष्ण कहते हैं, ‘‘ हे अर्जुन ! यद्यपि मन को ऐकाग्र करना बहुत कठिन है किन्तु वैराग्य व बार बार के प्रयास से यह सुगमता से किया जा सकता है। ’’

मित्रों ! वैराग्य का अर्थ सांसारिक सुखों से विरक्ति से है। आदि गुरू शंकराचार्य कहते हैं, ‘‘ हमने भोगों को नहीं भोगा, भोगों ने हमें भोग लिया। क्या आग में घी डालने से वह बुझ सकती है ? कदापि नहीं । उसी प्रकार सुखों को भोगने से वह तृप्त होने की अपेक्षा और अधिक बढ़ती रहती है।

सुखो के मांग की यह वित्रष्णा अपने आप में बड़ा भारी दुख है। ’’

ध्यान के द्वारा आप स्वयं को अपने वास्तविक स्वरूप मे देखते हैं। आपकी चेतना का प्रथम भाग है आपका शरीर, जो मांस, खून, हड्डियाँ, कफ मल मूत्र आदि अत्यंत गंदे पदार्थों का बना हुआ है। संसार के सारे सुख इसी गंदे शरीर को लेकर हैं जो ऐक दिन मिट्टी में मिल जाऐगा, यही इसका अंतिम लक्ष्य है। जब ध्यान के द्वारा आप बड़ी तीव्रता से अपने शरीर का बोध करते हैं ।

आपको वैराग्य का भाव उदय होता है। फिर आप प्रश्न करते हैं कि इस गंदी मिट्टी स्वरूप शरीर के परे क्या कुछ दिव्यता की संभावना है ?

ऐक दिन ध्यान के द्वारा जब आप दिव्य स्पंदन का अनुभव करते हैं । आपको सुख भोग के तुच्छ जीवन के परे बहुत बड़ी संभावना नजर आने लगती है।

शरीर मन से परे

असली ध्यान बहुत गहरा तत्त्व है। जब तक चेतना इस स्थिति को स्पर्श नहीं कर लेती, वास्तविक ध्यान ऐक कल्पना भर ही रहता है।

अभी भी इस दिव्य अवस्था के विषय में पूर्ण अनुसंधान के बिना ठीक से कुछ भी कह पाना संभव नहीं है । इस विषय में हम अत्यंत उच्च अवस्था में सहज रूप से स्थित महासंत यथा, रमण महर्षि के अनुभवों के सहारे ही कुछ कुछ अनुमान लगा सकते हैं।

इस स्थिति में प्रवेश के लिऐ आपको नियमित साधना की आवष्यकता है।

पहले गीता में वर्णित योगसाधना नितांत आवश्यक है। रमण महर्षि के समान जन्मसिद्ध संतों को बिना किसी प्रकार की साधना के यह परमोच्च स्थिति बिना प्रयास के प्राप्त हो गई किन्तु सब के लिऐ ऐसा संभव नहीं है।

धीरे धीरे नियमित ध्यान से मन रूकने लगता है। ऐक दिन अकस्मात अपने आप आपकी चेतना शरीर मन की परिधि को लांघकर परम दिव्य अवस्था में प्रवेश कर सकते हो । प्रारंभ में निराकार स्व का ध्यान करने में बहुत कटिनाई लगती है । किन्तु दैनिक अभ्यास से स्व में ठहरना सरल हो जाता है । ध्यान लगाते ही चेतना स्व में उतरने लगती है ।

दिव्य तरंगें

मैं नित्य चार बजे के करीब उठकर ध्यान करता हूं।

मैं दिव्य ज्योतिर्मय शिवलिग का ध्यान करता हूं व ‘‘ओम नमः शिवाय ’’ का जाप करता हूं।

कुछ विश्राम के बाद मैं अपने मन में होने वाली हलचल का निरीक्षण करता हूं।

मैं कुछ देर बैठकर तो बीच बीच में लेटकर ध्यान करता रहता हूं। मुझे अनेक बार जरा भी ध्यान में सफलता नहीं मिलती है

किन्तु मैं अपना ध्यान जारी रखता हूं। फिर अचानक मुझे दिव्य तरंगें महसूस होती हैं ।

यह ऐक निष्चित समय पर होता है।

लेटते हुऐ भी ध्यान किया जा सकता है और लेटने की स्थिति में अधिक अच्छा ध्यान होता है ।

मैने ऐक नया प्रयोग किया। मैं चलते चलते भी ध्यान क्रिया जारी रखता हूं।

ध्यान व भ्रमण ऐक साथ किये जा सकते हैं।

यहां मैं ऐक अनुसंधान विधि का जिक्र करना चाहूंगा ।

अपने मन में चल रहे हर विचार का अवलोकन करें । विचारों को रोकने या नियंत्रण का प्रयत्न न करें ।

फिर पीछे मुड़कर देखे कि द्रष्टा कौन हे ? विचारों का प्रवाह कम होकर मात्र अस्तित्व बोध का आभास होगा ।

उस स्थिति में रूकें । किसी प्रकार के विचार को निमंत्रण न दें ।

कोई निष्कर्ष न निकालें । किसी प्रकार की अनुभूति को करने की कल्पना न करें।

ऐक अनुसंधानकर्ता की स्वयं पर पैनी निगाह मात्र रखें।

ध्यान से क्या मिलेगा ?

आम आदमी बिना फल प्राप्ति के किसी कार्य को करने के विषय में नही सोच सकता है ।

गीता मे भगवान ने कहा है, ‘ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ’

अर्थात मनुष्य का अधिकार मात्र कार्य करने पर है, फल पर उसका अधिकार नहीं है । ’

अतः हमें पूरी तन्मयता से ध्यान का प्रयास करना चाहिए। यह क्षेत्र लोभी लालचियों के लिए नहीं है । गहन लगनशील अनुसंधानकर्ता ही इस मार्ग के सुपात्र हैं ।

क्या ध्यान से मुझे समाज में प्रतिष्ठा मिलेगी ? क्या मुझे लोग धन देंगे ? क्या लोग मुझे गुरू का पद देंगे ? क्या मुझे सम्मान मिलेगा ? समाज में मान्य इन उपलब्द्धियों का ध्यान क्रिया से कोई संबंध नहीं है । वरन् ये उपलब्द्धियां ध्यान में बाधक हैं ।

जो लोग आपको पहले शिष्य बनने के लिए कहते हैं, उनसे एकदम सावधान !

वह व्यक्ति संत नहीं शिष्यीं के द्वारा अपने अहंकार की वृद्धि करना चाहता है I

ध्यान की प्राप्ति शांति व आनंद हैं जिनका कोई मोल नहीं है । ये चीजें मनुष्य जीवन के अनुपम रत्न हैं ।

‘ सुखमात्यंन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतिन्द्रियम् ’ ( गीता 6/21)

भगवान ने गीता में कहा है ‘ ध्यान से अनुपम आनंद मिलेगा, दुखों से मुक्ति मिलेगी व तेरा जीवन सफल हो जाएगा । ’

प्रायः लोग नाम, यश, पद व धन के लोभी होते हैं । ये प्रव्रत्तियां ध्यान की प्रगति में बाधक हैं।

 

समापन

हम भाग्यवान हैं कि हमने संसार के सर्वश्रेष्ठ मार्ग की चर्चा की ।

मैंने ऐक साधू मस्तराम को देखा । वे बिना किसी सम्पदा के, किसी साधन के, अपनी कमर में पहने ऐक कपड़े में आसमान के नीचे खुले में जमीन पर बैठकर इतनी मस्ती में झूमते कि वर्णन करना असंभव है ।

यह निश्चित ही आंतरिक मस्ती है । मैंने इस उक्ति को साक्षात् देखा है कि

‘ आप बाहर क्या ढूंढते हो, आपके मन में ही सारे सुख हैं । ’

इस सुख की, इस मस्ती की जो भौतिक वस्तुओं पर निर्भर नहीं है, इसे समझने का यह ग्रंथ प्रयास भर है। मनुष्य हजारों साल से जिस आध्यात्मिक आनंद के अम्रत को खेाज करता है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए ।

वर्तमान सभ्यता हमें भौतिक सुख तो देती है किन्तु आंतरिक संतोष नहीं।

सुख के साथ हमारे दुख भी बढ़ते चले जाते हें ।

हमने संसार के सर्वोच्च परम आनंद के विषय में कुछ रसपूर्ण चर्चा यहां की है । आशा है पाठक वर्ग उस पर गंभीर चिंतन करेगा ।

गीता कहती है ‘ सुख मात्यंतिकंयत्तद् ’, यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ’ आदि अर्थात्

ध्यान के आनंद से बढ़कर कोई अन्य आनंद नहीं है।

चेतना के महासागर का बड़ा भाग अभी भी अछूता है और सदैव रहेगा । गंभीर मनीषियों से मेरा निवेदन है कि इस ओर ध्यान दें । यद्यपि यह दुष्कर कार्य है किन्तु इस कार्य में उतना ही आनंद भी है । मैने उच्चतम आनंद की ऐक झलक को विज्ञान व साधना के द्वारा अनुभव करने का तुच्छ प्रयास किया है । मैने प्रसिद्धि पाने लिए यह पुस्तक नहीं लिखी है । किन्तु आध्यात्मिक जगत के कुछ सच्चे अन्वेषक मित्रों का साथ मिलने के लोभ का मैं संवरण नहीं कर सकता । ध्यान में रूचि रखने वाले लोगों के साथ इस क्षेत्र में अन्वेषण व प्रयोगों को आगे बढाया जा सकता है । सच्चे मित्रों के साथ ध्यान के दुश्कर क्षेत्र की यात्रा कुछ आनंदपूर्ण हो सकती है। अध्यात्म का क्षेत्र सिर्फ साधु सन्यासियों के लिए ही नहीं है । यह ऐक विज्ञान है जिसके लिए किसी भी प्रकार के दिखावे या बनावट की आवश्ककता नहीं है, न संसार छोड़ने की आवश्यकता है । यह विशुद्ध अंतर्यात्रा है ।

 


लेखक परिचय (बृजमोहन शर्मा)

बृजमोहन शर्मा को गणित विज्ञानं पढ़ाने का सेंतीस वर्षो का दीर्घ अनुभव है i

साथ ही उन्हें ज्योतिष, योग, एरोबिक्स, आयुर्वेद, लेखन, कविता, नाटक लेखन आदि का भी दीर्घ अनुभव है I

उनकी कविता “फारेस्ट “ इंटरनेशनल काव्य प्रतियोगिता पोएट्री .कॉम में सेलेक्ट होकर भारी प्रशंषा प्राप्त की व उसे “साउंड ऑफ़ पोएट्री “ के लिए सेलेक्ट किया गया I

उनके अनेक ह्रदयस्पर्शी दिल को झकझोर देने वाले उपन्यास गुजरात की सबसे प्रमुख साहित्यिक संस्था मातृभारती .कॉम पर प्रकाशित हुए है I उनके अनेक ग्रन्थ गूगल सर्च पर अनेक प्लेटफार्म पर उपलब्ध हैं I

मात्रभारती, instamojo, विश्व प्रसिद्द साहित्यिक संस्था D2D पर प्रकाशित उपन्यास व कहानियां

२ भारत के गावों में स्वतंत्रता आन्दोलन ( एक अनकही दास्तान) हिंदी व अंग्रेजी में

३ विद्रोहिणी ( हिंदी व अंग्रेजी )

निम्न लघु उपन्यास, कहानियां प्रकाशन हेतु तैयार है :

४ सुनहरा धोखा ( हिंदी व इंग्लिश )

५ जुआरी फिल्म प्रोड्यूसर

६ अमृत बूटी ७ पागल आदि अनेक

ब्रजमोहन शर्मा ७९१ सुदामानगर, इंदौर (म.प्र.) ४५२००९ इंडिया present on all socialMo. 919424051923 ph. 917312485512 bmsharma421@gmail.com