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28.8.2021
नया दिन शुरू हुआ। ऊपर से उजाला दिखा। तनु ने सुजाव दिया कि हम उजाले की ओर जैसे भी हो, जाएँ। बारिश अब नहीं थी तब यह मौके का फायदा ले लें। हम एक साथ एक एक करते उस नोकीले, अब कम फिसलाऊ पत्थर पर से नीचे उतरे। उस उजाले की दिशा में गए। आगे जाने के लिए फिर से एक छोटी गुफ़ा से होते थोड़ा चढ़ कर जाना था। एक बच्चा चढ़े और दूसरे को खींचे। पीछे खड़े मै और जग्गा मोबाइल की अब बची हुई बैटरी से लाईट फेंकते रहे। ऐसे ही सब थोड़ा ऊपर चढ़ गए।
आगे रास्ते जैसा कुछ आया वहाँ तो जग्गा के मोबाइल की बैटरी खत्म! वह उजाला अभी तो काफी दूर और सामने की ओर था। बीच में गहरी खाई थी। क्या पता, पांच सात फीट भी हो या सो दोसो फीट भी।
बिलकुल छोटे से द्वार से रेंगता मैं ही आगे बढ़ा।
हम जैसे तैसे उस थोड़ी ऊंची जगह पर पहुंचे ही थे कि पीछे से दिशा की चीख "ओ मा रे…" आई। अब भी वह और दिगीश कुछ मस्ती करते पीछे रहे थे और किसी चींटी के दादा के दादा जैसे कीटक ने अंधेरे में दिशा का पैर उसके ऊपर आया तो उसे काट लीया था। वह ज़ोर से चीखे जा रही थी। दिशा की ओर मैंने अब बहुत कम लाइट रही थी वह फेंकी। बड़ी बड़ी चींटी जैसी मक्खीयाँ दिशा को काटती हुई उसके पैर से होते उसके शरीर पर चढ़ रही थी। दिशा पैर पछाड़ती चीखे जा रही थी।
तोरल ने त्वरा से कूद लगाते दिशा के शरीर पर अपने खाली थैले से मारते कुछ जंतु नीचे खड़खडे और उसके पैर के नीचे से हाथ डालती चींटियों को खींचने लगी। तनु बोला कि ऐसे में पीड़ा शमन के लिए स्वमूत्र कारगर रहता है। उसने कहा कि वह दीवार की ओर मुँह करते पिशाब करे लेकिन लगाएगा कौन?
दिगीश ने कहा वह ही यह करेगा। कोई पेड़ का पत्ता उपलब्ध नहीं था सो अपनी ही हथेली उपयोग में लेगा। उसने हाथ में पास से कुछ मिट्टी ली और उस पर ही तनु की पीशाब ज़िलते दिशा के वस्त्रों में हाथ ड़ालते लगाने लगा। तनु धीरे से बोला "जो मज़ा ली। ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा?" मैंने और तोरल ने यह सुना। एक दूसरे के सामने मुस्कुराए।
दिशा की जलन अब दिगीश के हाथ की स्वमूत्र की मालिश से कुछ ठीक हुई। मैंने दिशा को सब से आगे और दिगीश को सबसे पीछे मेरे पॉकेट से सिटी देकर बज़ाते हुए आने को कहा।
हम सब वह ऊपरी खड़क तक पहुँच तो गए। सब हताश और डरे हुए थे। मैंने हौंसला बढ़ाने के लिए कहा "हम तो ठहरे संगीत वाले। चलो, ड्रम बजाओ। दिगीश, ताकत लगाते सिटी बजाए जा। जग्गा, मनन, यही तो मौका है। शास्त्रीय आलाप लो और जोर से आवाज़ करो।"
इन बच्चों ने ऐसा कीया पर थोड़ी ही देर में उनकी साँसे फूल गई। यहाँ ओक्सीजन की कमी थी। दम घूँटता था। साँस में भी गंदी, बरसों पुरानी हवा जा रही थी। सब फिर चुप हो गए।
मैंने कहा- "अब एक ही उपाय है। जो लंबा होकर सो सके वह सो जाए और बाकी के आराम से बैठते अपनी आंखे बंद करो और श्वास पर ही ध्यान दो। डर लगे तो मनमें ही प्रार्थना करो "उँड़े अंधेरे से प्रभु परम तेजे तुं ले जा, तेरा हूँ मैं, तुं जीवन का दान दे जा।" आहिस्ता आहिस्ता सब के श्वास धीमी रफतार से चलने लगे। सब को अपने बगल वाले का हाथ स्पर्शते रहने को कहा। कुछ बच्चे ऐसे ही सो गए जिन्हें तोरल को जगाने पड़े। नींद में बेहाश होना यहाँ प्राणघातक हो सकता था। सब ने पहली बार ध्यान का अनुभव कीया।
हमने बंद मोबाइल चालू कराते ऊपर की ओर लाइट फेंकी। बाहर से ध्यान खींचने की व्यर्थ कोशिश की। नजदीक में कही कुछ जुगनू की रोशनी भी दिखाई देती थी। एक दूसरे के हाथ के स्पर्श से ही पता चलता था कि हम जीवित है। गहनतम अंधेरा, हवा का अभाव, नीचे तेजी से बहता पानी और राम जाने कितनी गहरी घाटी।
अब किसी में कोई ताकत नहीं बची थी। सब मरने की घड़ी गिनते थे। समय बीतता रहा। हमें ऊपर से कुछ आवाजें सुनाई दी लेकिन हम किसी में आवाज़ लगाने की भी शक्ति नहीं थी।
गामिनी होठ फड़फ़ड़ाते महा मृत्युंजय मंत्र का जाप करती थी। बीच में असंबद्ध बोलती जाती थी। उसका अपने दिमाग पर से अंकुश जा रहा था। तनु ने उसे चांटा मारा और सावध होते उसकी पीठ सहलाई। तोरल रोने लगी थी। मैंने प्यार से उसके गाल पर हाथ पसारे और उसे शाता दी। वह मेरी छाती पर सिर रखते मुझे आलिंगन देती सिसकती रही। उसकी पीठ पर हाथ फेरते मैं उसे आश्वासन देने की कोशिश करता रहा। वह मेरे और करीब आई और मुझे एक चुम्बन दे दिया। अब मैं क्या करता? जो कुछ हो उसका प्रतिभाव देता रहा।
एक पक्षी पाँख फड़फड़ाते नजदीक से उड़ा। तो रास्ता और खुली जगह नजदीक में ही होने चाहिए। आकाश कोरा था पर बाहर रात्रि थी। वैसे तो थोड़े फलांग भरे और बाहर उस उजाले के नीचे, मगर बीच में गहरा कीचड़ था। कितना गहरा? उसका नाप नहीं ले सकते। मुझे 2001 की सुनामी याद आई। विवेकानंद रोक पर फँसे लोगों को सामने ही ज़मीन दिखती थी लेकिन सूखे समुद्र की गहराई ने इन्हें पानी आने तक वहाँ कैद कर दिया था। यहाँ तो चकमक से आग लगाना भी जोखिम से भरा था। अगर मीथेन गैस हवा में है तो आग लगते ही एक ही क्षण में सब कोयला बन जाएंगे। मदद ऊपर ही थी लेकिन बचने की कोई उम्मीद नहीं दिखती थी
अब उस प्रार्थना मैं भी करने लगा- 'टिमटिमाता दीया मेरा देखो बुझे ना।'
सब अपने अपने मनमें प्रार्थना करते लगे। इस भूख, प्यास, थकान और चिंता के मारे हमारा टिमटिमाता जीवन दीप कब बुझेगा यही सवाल था।
वैसे तो सब अधमुए थे पर ढाढस बांधते मैंने कहा कि सब बच्चे कुछ भी किए बिना फिरसे श्वास पर ही ध्यान देते जो है वही स्थितिमें पड़े रहे। श्वास है तो जान है और जान है तो जहान मिलेगा ही।
समय ऐसे ध्यानावस्था में ही बीतता गया।