Barkha bahar aai - 2 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | बरखा बहार आई - भाग(२)

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बरखा बहार आई - भाग(२)

उसने मुझे सुन्दर कहा तो मैने भी पूछ लिया....
सब तो मुझे बदसूरत कहते हैं,तुमने मुझे सुन्दर क्यों कहा?
वो बोला....
तुम सुन्दर हो इसलिए सुन्दर कहा....
तुम झूठ कहते हो,मैं बिल्कुल भी सुन्दर नहीं हूँ,मैने कहा।।
जो मन से अच्छे होतें हैं वो हमेशा सुन्दर होते हैं,वो बोला।।
तभी बारिश की बूँदों की रफ्तार बहुत तेज हो गई और हम अपने ठहरने के लिए कोई जगह ढ़ूढ़ने लगें,मैने कहा उस पेड़ के तले चलें,वो बोला...
पागल हो क्या? बिजली गिर पड़ी तो।।
तब मैने कहा....
वो देखो किसी की झोपड़ी दिखाई दे रही है।।
उसने कहा ,चलो....
और हम उस जगह बारिश से छुपने के लिए वहाँ पहुँच गए,वहाँ झोपड़ी के दालान में एक बूढ़ी दादी बैठीं थी....
मैने कहा....
अम्मा! थोड़ी देर के लिए हम आपकी झोपड़ी में रूक सकतें हैं।।
वो बोलीं...
हाँ! क्यों नहीं बेटा!बस एक काम था,
मैने कहा,कहिए..
वो बोलीं,चाय बनानी आती है
मैने कहा,हाँ!
तो वें बोलीं,फिर देर किस बात की तीनों के लिए चाय बना लें,सब सामान चूल्हे के पास रखा है।।
मैं भीतर गई,मिट्टी का चूल्हा जलाया और चाय बनाने लगी,मैने चाय बनाकर दोनों को दी और खुद भी पीने लगी,चाय पीते पीते हम तीनों बात भी कर रहे थे,कुछ देर में बारिश बंद हो गई तो हम लोंग दादी अम्मा के घर से वापस आ गए....
हम ऐसे ही मिलने लगें,मिलना रोज तो नहीं हो पाता था क्योंकि कभी उसे देर हो जाती तो कभी मैं जल्दी निकल जाती थी,लेकिन ज्यादातर मिलना हो ही जाता था ,हम सुनसान सड़क पर दो घड़ी खड़े होकर बात कर लेते थे बस।।
ऐसे ही ग्यारहवीं वाला साल भी बीत गया और हम बारहवीं में आ गए,तब भी सावन का ही महीना था और मुझे पता चला कि कल मुझे लड़के वाले देखने आ रहे हैं,मैं बहुत रोई क्योंकि मैं शादी नहीं करना चाहती थी,मुझे दो दिनों तक स्कूल नहीं जाने दिया गया।।
मुझे मेरी माँ ने नए सलवार कमीज दिलवाएं और उन्हें पहनकर मैं लड़के वालों के सामने पहुँची,लड़के वालों ने मुझे पसंद कर लिया तो मेरे पापा धन्य हो गए वो इसलिए कि उनकी बदसूरत लड़की की नैया जो किनारे लग चुकी थी।।
लेकिन लड़के ने जिस तरह से मुझसे बात की तो लड़का मुझे पसंद नहीं आया,ऊपर से उम्र में भी बड़ा दिख रहा था,पता नहीं क्या सोचकर उस लड़के ने मुझे पसंद किया था,बिना कारण कोई बदसूरत लड़की को अपनी दुल्हन क्यों बनाएगा भला,यही बात मेरे दिमाग़ में गूँजती रही।।
मेरा लड़के वालों की तरफ से पसंद किया जाना था कि बस पापा ने एलान कर दिया कि अब से ये स्कूल नहीं जाएगी,बारहवीं के पेपर ये घर पर पढ़ाई करके ही देगी,हो सकता है कि कार्तिक या अगहन मास तक लड़के वाले ब्याह के लिए कह दें।।
मैं बिल्कुल सहम गई क्योंकि घर में कैद ही रहती थी,स्कूल जाने के बहाने कुछ देर खुली हवा में साँस ले लेती थी,तो अब मेरे पर कटने वाले थे,तब मैने माँ से कहा कि माँ एक दिन तो स्कूल जाने दो,मैं अपनी सहेलियों से मिलकर पूरी बात बता दूँ,तब माँ बोली....
जा! एक दिन के लिए स्कूल जा लेकिन शादी वाली बात सहेलियों से मत कहना नहीं तो पूरे कस्बे में शोर हो जाएगा।।
मैने कहा,ठीक है माँ।।
और उस दिन मैं स्कूल गई,सभी सहेलियों से आखिरी बार मिली,सावन का महीना था तो आए दिन बारिश होती रहती थी और स्कूल से लौटते समय आज फिर बारिश के आसार नज़र आ रहे थे,जैसे ही थोड़ी दूर चली तो हल्की हल्की बारिश होने लगी,आज भी आशीष मिला,मैने उसे अपनी शादी वाली बात बता दी,तो वो बोला....
नयनतारा! अब फिर कभी भी हमारी मुलाकात ना होगी।।
मैने कहा,शायद कभी नहीं।।
और फिर जोर की बारिश शुरू हो गई,
उसने कहा...
मैं अब घर जाता हूँ।।
मैने कहा,
ऐसी बारिश में कहाँ जाओगे,बिजली ना गिर जाएं।।
वो बोला,
नयनतारा! बिजली तो गिर चुकी है,
फिर उसने मेरे माथे को चूमा और अपनी साइकिल पर बैठकर घर निकल गया और मैं उसे जाते हुए देखती रही।।
मैं उस दिन पूरे रास्ते रोते रोते घर पहुँची,मैं उस दिन साइकिल पर बैठकर घर नहीं आई,उसे पैदल ही घसीटते हुए घर तक लेकर आई,शायद खुद को सज़ा दे रही थी,आशीष का दिल दुखाने के जुर्म में,माँ ने पूछा भी कि तेरी आँखें लाल क्यों हैं?
मैने कहा,शायद बारिश के पानी से हो गईं होंगीं।।
उस समय मैं केवल अकेली रहना चाहती थी,मै गीले कपड़े बदलकर अपने कमरें में आकर बिस्तर पर लेट गई और आशीष के बारें में सोचने लगी,मैने सोचा...
कहीं वो मुझे चाहने तो नहीं लगा,फिर सोचा मैं खूबसूरत होती तो ये सोच भी सकती थी कि कोई लड़का मुझे चाह सकता है,मुझ जैसी बदसूरत को भला कौन चाहेगा? उससे अच्छी दोस्ती हो गई थी शायद इसलिए उसका व्यवहार ऐसा था आज,मैने ऐसी आड़ी-तेड़ी अटकलें लगाकर अपने दिल को समझा लिया।।
अब घर पर मेरे दिन काटे ना कटते,पढ़ती भी तो कितनी देर इसलिए घर के कामों में माँ का हाथ बँटाने लगी,क्योंकि शायद अब मेरी किस्मत मे यही लिखा था घर के काम काज,धीरे धीरे दिन बीतने लगें,कार्तिक मास में मेरी सगाई हो गई और अगहन में ब्याह होना तय हो गया।।
ब्याह की खरीदारियाँ शुरू हो चुकी थीं,पापा ने मेरे ब्याह के लिए बहुत दहेज जुटा लिया था,उन्होंने किसी चीज की कमी नहीं होने दी क्योकिं उनकी बेटी बदसूरत जो थी तो कोई ये ना कहने लगें कि बेटी में तो खोट है ही साथ में दहेज में भी खोट है,लेकिन मेरे लिए मम्मी पापा ने ज्यादा कुछ नहीं दिलवाया उन्होंने केवल अपने दमाद और उनके घरवालों के लिए ही अच्छे अच्छे कपड़ें और अच्छी अच्छी चींजे लीं।।
मेरी शादी का वो मनहूस दिन भी आखिर आ पहुँचा,मनहूस इसलिए कि उस दिन के बाद ही मेरी जिन्दगी में असली मनहूसियत आई थी,मैं दुल्हन तो बनी लेकिन मेरे चेहरे प वो रौनक और खुशी नहीं थी जो एक दुल्हन के चेहरे पर होती है,ब्याह की सभी रस्में पूरी हुई और साढ़े सत्रह साल की उम्र में मुझे उस क्रूर इंसान के साथ भेज दिया गया,
ससुराल में भी सभी रस्में निभाने के बाद जब मुझे तैयार करके सुहाग की सेज पर बैठाया गया,सभी औरतें खी...खी...करते हुए मुझे अकेला छोड़कर चलीं गईं,आधी रात बीत जाने के बाद जब मेरे पति नहीं आएं तो मैं सो गई,सुबह चीड़ियों की चीं....चीं...ने मुझे जगाया और मैं तैयार होने चली गई.....
तैयार होकर मैने सास-ससुर के पाँव छुए तो सासू माँ बोलीं...
रसोई में चलों,तुमसे रसोई की पूजा करवा लेती हूँ।।
और मैं एक कठपुतली की भाँति उनके पीछे पीछे चलने लगी और उनके कहें अनुसार कार्य करने लगी,फिर वें बोलीं....
पहले चाय बना लें,फिर कुछ मीठा बना लेना।।
मैनें कहा,ठीक है माँ जी!
फिर उन्होंने पूछा....
कल रात वीरेन्द्र नहीं आया था क्या?
मैने सिर हिलाकर ना में जवाब दे दिया।।
फिर वें बोलीं.....
हाँ! सुन्दर दुल्हन होती तो ना रूकता बाहर,तेरे जैसी कुरूप के पास आकर क्या करेगा भला?मेरे बेटे की तो किस्मत ही फूट गई,तेरे बाप ने हमने ठग लिया।।
अब ये सुनकर तो ऐसा लगा कि धरती फट जाएं और मैं उसमें समा जाऊँ,लेकिन सिवाय आँसू बहाने के कुछ ना कर सकीं,मन और दिल पर काबू रखकर मैने आलू की तरी वाली सब्जी,पूरियाँ और हलवा बनाया,सास और ससुर को परोसा।।
सास तो कुछ ना बोली और ना ही कोई तारीफ की लेकिन ससुर जी ने मुझसे कहा....
बहुरिया! खाना तो बहुत अच्छा बना लेती हो,ये लो मेरी तरफ से एक हजार एक का शगुन,शगुन लेकर मैने उनके पाँव छुए,तो उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया....
हमेशा! खुश रहो ! मेरी बच्ची!
और सिर पर हाथ भी रखा ,मैं खुशी से निहाल ह़ो गई क्योकिं ये दूसरे इन्सान थे जिन्होंने मेरी तारीफ़ की थी,मैने गैर मन से सासू माँ के भी पाँव छू लिए।।
फिर अपना खाना परोसकर मैं अपने कमरें में ले आई और खाने लगी,तभी बाहर के गेट का दरवाजा खुलने की आवाज़ आई शायद मेरे पति लौटे थे,माँ बेटे में कुछ बातें हुई और वो दनदनाते हुए गुस्से से कमरें में घुसे और मुझे जोर का झापड़ दिया गाल में,झापड़ इतना तेज था कि मैं सीधे बिस्तर से नीचे जा गिरी और गाल पकड़कर बैठ गई,मैं मौन थी क्योंकि मुझे मेरा अपराध समझ में नहीं आ रहा था.....

क्रमशः...
सरोज वर्मा.....