Its matter of those days - 40 in Hindi Fiction Stories by Misha books and stories PDF | ये उन दिनों की बात है - 40

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ये उन दिनों की बात है - 40

तेरे जीनियस सागर भैया है ना!!
अरे हाँ!! मैं तो भूल ही गई थी |
चलो चलते है, उत्साहित होकर कहा मैंने |
जैसे ही हम दोनों जाने के लिए खड़े हुए, एक मिनट......पर तू क्यों चल रही है? तू क्या करेगी वहाँ?
मैं वो.......सागर से मिल............हा हा हा हा..........हम्म्म समझ गयी | सारी चॉकलेट्स तू ही खाना चाहती है ना अकेली, इसलिए मुझे नहीं ले जा रही |
अरे दीदी!! चल ठीक है |
शुक्र है भगवान का की इसने ज्यादा कुछ पूछा नहीं |
थोड़ी ही देर मैं हम सागर के घर थे |
दरवाजा दादी ने ही खोला था | दादाजी रामू काका के साथ किसी काम से बाहर गए थे |
नैना और मेरे हाथ में कॉपी-किताबें देखकर दादी समझ गई थी की हम सागर से सवाल हल करवाने ही आये थे, इसलिए उन्होंने सागर को आवाज दी |
आया दादी |
मुझे देखकर वो थोड़ा सा चौंका |
शायद उसे कुछ याद आया | शायद 5-6 दिन पहले हम मिले थे वो दिन |

क्या हुआ नैना? उसने थोड़ा सा परेशान होकर कहा |
नैना समझ ना सकी थी पर मैं समझ गई थी की वो परेशान था |
भैया ये कुछ सवाल है जो मुझसे हल नहीं हो रहे थे | क्या आप बताएंगे?
नैना! अभी थोड़ा सा बिजी हूँ मैं, तुम बाद में आ जाना |
पर भैया!!
सागर ने मेरी तरफ देखा नहीं था | मुझसे नजरें चुरा रहा था वो |
नैना!! सागर ने थोड़ा सा जोर दिया |
ऐसा करो तुम दोनों कॉपी किताब यहीं छोड़ जाओ सागर बाद में देख लेगा |
मेरी धड़कन बैठ सी गई थी | मैं यहाँ अपने सागर से मिलने आई थी, उससे बात करने आई थी पर उसने हमें जाने को कह दिया था |
आँखों से आँसू छलक को ही थे पर उन्हें रोक लिया था मैंने |
शायद सागर ने मेरी भीगी आंखें देख ली थी इसलिए जब हम दोनों जाने को मुड़े उसने पीछे से आवाज दी |

रुको नैना!!
आओ बैठो, मैं अभी तुम्हारी हेल्प करता हूँ |
ये सुनकर मेरी जान में जान आई |
अब मैं और सागर आमने सामने थे और हम आँखों-आँखों में बात करने लगे |
क्या हुआ? मेरी आँखों ने पूछा |
परेशान सा हूँ बहुत, उसकी आँखों ने जवाब दिया |
तो फिर बताओ ना!!
हम्म्म्म्म..........
नैना के सवाल हल हो गए थे और साथ ही मेरी परेशानी भी |
जाते वक़्त सागर ने सबकी नजरें बचकर मुझे चिट्ठी दी थी जिसमें उसने अपने दिल का सब हाल बयां कर डाला था |
मैं बहुत ज्यादा बेताब थी उसकी दी हुई चिट्ठी को पढ़ने के लिए | भागकर, घर जाकर, उसे पढ़ डालना चाहती थी की आखिर क्या लिखा होगा सागर ने उसमें, पर जैसा हम सोचते हैं वैसा होता कहाँ है |
रास्ते में हमें शीला आंटी मिली |
उनके हाथ में सब्जी का थैला था जिसे मुझे थमाते हुए उन्होंने कहा, अच्छा हुआ दिव्या!! जो तू यही मिल गई मुझे | चल, फटाफट घर चल |
क्यों? क्या हुआ आंटी?
अब सारे सवाल यहीं पूछेगी क्या |

दरअसल शीला आंटी के यहाँ कुछ मेहमान आने वाले थे | मेहमान क्या, लड़के वाले आने वाले थे मानसी दीदी को देखने |
मानसी दीदी बीए फाइनल का एग्जाम दे रही थी इस साल | वैसे वो अभी शादी नहीं करना चाहती थी | उन्हें नौकरी करने की इच्छा थी पर लड़का सेटल्ड था | सरकारी नौकरी थी | फॅमिली में मम्मी, पापा और एक बहिन, बस यही थे |

शीला आंटी बहुत खुश नजर आ रही थी की चलो पहली ही बार में मानसी के लिए एक अच्छा रिश्ता मिल गया | नहीं तो सालों लग जाते है अच्छा रिश्ता ढूंढने में |
उन्होंने मुझे मानसी दीदी की ड्रेस को मम्मी से तैयार करवाने को लेकर बुलाया था |
सागर की चिट्ठी मेरे हाथ में ही थी |
देख दिव्या! अच्छा है ना! मानसी का सलवार कमीज!
मैंने हामी भरी.......
मैंने देख सकती थी, मानसी दीदी के चेहरे पर जरा भी ख़ुशी नहीं थी | वो सिर्फ जबरदस्ती मुस्कुरा रही थी |
उस समय अधिकतर परिवार की लड़कियों की शादी उनसे बिना पूछे ही हो जाती थी, जबकि आज जमाना बिलकुल बदल चुका है | अब लड़कियाँ अपने फैसले खुद ले सकती है | हालाँकि अभी भी कहीं ना कहीं ये सोच अब भी मौजूद है पर उस वक़्त की तरह नहीं |
मानसी दीदी उसी सोच के कारण घुट रही थी |

इसकी फिटिंग थोड़ी सी और करानी है दिव्या | तू फ़ौरन अपनी मम्मी के पास इस सूट को ले जा और तैयार करवाकर ले आ |
शीला आंटी के ये कहते ही मेरी जान में जान आई | चलो अब घर पहुंचकर इत्मीनान से सागर की चिट्ठी पढ़ सकूँगी |