दशहरे और दीपावली से से मुझे लगाव है। इस पर्व से मेरे बचपन की यादें जुडी हैं। मन को ताजा रखने के लिए हमेशा याद करता हूँ। इन यादों में मुझे सबसे ज्यादा याद मुझे फूल तोड़ने का आता है। दूसरों के घरों से रात के समय में फूल तोड़ने का अलग ही आनंद है। दीपावली के समय बहनें घडकोल बनाती थी। बहनों के घडकोल को तोडना बहुत ही पसंद था। बहनें गुड़ियों को बनाकर उसकी शादी करवाती थी। मेहमानों को आमंत्रित करती थी। इस कार्य को मेरी माताजी भी बहुत सलीक़े से करती थी। घर के सभी पुराने लेकिन साफ़ कपडे गुडिया बनाने में ख़त्म हो जाते थे। ध्यान केवल घडकोल को तोड़ने के ऊपर रहता था। येन-केन-प्रकारेण झगडा कर घडकोल तोड़ना ही मुख्य उद्देश्य रहता था। कह सकते हैं कि तोड़ने का प्रबंधन सीखने की ललक रहती थी। तोड़ने से भी कुछ न कुछ सबक मिलता ही था। परिवार के सभी बड़ों से प्रबंधन के कुछ सबक भी मिलते थे। नवरात्रि से कुछ दिन पहले पूरे घर की साफ-सफाई की जाती थी। नवरात्रि की शुरुआत के बाद तो घर में उत्सव का माहौल बन जाता था। मैं उत्साह से नवरात्रि का इंतजार करता रहता था ताकि पुराने कपड़ों से निजात मिले। नए कपडे मिलने की ख़ुशी रहती थी। पुराने कपड़ों को त्यागने का उत्साह रहता था। जीवन-दर्शन भी बाद में समझ में आया। प्रकृति में भी पुराने को त्यागने की परंपरा रही है। शायद इसीलिए पतझड़ की कल्पना प्रकृति ने की। यह शरीर भी आत्मा के लिए पुराना हो जाता है तथा आत्मा नए शरीर की तलाश में रहती है। घडकोल वाली विरासत शायद इसीलिए हो कि परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते रहे। मैं कभी गुड़ियों से खेला नहीं था, लेकिन हर साल दीपावली में बनते जरुर देखता था। गुड़िया बनायी जाती थी। पुराने गुड़ियों को साफ किया जाता था। कभी-कभी दोबारा रंगी भी जाती थीं। वैसे देवोत्थान एकादशी में हर साल मेरी भूमिका शालिग्राम भगवान को गायब करने की होती थी। जो सुख-आनंद उस वक्त प्राप्त होता था, उसका शब्दों में वर्णन कठिन है। कुल मिलाकर यही समझ में आता है कि सभी साथ रहते थे। पर्व-त्योहारों में सभी एक साथ आते थे। अब यह परंपरा समाप्त होने के कगार पर है। जो हमारे पास है और जो दे सकते हैं- उसमें अब कंजूसी आ गयी है। भक्ति की परिभाषा बदल गयी है। खुद को समर्पित कर देने की बात अब नहीं रही। कोई भी काम प्रार्थना बन सकता है, अगर उसे समर्पण की पवित्रता के साथ किया जाए। भक्ति सिर्फ ऐसा गुण नहीं है, जिसे पूजास्थलों तक सीमित रखा जाए। हम जो भी करते हैं, हर उस कार्य में भक्ति है। जब 100% से भी ज्यादा दिल से काम किया जाए जो वह भक्ति कहलाती है। भक्ति से एकाग्रता, खुशी और प्रेम उत्पन्न होते हैं। थकान और भक्ति एक दूसरे से विपरीत हैं। त्योहारों के दौरान कभी थकान महसूस नहीं किया। परिवार में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं कि नवरात्रि का उत्सव बंद हो गया। यह नानी-दादी दोनों तरफ हुआ। अतः अब थकान होने लगती है। हो सकता है शायद उम्र का प्रभाव हो। बुढापा आ रहा है। लेकिन नवरात्रि की बात सुनते ही एक पूरा कालखंड जो कि कार्तिक पूर्णिमा तक बना रहता है – मन के सामने नाचने लगता है।