Aise the mere baauji - 1 in Hindi Moral Stories by Saroj Verma books and stories PDF | ऐसे थे मेरे बाऊजी - भाग(१)

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ऐसे थे मेरे बाऊजी - भाग(१)

वो कहते हैं ना कि माँ हमेशा चाहती है कि उसके बेटे का पेट भरा रहें लेकिन एक बाप हमेशा चाहता है कि उसके बेटे की थाली हमेशा भरी रहें,माँ की ममता और बाप की बापता में इतना ही फर्क होता है कि माँ की ममता की छाँव बच्चों को हमेशा शीतलता प्रदान करती है और बाप की कठोरता उसे धूप में जलना सिखाती है,जीवन से संघर्ष करना सिखाती है,
माँ का बच्चे के जीवन में एक अलग स्थान होता है,लेकिन पिता बच्चे की रीढ़ होता है,जो बच्चे को कभी भी झुकने नहीं देता,माँ को बच्चे का पहला गुरू कहा जाता है,लेकिन गुरू भी ईश्वर की ही उपासना करता है,तो पिता का अस्तित्व और योगदान उतना ही होता है बच्चे के जीवन में जितना कि माँ का....
ऐसे ही थे मेरे बाऊजी,व्यक्तित्व के धनी,उदारवादी और दयालु,जहाँ भी अन्याय होता देखते तो भिड़ जाते थे सबसे,बहुत अच्छे लठैत भी थे वें,उन्हें किसी का भय नहीं रहता था,वो बस डरते थे तो केवल दो लोंगों से पहले भगवान और दूसरे मेरे दादाजी।।
मेरे बाऊजी के भीतर,संयम ,धीरज ,अनुशासन, प्रेम और क्रोध कूटकूट कर भरा था,कभी कभी उनका साहस देखकर गाँववाले भी दंग रह जाते,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों मे उनके साथ जो हुआ,वो मुझे अंदर तक काट देता है,उसका दर्द मुझे आज भी होता है,एक टीस सी उठती है कि काश मेरे बाऊजी उस बात को माँ से छुपाकर ना रख पाते तो माँ उनसे कभी ना रूठतीं,हम में से कोई भी परिवार का सदस्य उनके साथ ना था जब उनके प्राण गए तो।।
क्या हुआ था मेरे बाऊजी के साथ? ये आगें पढ़ते हैं....
तो बहुत साल पहले की बात है चार लड़कियों के बाद ठाकुर अष्टभुजा सिंह की पत्नी चन्द्रकला ने एक बेटे को जन्म दिया,ठाकुर साहब फूले ना समाएं क्योंकि उनकी माँ और भावज हमेशा यही ताना मारती थी कि देखो तो चार चार बेटियाँ है,बेटा ना हुआ तो कौन तारेगा ?वंश की बेल कैसे बढ़ेगी?
अब अष्टभुजा सिंह की जिन्दगी में उसका तारनहार आ चुका था,जिसकी खुशी उन्होंने गाँव भर का भोज करवाकर मनाई,सारी रात ढ़ोल-तासें बजे,दान में रूपया पानी की तरह बहाया गया,किसी चीज की कोई कमी नहीं रखी गई,बच्चे का नाम करण हुआ और बच्चे का नाम उन्होंने दुर्गेशप्रताप सिंह रखा,चार बहनों में सबसे दुलारा भाई,उसकी देखभाल भी बहुत अच्छी तरह से हो रही थी।।
उसकी हर सुख-सुविधाओं का ख्याल रखा जाता ,बड़ी बहने उसे हाथों हाथ लिए रहतीं ,जो भी जिद करता तो उसे मिल जाती,समय के साथ वो भी बड़ा हो रहा था और उसकी शैतानियाँ भी,अब वो इतना बड़ा हो गया था कि लोंग कहने लगें कि स्कूल भेज दो तो शैतानियांँ थोड़ी कम हो जाएंगी और किया भी यही गया,बहने तो स्कूल ना गईं थीं लेकिन भाईं को स्कूल जाता देख उन्हें खुशी मिली,वे भाई से पूछा करतीं कि कैसा होता है स्कूल? मास्टर जी ज्यादा डाँटते तो नहीं है,तू वहाँ शैतानी तो नहीं करता।।
और फिर जहाँ दुर्गेश हो वहाँ शैतानी ना हो ,ऐसा कहीं हो सकता है भला,एक दिन मास्टर जी के डाँटने पर दुर्गेश ने वहीं पास में बड़ा सा पत्थर उठाया और मास्टर जी पर निशाना साध दिया,फिर क्या था मास्टर जी की खोपड़िया फूट गई खून बहने लगा,शिकायत अष्टभुजा सिंह तक भी पहुँची,उस दिन अष्टभुजा ने दुर्गेश की बहुत अच्छी तरह से आवभगत की,चन्द्रकला बीच में आकर अष्टभुजा सिंह का हाथ पकड़ते हुए बोली....
अब बस भी करो,लड़के की जान लेकर मानोगे क्या?
चारों बहनों का दुलारा भाई आज बाप से बहुत पिटा तो सभी बहुत रोएं,रात को जब दुर्गेश सो गया तो अष्टभुजा सिंह उसके सिराहने जा बैठे,उसका सिर सहलाते हुए बोले...
अपने बाप को माँफ कर दो बेटा,मैं नहीं चाहता कि तू मेरी तरह अनपढ़ रहें.....
और इतना कहते कहते अष्टभुजा की आँखों से दो आँसू टपककर दुर्गेश के गाल पर जा गिरे,
चन्द्रकला भी जाग रही थी,उसने अष्टबाहु को कहते हुए सुना तो चुप्पी साधे लेटी रही कि कहीं उसके पति को ये ना महसूस हो कि उसके पति का दिल कितना कमजोर है।।
वैसे भी पत्नी को तो आदत होती है पति के सामने कमजोर बने रहने की फिर वो चाहें कितनी भी मजबूत क्यों ना हो?
दिन बीते धीरे धीरे दुर्गेशप्रताप की बहनें ब्याहकर उससे दूर जाने लगीं,वो भी अब बड़ा हो चला था,अब गाँव से पाँच-छः किलोमीटर एक कस्बा था जहाँ के स्कूल में उसकी छठीं कक्षा में नाम लिखवा दिया गया था क्योंकि कक्षा पाँच के बाद गाँव के स्कूल में पढ़ाई की सुविधा नहीं थी क्योकि स्कूल केवल पाँचवीं तक ही था।।
अब तक दो बहनों का ब्याह हो चुका था,दो बची थीं,कुछ साल और बीते अब दुर्गेश बाहरवीं में पहुँच गया था और उसकी तीसरी बहन की भी तब तक शादी हो चुकी थी,लेकिन उसकी बहन शशी अपने ससुराल में खुश नहीं थी,आए दिन उसका पति उसके साथ मारपीट करता,वो दूसरी औरतों के पास जाता था और शशी जब उसका विरोध करती तो वो उसे मारता पीटता था।।
जब ये बात दुर्गेश को पता चला तो वो सीधा शशी के ससुराल पहुँचा और शशी से बोला....
जीजी! आज के बाद जीजा जी या तो सुधर जावेंगें या तो अपाहिज हो जावेंगे,पान और बैसाखी दोनों का इन्तजाम करके रखना,इतना कहकर दुर्गेशप्रताप चला गया लेकिन शशी के जी में दिनभर धुकधुकी लगी रही कि ना जाने क्या होने वाला है आज?
और शाम को जब शशी का पति लौटा अपने साले के संग हँसते मुस्कुराते हुए तो शशी की धड़कने और बढ़ गईं,लेकिन जीजा साले खूब हँस हँसकर बातें कर रहे थे,दोनों ने साथ बैठकर रात का खाना भी खाया,जब सुबह तड़के तड़के उठकर दुर्गेश घर लौटने को हुआ तो शशी ने पूछ ही लिया कि उसका पति सीधे रास्ते में कैसे आया?तब दुर्गेश बोला...
जीजी! अब सब ठीक हो गया है,अब तुम्हारी गृहस्थी में कभी आग ना लगेगी।।
ऐसा क्या किया रे तूने ? कि एक ही दिन में सुधर गए तेरे जीजा जी,शशी ने पूछा।।
जीजी! मैने जीजा जी के पैर पूजे हैं,पीठ थोड़े ही पूजी है,उसको तो तोड़ा जा सकता है ना और मैने वही किया,अब कभी ना हाथ उठाएगा तुझ पर देख लीजो फिर उसने शशी के पैर छुए और चल पड़ा अपने गाँव की ओर और सच में उस दिन के बाद शशी का पति बिल्कुल सुधर गया।।
इधर अष्टभुजा सिंह भी परेशान रहते थे शशी की बातें सुन सुनकर,जब उन्होंने दुर्गेश की बात सुनी तो उससे पूछा....
क्यों रे ! लाज ना आई ,जीजा पर हाथ उठाते हुए।।
जीजा सुधर गया कि नहीं,इसलिए तो कहता हूँ कि लातों की भूत बातों से नहीं मानते,दुर्गेशप्रताप बोला।।
दुर्गेश की बात सुनकर फिर अष्टभुजा सिंह कुछ भी ना बोल पाएं।।
एकाध साल और बीते अब दुर्गेशप्रताप की सबसे छोटी बहन कुसुम का रिश्ता भी तय हो गया और वो भी ब्याहकर ससुराल चली गई,दुर्गेशप्रताप अब बीं.ए. के अन्तिम वर्ष में था,गाँव में कजरी का मेला लगा,दुर्गेशप्रताप भी अपने मित्रों के संग मेला देखने गया।।
उसका मेला देखने में मन नहीं लग रहा था उसने दोस्तों का कहा कि तुम लोंग चले जाओ मैं तुम्हें यही टीले पर बैठा मिलूँगा,दूर्गेश के दोस्त आगें चले गए,तभी उसने देखा कि टीले पर एक सोलह-सत्रह साल की लड़की अपने घुटनों पर अपना चेहरा छुपाकर रो रही है।।
उसे देखकर दुर्गेशप्रताप ने पूछा....
क्या हुआ तुम्हें? क्यों रो रही हो?
उस लड़की ने अपना चेहरा ऊपर किया तो दुर्गेशप्रताप उसे देखता ही रह गया,एकदम पीली गोराई लिए हुए ,बड़ी बड़ी नीली आँखों वाली लड़की ने उसकी ओर देखा ,रोते रोते जिसकी आँखें और नाक बिल्कुल लाल हो चुकी थी,जब दुर्गेशप्रताप ने इतना पूछा तो वो फफक पड़ी और बोली....
मेरी माँ,मेरे बाऊजी और छोटा भाई भी मेला देखने आएं थे लेकिन अब वो मुझे नहीं मिल रहे हैं,मैं क्या करूँ ? मुझे भूख भी लगी है....
अच्छा तो ये बात है सिंघाड़पाव(एक तरह की बुंदेलखण्डी मिठाई,जो अब देखने को भी नहीं मिलती) खाओगी,तो मैं खरीदकर लाऊँ ,मेरे पास पैसे हैं,दुर्गेशप्रताप बोला...
इतना कह ही रहे हो तो ले लाओ,वो लड़की बोली।।
अपना नाम नहीं बताया तुमने क्या कहकर पुकारूँ तुम्हें? दुर्गेश ने पूछा..
प्रयागी....प्रयागी नाम है मेरा,वो बोली।।
अच्छा तो प्रयागी तुम यहाँ बैठो,मैं बस अभी आया,इतना कहकर दुर्गेश सिंघाड़पाव लेने चला गया,कुछ देर में लेकर आ भी गया और प्रयागी से बोला...
लो खा लो,इतना कहते ही प्रयागी खाने लगी और फिर उसने पूछा....
तुमने अभी तक अपना नाम नहीं बताया...
मेरा नाम दुर्गेश है,दुर्गेशप्रताप बोला।।
अच्छा नाम है और तुम अच्छे भी हो,लेकिन अब मुझे पानी भी पीना है,प्रयागी बोली।।
तो चलो ,उस कुएं तक चलना पड़ेगा,वहाँ पानी मिल जाएगा तुम्हें,दुर्गेशप्रताप बोला।।
और दोनों ने कुएंँ पर जाकर पानी पीकर प्यास बुझाई और टीले पर आर फिर से बातें करने लगें,दुर्गेशप्रताप को पहली ही मुलाकात में प्रयागी भा गई थी और वो उससे इसी तरह हमेशा बातें करते रहना चाहता था।।
कुछ ही देर में दुर्गेशप्रताप के दोस्त उसे ढूढ़ते हुए आ पहुँचे,उसे प्रयागी के साथ बातें करते देखा तो बोले....
हम और घूमने जा रहे हैं,तू अभी बैठ हम बस अभी आते हैं क्योंकि पहली बार दुर्गेशप्रताप ने किसी लड़की में रूचि दिखाई थी और वे सब नहीं चाहते थे कि उन दोनों की बातों में कोई भी खलल पड़े,इसलिए वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए।।
फिर कुछ ही देर में प्रयागी की माँ उसे ढूढ़ते हुए आ पहुँची और प्रयागी उनसे लिपटकर फूट फूटकर रो पड़ी,प्रयागी की माँ ने दुर्गेशप्रताप का शुक्रिया अदा किया और दोनों चलीं गईं,प्रयागी चली तो गई लेकिन दुर्गेशप्रताप का दिल अपने साथ ले गई।
अब दुर्गेशप्रताप के ख्यालों में हमेशा प्रयागी ही छाई रहती वो उसे चाहने लगा था,लेकिन उसके पास ना कोई पता और ना कोई ठिकाना था उसका कि जाकर मिल लेता,दुर्गेश की रातें बिना नींद आए कटने लगी,उसने प्रयागी को बहुत ढ़ूढ़ा लेकिन वो उसे कहीं ना मिली।।
फिर एक दिन अष्टभुजा सिंह ने खबर सुनाई की उन्होंने दुर्गेशप्रताप के लिए एक लड़की देख ली है और उस लड़की के घरवाले कल ही दु्र्गेश को देखने आ रहे हैं,अगर दुर्गेशप्रताप उन्हें पसंद आ जाता है तो जल्द ही दुर्गेश का ब्याह कर देगें।
ये सुनकर दुर्गेश को अच्छा नहीं लेकिन वो किससे क्या कहें कि उसके दिल मे तो प्रयागी बसी है,उसका पता ठिकाना मालूम होता तो भी घर पर बात करके देखता...
लेकिन दुर्गेशप्रताप मजबूर था और फिर वो कुछ भी नहीं कर सका और लड़की वाले उसे पसंद करके चले भी गए,उसका ब्याह भी तय हो गया.....
पहले शादी के कार्ड भी छपा करते थे,कभी छप भी जाते तो इतना महत्व नहीं होता था,न्यौते के रूप में किसी बड़े बुजुर्ग को भेजा जाता था ,हल्दी और चावल लेकर,उससे टीका किया जाता था जिसे निमंत्रण पहुँचाना हो,कार्ड की वजह इसे ही ज्यादा मान-सम्मान का प्रतीक माना जाता था कि घर तक आकर न्यौता दिया,वो भी टीका लगाकर, तो इस कार्य को करने के लिए दुर्गेश के फूफाजी को नियुक्त किया गया।।

क्रमशः....
सरोज वर्मा....