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साँझ होने लगी थी लेकिन मन वैसा ही बना हुआ था | मुक्ता ने प्रयासपूर्वक मुस्कुराने का सिलसिला ज़ारी रखा | वह उठकर जाने ही लगी थी कि सतपाल ने उसे प्रगाढ़ आलिंगन में ले लिया –
“अब चाय-वाय बनाने मत चल देना, बाहर ही चलेंगे | लालजी बता रहा था कि हमारे शहर में एक बहुत सुंदर रेस्तरां खुला है | ”
पत्नी को आलिंगन से मुक्त करके वे आगे बढ़ गए, अलमारी खोलकर उन्होंने नई साड़ी और मोतियों का सैट निकाला और मुस्कुराते हुए मुक्ता से पहनने का अनुरोध किया |
सतपाल मुक्ता को लेकर फिल्म देखने निकले | पूरी फिल्म में वे मुक्ता का शिथिल हाथ अपने हाथ में ऐसे पकड़े बैठे रहे जैसे किसी नवयुवती के साथ ‘डेट’पर आए हों | फिल्म के बाद रात का खाना भी खाया गया परंतु किसी निर्जीव शरीर के साथ वे लटके-लटके घूम रहे थे | मुक्ता को स्वतंत्रता रास नहीं आई थी| अब वे खीजने लगे थे | घर आकर वे भी गुमसुम हो उठे और कपड़े बदलने चले गए |
सोचा ---अगले दिन मुक्ता के पास समिधा और मुक्ता आने वाली हैं, उन्हें देखकर मुक्ता अवश्य खिल जाएगी | विवाह वाला दिन इतना रूठा हुआ गुज़रा है –चलो, कल मुक्ता अवश्य खिलखिलाएगी | सतपाल ने अपने मन को ढाढ़स देने का प्रयत्न किया, अब वे भीतर से टूटते से जा रहे थे| उन्हें अपने किए सब प्रयत्न व्यर्थ लगने लगे | बाहर आकर उन्होंने देखा मुक्ता अभी उसी स्थान पर बैठी थी, उसकी आँखें खिड़की से बाहर दूर न जाने क्या तलाश कर रही थीं |
इधर से फ़ोन किया जाता कि उधर से फ़ोन की घंटी टनटना उठी |
क्षीण आवाज़ थी –
“दीदी ! मुक्ता –“जेलर सतपाल वर्मा फ़ोन पर फूट पड़े थे |
समिधा के हाथ से फ़ोन का रिसीवर छूटकर नीचे गिर गया मानो उसके शरीर का रक्त किसी ने निचोड़ लिया हो | सारांश ने हड़बड़ाकर फ़ोन उठाया, उधर से केवल चीत्कार सुनाई दे रही थी | सतपाल की चीख़ ने अबोले ही स्थिति का भयावह चित्र आँखों में उतार दिया था | उन्होंने फ़ोन का रिसीवर उसके स्थान पर जमा दिया | आख़िर एक आदमी अपने जीवन में कितना दर्द झेल सकता है ? संवेदनाओं के टुकड़े चूर-चूर होकर समिधा के सामने बिखर गए | कैसा जीवन ? कैसा लगाव ? कैसा प्यार ? उसे जीवन अचानक ही अर्थहीन, स्वादहीन बदरंग लगने लगा | इतने कड़वे सच का सामना करते-करते उसके आँसू सूख गए थे | एक अनजानी पीर हृदय में नश्तर चुभो रही थी | मुक्ता को मुक्ति की चाह थी, वह मुक्त हो गई थी |
जीवन के अदृश्य पटल पर भविष्य का लेखन लिखने वाला क्या उसीके अथवा उसके परिवार के साथ, मित्रों के साथ, यह खेल खेल रहा था! वह अनमनी हो चुकी थी, सारांश भी अचंभित से उसकी मनोदश को आँकने का प्रयत्न कर रहे थे|
कुछ मिनटों में फ़ोन की घंटी टनटनाई, समिधा गुमसुम सी हो गई थी | पुण्या का फ़ोन था, सारांश ने बात की | जीवन की क्षण-भृंगुरता का समाधान किसीके पास नहीं है | उधर से पुण्या के चौंकने की, फिर बिसुरने की कमज़ोर आवाज़ सुनाई दी, फ़ोन बंद हो गया था |
रात काफ़ी हो चुकी थी, सारांश ने दो-एक बार पत्नी को दिलासा देने का प्रयत्न किया | लगा, बचकाना प्रयास भर है | वे चुप हो गए | जीवन की क्रूर वास्तविकता को झेलना सरल नहीं है, सान्याल कहा करते थे –
“लेकिन उसे सरल बनाना है, तभी आपको मनुष्य कहलाने का अधिकार है | ”
न जाने कैसे सान्याल ने अपने हिस्से की पीड़ाएँ झेली होंगी, वह तो झाबुआ जाकर वहाँ की पीड़ाओं का गट्ठर समेट लाई थी जो आज इतने वर्षों बाद भी उसके समक्ष चलचित्र की भाँति कभी भी आकर खुल जाता था, बोझ उसके सिर पर आज भी उतना ही भारी था | धूल भरे रास्तों की पगडंडियों को पार करते हुए वह पूरी रात भर करवटें बदलती रही | सुबह शायद कुछ नींद के झौंके आए होंगे उनमें वह कभी झाबुआ, कभी अलीराजपुर, कभी कामना तो कभी रौनक की तस्वीरें अपनी आँखों में भरे रही, उसे रैम की स्मृति हो आई –कहाँ होंगे ये सब ?
मुक्ता तो उसके दिल में भटक रही थी | सान्याल उसे उपदेश देने में व्यस्त थे, इंदु माँ का आँचल उसे अपने स्नेहमय आगोश में लेने को तत्पर था | डॉ. विलास चंद्र उसके सिर पर शुभाशीष बरसा रहे थे, कहाँ गए थे ये लोग ? आँखों से ओझल होने पर रहना, न रहना क्या सब एक बराबर नहीं है ? इनमें से अब कितने होंगे?
क्या बीबी के घर में उनकी आवाज़ गूँज रही होगी ? समिधा की बोझिल आँखों में माँ के साथ बिताए गलियारों की धूल भरने लगी थी| मन का मौसम बहारों से अचानक पतझड़ में परिवर्तित हो गया था | अनमना पतझड़ इसी प्रकार ‘मैरी गो राउंड‘ सा घूमता ही रहेगा ? अभी वह देख रही है, फिर कोई और देखेगा, और कोई महसूस करेगा | जीवन को अर्थ देने वाले उसके समस्त व्याकरण त्रुटिपूर्ण सिद्ध हो रहे थे | उसके नाम के अनुसार समिधा का जीवन एक ‘होम’ था परंतु इस धरा पर जन्मे प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में आहुति देनी ही है | इसमें कोई संशय नहीं है | वह अलग बात है कि कौन चूल्हे की आग में सुलगता है और कौन होम में परिवर्तित हो पाता है |
सुबह होते ही पुण्या भागी-भागी आई थी और समिधा के गले चिपटकर फूट-फूटकर रोने लगी थी | बार-बार टूटकर जुड़ने की अभ्यस्त समिधा बहरी-गूँगी हो गई थी | क्या उसका यह ‘सैचुरेशन प्वाइंट’ था ? सारांश व बच्चे उसे देखकर सहम से गए थे | कई दिन इसी प्रकार अनमनी सी हो समिधा पूरे घर में भटकती रही | सुमित्रा के बहुत चिरौरी करने पर उसने थोड़ा-बहुत पेट में डाल लिया पर –भूख कहाँ थी?
“चलोगी क्या सतपाल जी से मिलने ?”सारांश ने पूछा |
समिधा ने ‘नहीं‘ में सिर हिला दिया |
“हो क्या गया है समिधा ? जीवन है प्रत्येक का, भिन्न-भिन्न पात्र!सबको अपने हिस्से के सुख-दुख झेलने हैं, फिर इतनी हताशा?” वे सान्याल की भाषा बोल रहे थे |
कुछ देर समिधा चुप रही फिर सुमित्रा से बोली ;
“एक कप कॉफ़ी बना दीजिए –“सारांश ने एक लंबी, आश्वस्त साँस ली । कुछ बोली तो सही !
सुमित्रा दो प्याले कॉफ़ी बना लाई थी, सारांश ने ट्रे से उठाकर उसकी ओर एक प्याला बढ़ाया |
“सारांश ! पुराने दिनों में झांकना है, बीबी का घर देखने का मन हो रहा है | ”
“वहाँ जाकर क्या करोगी? कौन है वहाँ ?”
“स्मृतियाँ—सारांश---स्मृतियाँ ---“वह काफ़ी संयमित और सामान्य लग रही थी |
“सारांश ! मैं बिल्कुल ठीक हूँ, बिल्कुल स्वस्थ ! बस, एक बार वहाँ जाने की इच्छा हो रही है | पापा भी अब बहुत दिनों से नहीं आए हैं, मन किया तो हरिद्वार का एक चक्कर भी काट लूँगी | ”
“किसके साथ जाओगी?” सारांश अब भी बहुत व्यस्त थे परंतु उन्होंने इस बात का ध्यान हमेशा रखा था कि वह उसकी माँ के जैसे अकेली न रह जाए | वह अकेलापन कचोट देने वाला होता है, सारांश भुक्त-भोगी थे|
“मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ सारांश, समझती हूँ प्रत्येक जीव का जीवन, कार्य, सब कुछ ही तो व्यवस्थित है | मन उखड़ सा रहा है, बस—एक बार हो आऊँ !”
“अकेली जाओगी ? जानती हो अभी मेरी व्यस्तताएँ ---“सारांश उसके लिए चिंतित था |
“उन रास्तों पर अकेली ही तो चली हूँ –बच्ची तो नहीं हूँ, समझती हूँ अपनी परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी !”
अगले दिन सारांश ने दिल्ली की उड़ान का टिकट उसके हाथ में लाकर पकड़ा दिया | दिल्ली से उसे बसों में न भटककर टैक्सी से जाना होगा, वायदा लेकर सारांश ने उसके लौटने का भी एक दिन बाद का टिकिट उसके हाथ में पकड़ा दिया था|
“थोड़ा काम हल्का होने दो, साथ में चलेंगे न पापा से मिलने –“सारांश ने उसे हरिद्वार जाने से रोक लिया था |