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आज सतपाल वर्मा ने पत्नी का हाथ पकड़कर उसे खुले आसमान के नीचे घर के सहन में लाकर खड़ा कर दिया था | अपने सारे जीवन चारदीवारी में कैद रही मुक्ता एक अजीब सी मनोदशा में थी | पति को स्नेहमयी दृष्टि से निहारते हुए वह चारों ओर के वातावरण को लंबी-लंबी साँसें खींचकर अपने भीतर उतारने का प्रयास करने लगी | साफ़-सुथरा वातावरण, फल-फूल, बेलों से सज्जित बँगले से बाहर का छोटा सा किंतु सुंदर बगीचा ! पवन के नाज़ुक झौंकोरों के साथ बड़ी नज़ाकत से हिलते-डुलते पुष्प गुच्छ और पत्ते, लहलहाती कोमल टहनियाँ, इतराती पेड़ों से लिपटी बेलें और ऊपर की ओर बढ़ने को व्याकुल इठलाते विभिन्न प्रकार के वृक्ष !---और इस खूबसूरत माहौल में प्रियतम का स्निग्ध साथ !सब कुछ इतना एक साथ कि मुक्ता को अपनी आँखों पर, अपने पति पर और तो और अपने भाग्य के इस बदलाव पर विश्वास नहीं हुआ |
एक आनमनी सी, एक अजीब सी स्थिति में वह उसी स्थान पर चारों ओर अपनी दृष्टि घुमाती खड़ी रह गई | उलझी हुई मुक्ता का अनाड़ी मन यह समझ पाने में असमर्थ था कि इस पल में कैसे ‘रिएक्ट’करे ? न मुख-मुद्रा में कोई विशेष परिवर्तन, न पति के प्रति कोई विशेष स्नेह-प्रेम, धन्यवाद का भाव –उसके चेहरे से कुछ भी तो प्रदर्शित नहीं हो रहा था | ऐसे ही घर की कल्पना तो किया करती थी वह –फिर क्यों उसके मन में कोई विशेष राग उत्पन्न नहीं हो रहा था | क्यों बेजुबान सी हो फटी-फटी आँखों से उस छोटे से प्यारे स्वप्न को साकार देखकर भी वह अर्धविक्षिप्त की भाँति ताक रही थी ?सतपाल को पत्नी का इस प्रकार चुप्पी लगा जाना कुछ अजीब सा लगा, उसने मुक्ता का हाथ पकड़कर कहा –
“बँगले को चारों ओर से तो देखो और बताओ तुम्हारी कल्पना साकार कर पाया हूँ या नहीं ?”
मुक्ता और भी असहज हो उठी, उसने पति पर एक अजनबी सी दृष्टि फेंकी | क्या ये वही सतपाल हैं जिन्होंने कभी पत्नी की परवाह ही नहीं की ?अपने जीवन का पूरा युवा-काल उसने मानसिक तनाव की कैद में काटा था | बुरा लग रहा था उसे पति के उत्साह पर पानी फेर देना । कोई प्रतिक्रिया न दे पाना लेकिन क्या करती ? कई बार विवशता मनुष्य को असहाय बना देती है कि वह चाहकर भी कुछ नहीं प्रतिक्रिया नहीं दे पाता | उसने प्रयास किया अपने चेहरे पर प्रसन्नता ओढ़ने का | गुमसुम सी चुप बनी रहकर वह पति के साथ पूरे बँगले का चक्कर लगा आई | कुछ देर बाद दोनों ‘सिटिंग-रूम’को लाँघते हुए अपने कमरे में चले आए |
उसके कमरे में कहीं कोई कमी नहीं थी, आवश्यकता की सभी वस्तुएँ उसके बैड-रूम में बहुत करिने से लगा दी गईं थीं | सतपाल की कुछ अजीब सी मनोदशा थी| उसे यह बात कचोट रही थी कि इतने प्र्यत्न से पत्नी के सँजोए स्वप्न को सजा-धजाकर परोसने पर भी वह उसके मुख पर मुस्कान नहीं देख पा रहा था जिसकी कल्पना उसने बँगला बनवाते हुए की थी ?
मुक्ता पति की प्रशंसा करना चाहती थी पर उसके न तो मुख से शब्द निकल रहे थे और न ही चेहरे पर कोई प्रसन्नता का भाव प्रदर्शित हो रहा था | न जाने उसके मन के भीतर क्या चल रहा था जिसे वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी | उसे लग रहा था मानो वह एक क़ैदी थी और लंबे अर्से के बाद जेल से छूटकर बाहर आने पर अपने रहने का स्थान निश्चित करने की जद्दोजहद में जूझ रही थी |
सतपाल ने कोमलता से पत्नी का हाथ दबाया |
“कैसा लगा –तुम्हारे सपनों का महल ?” उस छोटे से सुंदर बँगले को एक महाराजा की दृष्टि से देखते हुए उन्होंने कुछ ऐसे पूछा जैसे पत्नी के समक्ष एक नया ताजमहल खड़ा कर दिया हो |
उसने गर्दन हिलाकर पति को आश्वस्त करने का बेकार सा प्रयत्न किया पर पत्नी की मुद्रा ---‘हाँ, ठीक ही है‘जैसा कुछ कहती सी लगी और वे मन ही मन मुरझा से गए, कुछ भ्रमित से, उदास से हो उठे |
‘क्या मुक्ता को उनका यह सारा प्रयास व्यर्थ ही लगा था ?’उन्होंने सोचा |
तीन वर्षों के लंबे अंतराल में वे मुक्ता तथा अपने परिवार से जुड़े इस स्वप्न को पूरा करने में जुटे हुए थे | वास्तव में वे अपनी नौकरी और इस बँगले के बीच झूलते रहे थे | बार-बार काम से छुट्टी पर इधर आ जाना, मुक्ता को उसके भाई के घर छोड़कर इस घर के निर्माण में लगे रहना | उनके पास इतना धन तो कभी था ही नहीं, न ही जमा होने के कोई आसार थे कि वे बिनकुछ कोताही किए खुले हाथों से धन खर्च कर पाते |
ऊपर से बच्चों के लिए उनके सपने इतने ऊँचे थे कि यदि पिता के द्वारा दी गई ज़मीन वे न बेचते तो न उनके बच्चे अपने मन माफ़िक शिक्षा प्राप्त कर सकते, न ही उनके बँगले का यह स्वप्न साकार हो पाता | नौकरी के पैसों से कुछ अधिक होना तो संभव ही नहीं था पर परिवार तो पालना ही था इसीलिए नौकरी की कठिनाइयों के उपरांत भी कितने पापड़ बेले थे उन्होंने ! सोचा था, अवकाश के बाद पत्नी को यह बँगला गिफ़्ट में देंगे जो विवाह के पश्चात से ही एक स्वतंत्र मस्त पक्षी की भाँति पंखों पर उड़ने के सपनों में डूबती-उतरती रही है | वे भली प्रकार जानते-समझते थे कि मुक्ता उसके साथ रहते हुए सदैव एक बेचैनी भरी छटपटाहट में जूझती रही है| उसके लिए इस खुले वातावरण में रहना किसी कोमल स्वप्न से कम न था |
कुछ देर बाद दोनों बँगले के बरामदे में पड़े हुए बेंत के सोफ़े पर बैठ गए | मुक्ता पहले की अपेक्षा अब शांत थी और शायद वे भी बात करने के लिए कुछ शब्द ढूँढ रहे थे | वैसे पच्चीस वर्ष के लंबे वैवाहिक जीवन को ओढ़ने-बिछाने के बाद कहाँ पति –पत्नी के पास बात करने का अकाल होता है ? शब्द तो बिना निमंत्रण के ही बिन बुलाए मेहमान की भाँति मुख-द्वार से झरने लगते हैं | उन्हें तो द्वार पर लगी घण्टी बजाने की या दरवाज़ा ‘नॉक’करने की भी आवश्यकता नहीं होती | परंतु यहाँ स्थिति असमान्य सी थी, शब्द-रूपी मेहमानों को वे दोनों ही ढूँढ-ढूँढकर लाने की चेष्टा कर रहे थे पर शब्द थे कि न जाने किस कोने में जाकर दुबककर बैठ गए थे |
उम्र के इस दौर में बच्चे भी तो उनके पास नहीं थे जो दोनों के बीच माध्यम बनते | वे बहुत बीमार सा महसूस करने लगे | बीस वर्षों तक कैदखाने की सीलन में रहकर मुक्ता तो क्या वे भी थक चुके थे और उन्होंने समय से पूर्व ही निवृत्ति के लिए आवेदन कर दिया था जो सौभाग्यवश उन्हें मिल गई थी | अत: वे प्रसन्न थे लेकिन यह भी सच था कि पत्नी के इस चुप्पी भरे आक्रमण को झेलने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे |
‘कितना अच्छा होता यदि बच्चे आज के दिन उनके पास होते ‘उन्होंने लंबी साँस भरते हुए सोचा ---‘का—श !’
सुबह –सवेरे ही साध्वी तथा सात्विक का फ़ोन आ गया था उन्हें ‘विश’ करने के लिए !पिछले साल जब वे अपनी नौकरी पर ही थे तभी बच्चों ने कहा था कि वे अपने माता-पिता कि पच्चीसवीं सालगिरह बहुत धूमधाम से मनाना चाहते हैं | उन्होंने ही मन कर दिया था |
उन्होंने बच्चों से कहा था –
“अरे ! भई ! हमें अकेले ही एंजॉय करने दो और जब तुम दोनों यहाँ पर होंगे तभी एक बड़ी सी पार्टी देंगे | अभी बस –हम दोनों ही ---| ”साध्वी का तीन महीने का साउथ अफ्रीका का टूर था और सात्विक अहमदाबाद में एम.बी.ए की पढाई कर रहा था | वह भी समिधा के पास आता रहता था, एक प्रकार से घर का बच्चा ही बन गया था वह !
मुक्ता के बच्चे इस तथ्य से वाकिफ़ थे कि उनके पापा उनके भविष्य के लिए सदा से सचेत रहे हैं | स्वाभाविक भी था, वे अनेक कठिन परिस्थितियों में रहकर भी अपने बच्चों के भविष्य के प्रति हर पल सचेत रहे थे | उन्होंने दोनों को अपनी सीमा से अधिक धन लगाकर उनकी इच्छानुसार पढ़ाया, लिखाया | आज जिस मोड़ पर उनके बच्चे खड़े हैं उसके लिए पति-पत्नी ने कई वर्षों तक बहुत सी ऐसी मानसिक तथा शारीरिक यातनाओं को सहा था जो कल्पना में भी कंपकंपा देने वाली थीं | थक चुके थे सतपाल !कई बार अपने स्थानांतरण के लिए प्रयास करके वे चुप बैठ गए थे फिर उसी स्थान पर काम संभालते रहे थे जहाँ उनकी नियुक्ति हुई थी | अब बच्चों की सफ़लता देखकर उन्हें लगता मानो उनके पंख निकाल आए हैं, बहुत हल्का महसूस करने लगे थे वे अपने आपको !अब वे अपनी पत्नी मुक्ता के साथ उन्मुक्त रहना चाहते थे |
बरामदे में बैठे हुए उनका मन किसी बिगड़ैल पवन की भाँति अठखेलियाँ सी करने लगा| बँगले के बाहर का पलाश कैसा महक उठा था ! बिलकुल उनके मन की भाँति ! उनका मन इस समय पलाश की झूमती टहनियों के साथ झूमने के लिए मचलने लगा था पर पत्नी का यह गुमसुम, चुप्पी भरा व्यवहार उन्हें कचोट रहा था जैसे कोई उनका मन खुरच रहा हो| कई वर्षों से वे अपने जिस दिन की तैयारी में मशगूल थे उसका इतना अनुत्साहित परिणाम देखकर वे स्वयं उत्साह विहीन हुए जा रहे थे |
आज उन्होंने मुक्ता का स्वप्न उपहार में देना था, आज उन्हें मुक्ता के साथ किसी बढ़िया होटल में भोजन करना था, किसी बड़े ‘शो-रूम’ से पत्नी के लिए उसकी पसंद की एक सुंदर सी साड़ी और एक हल्का-फुल्का ज़ेवर खरीदना था | बेशक लोगों की नज़र में यह उम्र इस प्रकार के चोंचले करने की न हो पर वैवाहिक जीवन के इस पच्चीसवें वर्ष में वो सब कुछ जी खोलकर करना चाहते थे जो वे अभी तक नहीं कर पाए थे |
और तो और उन्होंने कभी मुक्ता को इस बात के लिए अवगत तक नहीं करवाया था कि वे उसके लिए कुछ करना चाहते हैं | वे भी चाहते हैं कि उनकी पत्नी भी सामान्य स्त्रियों की तरह जीवन के आनंद की अनुभूति कर सके ! उन्होंने मुक्ता से कुछ कहने के लिए चेहरा घुमाया ।मुक्ता वहाँ थी ही नहीं, न जाने कब वहाँ से उठकर जा चुकी थी |
“कहाँ गई होगी? “वे फुसफुसाते हुए अंदर की ओर गए | रसोईघर से कुछ आवाज़ आ रही थी |
“ओफ़्फ़ो –क्या कर रही हो –“ कहते हुए वे किचन में घुसे |
“क्या कर रही हो --? कोई उत्तर न पाकर अपना प्रश्न दुबारा परोसा उन्होंने |
“सोचा, थोड़ी चाय ही बना लूँ ---“ समिधा ने शांत।सहज स्वर में उत्तर दिया |
“निकलो बाहर और खुले में साँस लो ---अरे ! आज का दिन तो एंजॉय कर लो, बहुत घुटन में जी लिए !बस –अब इस उन्मुक्त हवा में साँस लेंगे, घूमेंगे –और आज का दिन ! वह तो यादगार बन जाना चाहिए, केवल हम दोनों का दिन –और कोई बंधन नहीं --“पत्नी के गले में अपनी बाहों का हार पहनाते हुए वे भाववेश में एक निश्छल बच्चे की भाँति चहकने लगे| लेकिन मुक्ता को उनका यह व्यवहार अजीब लग रहा था | जीवन के पच्चीस वैवाहिक वर्षों में मुहब्बत से कभी उसका हाथ भी न पकड़ने वाले अपने पति का वह रूप उसे कुछ अजीब लग रहा था |
“ठीक है, चाय तो पी लीजिए –“मुक्ता ने उनके उत्साह का ‘लेवल डाउन’ करने के लिए उन्हें बाध्य कर दिया |
उन्होंने धीरे से उनकी बाहों की माला उतारकर अलमारी में से दो प्याले निकाले और सामने रखे हुए डिब्बे में से कुछ स्नेक्स निकालकर ट्रे में रख लिए |
“ठीक है, तुम मुझे दो | ”कहते हुए उन्होंने मुक्ता के हाथ से ट्रे ले ली और बरामदे में आकार मेज़ पर रख दी |
चाय पीते हुए उनका मस्तिष्क पत्नी को लेकर कहाँ-कहाँ घूमा जाए ? इसका खाका तैयार करने में व्यस्त था |
“पीं-पीं’” की आवाज़ से दोनों का ध्यान बाहर की ओर गया | लाल जी नाश्ता करके गेट पर गाड़ी ले आया था | उन्होंने वहीं से हाथ उठाकर जता दिया कि वे उसके वापिस लौटने से वाकिफ़ हैं |
“चलो, जल्दी तैयार हो जाओ फिर चलते हैं, कुछ शॉपिंग हो जाए | दोपहर को किसी अच्छी जगह खाना खाएँगे फिर घर आकर आराम करेंगे, शाम को पिक्चर देखेंगे और रात को फिर बाहर डिनर ---अच्छा रहेगा न ?”उन्हें लगा अगर पत्नी भी उसके बनाए हुए कार्यक्रम पर मुहर लगा दे तभी वास्तविक आनंद आएगा |
“इतनी रात को घर लौटेंगे --?”मुक्ता का स्वर सहमा सा था |
“हाँ, तो क्या हुआ --?”
“आप तो हमें कभी इतनी रात को ले नहीं जाते –फिर ?”
“तुम कहाँ हो अब ?ज़रा महसूस तो करो इस स्थान को, इस वातावरण को, अपनी स्वतंत्रता को !” सतपाल ने पत्नी के कंधे पर प्यार से हाथ रखा | वे अच्छी प्रकार जानते थे मुक्ता उलझनों के गुबार में अटकी हुई है |
सतपाल मुक्ता को घर से बाहर ले गए, एक अच्छे होटल में खाना खिलाया फिर उन्होंने मुक्ता के लिए पीली खुशनुमा रंग की साड़ी खरीदी जिस पर सफ़ेद रंग की सुंदर कढ़ाई की गई थी और जौहरी की दुकान से उसके ऊपर खिलने वाला एक सुंदर सच्चे मोतियों का का सैट खरीदा |
कितनी सुंदर लगेगी मुक्ता !उनके मुख पर समिधा को उस परिधान तथा ज़ेवर में देखने की ललक जागी | एक नवयुवक की भाँति भोली सी मुस्कान ने उनके चेहरे पर गुनगुनी धूप का सा कोमल अहसास जागा दिया | घर आकर दोनों शांत मन से लेट गए लेकिन कौन जानता था कि सतपाल तथा मुक्ता के मन में किस प्रकार की अशांत लहरें उद्वेलित हो रही थीं |