Nainam chhindati shstrani - 67 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 67

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 67

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जब समिधा के पिता इलाहाबाद गए थे तब से ही प्रोफ़ेसर पति-पत्नी की आकस्मिक दुर्घटना को देखकर उनका हृदय विक्षिप्त हो उठा था | प्रोफ़ेसर व इंदु के पार्थिव शरीरों को देखकर वे जड़ हो गए थे | उन्हें सूद परिवार का बहुत सहारा था, यह परिवार प्रत्येक मोड़ पर उनके साथ खड़ा था और हमेशा एक पड़ौसी का धर्म बखूबी निभाता रहा था | उन्होंने हर समय उनका ध्यान रखा था, यहाँ तक कि विलास व इंदु की मृत्यु के समय भी सूद साहब उनके साथ इलाहाबाद गए थे | 

इलाहाबाद से आकर वे काफ़ी बेचैनी में रहने लगे | अहमदाबाद आते, बच्चों को देखकर प्रसन्न होते परंतु उनका जीवन से लोभ लुप्त होता जा रहा था | जीवन-यात्रा के इस चक्कर से उनका विश्वास कमज़ोर पड़ गया था | उन्हें इस बात का भी बहुत पछतावा था कि सारांश के माता-पिता से मिलने उस समय इलाहाबाद क्यों नहीं गए थे जबकि उसने इतनी मनुहार करके उन्हें अपने साथ इलाहाबाद चलने को कहा था | 

पत्नी की असमय मृत्यु का दुख उन्हें कभी-भी पीड़ा देने लगता | जीवन की इस रंगभूमि पर उन्होंने कितने ऐसे चरित्रों की भूमिका निबाही थी जिनकी दुखद स्मृतियाँ झेलना उनके लिए कष्टप्रद बन गईं थीं | वास्तव में वे इतने टूट चुके थे कि उन्होंने सांसारिक जीवन से सन्यास लेने का निश्चय कर लिया | इसके लिए वे अपने दफ़्तर से छुट्टी लेकर विभिन्न तीर्थ -स्थानों पर भटकते रहे | इस बार जब वे अहमदाबाद आए तब काफ़ी अनमने से थे | सारांश तथा समिधा ने उन्हें बहुत समझाया, बच्चों का मोह भी परोसा परंतु उनका मन संसार से उठा तो उठता ही चला गया | 

“पापा! अब तो आपको बच्चों के साथ आकर रहना चाहिए--” सारांश ने उन्हें बहुत समझाने , मनाने जी चेष्टा की | 

“बेटा ! अब मेरा मन उचाट हो गया है, मुझे अब मोह में मत डालो | जीवन की गति मुझे निरीह कर चुकी है | ”

“पापा ! आप ही तो कहते थे, यह संसार एक युद्ध क्षेत्र है | अब आप अपने इस युद्ध से पलायन क्यों करना चाहते हैं ?” सारांश को अपने बड़ों में केवल समिधा के पिता ही तो दिखाई देते थे | 

बहुत समझने पर भी उन्होंने हरिद्वार में आर्य समाज के आश्रम में एक कुटिया बनवा ही ली थी जिसमें वे अपनी इच्छानुसार जब चाहें तब रह सकते थे| वहाँ प्रात:कल से ही यज्ञ आदि प्रारंभ हो जाते थे | 

समिधा की समझ से बाहर था कि एक ऐसा इंसान जो अपने जीवन भर मंदिरों, आश्रमों से दूर भागता रहा हो, वह इस प्रकार कैसे किसी आश्रम में जाकर रह सकता था ? इंसान की मूल प्र्कृति में किन घटनाओं के फलस्वरूप परिवर्तन आ जाता है, कभी स्वयं उसे भी इसका पता नहीं चलता | समय ऐसा चक्र है जो मनुष्य से जो न करवा ले, वह कम है | समय अपने अनुसार घूमता ही रहता है | 

जीवन व मृत्यु के बीच का समय कितना नाज़ुक है ! कितना कोमल ! कितना कठिन ! कितना सहनीय व कितना असहनीय ! यह प्रत्येक मनुष्य की सोच, उसका वातावरण, उसके व्यवहार के ऊपर आधारित होता है | कोई अपनी ज़िंदगी को शत-प्रतिशत देता है और कम समय में श्रेष्ठ जीवन जीकर चला जाता है | कोई हर पल असंतुष्ट ही बना रहता है और सब कुछ प्राप्त करके भी झीखते हुए ज़िंदगी से प्रयाण करता है | प्रश्न यह उठता है कि जीवन के रंगमंच पर एक भिन्न चरित्र प्रदान किया गया है जो उसे निभाना है | क्या यह बेहतर नहीं है कि वो अपना पात्र मुस्कुराते हुए निभाए? निभाना तो है ही, साँसें तो अपनी सबको पूरी करनी पड़ती हैं | इनसे छुटकारा पाने का प्रयास क्या पलायन नहीं है ?

न जाने सारांश को क्यों लगता था कि उसकी माँ पूरा जीवन एक भ्रम में जीती रही हैं ?पति के प्रेम के भ्रम में, एक इल्यूजन में ! लेकिन माँ थीं कि कभी उनकी सोच में उसने कोई परिवर्तन ही नहीं देखा था, जैसे कोई एक दिशा में, एक सीध में, एक सीधी लकीर खींचकर बस—चलता ही रहे | जब तक माँ रहीं, कुछ इसी प्रकार ही चलती रहीं माँ के पारदर्शी व्यक्तित्व के बारे में सारांश बहुदा समिधा से ज़िक्र कर बैठता| समिधा ने अपनी सास को जितना जाना था, उसके अनुसार वह उन्हें बहुत अच्छी प्रकार समझ गई थी | दोनों को ही लगता माँ कहीं गई नहीं हैं | 

वो उनके दिल में, उनके दिमाग में, उनसे जुड़ी प्रत्येक वस्तु पर छाई हुई हैं | जब भी उनको याद करो, अपना ममता भरा स्पर्श लेकर सहलाने आ जाती हैं | समिधा की अपनी माँ भी तो उससे कुछ इसी प्रकार जुड़ी हुई थीं | इंदु माँ के आ जाने से उसकी अपनी माँ का निरूपण भी उन्हीं में हो गया था और उसके समक्ष दो माँओं का सहज, सरल, ममतामय, स्नेहिल रूप गडमड हो उन्हें शुभाशीषों से भरता रहता | संभवत : जीवन की धरोहर ‘स्मृति’ बनकर मनुष्य के मनो-मस्तिष्क में कैद रह जाती हैं इसीलिए मनुष्य के भौतिक शरीर के प्रयाण के पश्चात भी वह जुड़ाव बना रहता है, वे स्मृतियाँ कौंधती रहती हैं, वह बंधन महसूस होता रहता है | 

सारांश व समिधा बच्चों के साथ बच्चों व परिवार में व्यस्त हो गए थे | सारांश के दफ़्तर की प्रगति के साथ ही बहादुर की कैंटीन की शोहरत भी खूब फैलने लगी | बहादुर तथा उसका बेटा दोनों ही श्रम से घबराने वाले व्यक्तियों में नहीं थे | जितना काम उन्हें दिया जाता पूरी लगन तथा ईमानदारी से करते | सारांश ने यहाँ अपने दफ़्तर के सात लोगों के साथ काम किया था। एक वर्ष में उसकी शाखा में पच्चीस लोग हो गए | 

उसकी कंपनी के नियमों में कर्मचारियों के लिए दोपहर के भोजन की व्यवस्था थी, इसीलिए बहादुर का आना सबके लिए बहुत अच्छा रहा| दीवान को वकालत में प्रवेश नहीं मिल सका किन्तु उसे एक स्वतंत्र संस्थान में ‘कंपनी सेक्रेटरी’ का कोर्स करने का अवसर प्राप्त हो गया | वह अध्ययन भी करता और पिता के साथ काम में हाथ भी बँटाता, आवश्यकता पड़ने पर गाड़ी भी चलाता | 

सुमित्रा ने समिधा का घर ऐसे संभाल लिया था जैसे वह इलाहाबाद में इंदु का संभालती थी | इंदु को सुमित्रा के रहते कभी घर की कोई चिंता नहीं हुई थी | वास्तव में बहादुर का परिवार उस घर के अंग ही बन चुके थे | समिधा के बच्चे बढ़ रहे थे, चंदा की उम्र भी !चंदा आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन बहादुर उसका विवाह करने के पक्ष में था |