Nainam chhindati shstrani - 65 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 65

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 65

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अभी इंदु पचास की भी नहीं हुई थी कि उसे दादी बनने का सौभाग्य प्राप्त होने वाला था | उसका मन अब भी अपने हिस्से की सौंधी धूप की प्रतीक्षा कर रहा था | सूरज की प्रात:कालीन रश्मियाँ मनुष्य के मन में कैसा उत्साह, कैसा उजियारा भर देती हैं !

यह धूप इंदु के जीवन में भी आई, झुलसा देने वाली धूप ! अंतर को झुलसा देने वाली धूप !उसके अंतर की चीर ने बार-बार उसे ऐसे स्थान पर ला खड़ा किया जहाँ वह गुमसुम हो कई बार अजनबी रास्ते पर भी चल पड़ी थी फिर न जाने कौनसी शक्ति थी जो उसे फिर से वापिस खींच लेती थी | नि:संदेह वह विलास का प्रेम ही था, जीवन भर अपराध-बोध से ग्रस्त प्रेम ! चाहते हुए भी वह इंदु के हिस्से की गर्माहट उसे देने में असफ़ल रहा था | न मालूम विलास के व्यवहार के बदलाव से उसके मन से क्षीण सी उज्जवल रेखा मन के भीतर उतरने लगी | लगभग पचास की इंदु के चेहरे पर एक क्षीण सी लज्जामय मुस्कान की लालिमा लरजने लगी | 

समय के पंख होते हैं, पंख भी ऐसे कि उनके उड़ने की गति को नापना असंभव होता है | जीवन व मृत्यु के मध्य उड़ता समय मनुष्य को कब किस किनारे पर ला पटकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता | रिश्तों की गांठें समय के साथ और भी पक्की होती चली जाती हैं | रिश्तों की वो ज़मीन जिसमें रिश्ते बोए जाते हैं जब कच्ची या नाज़ुक होती है तब उन्हें सींचने के लिए कुशल माली, खाद-पानी, हवा, सूरज की किरणें –सबके संतुलन की आवश्यकता होती है अन्यथा रिश्तों के पौधे पनपते नहीं, अधर में लटकते ही तो रह जाते हैं | रिश्तों की टूटन मनुष्य को बर्फ़ बना देती है, ये बर्फ़ भी दो प्रकार से जीवन को प्रभावित करती है | रिश्ते या तो बर्फ़ की चट्टान बन जाते हैं अथवा पिघलकर पानी बन जाते हैं | परंतु जीवन की वास्तविकता यह है कि न तो जीवन बर्फ़ बनकर चलता है, न ही पानी बनकर पिघलने से उसमें जीवन का संचार होता है ! जीवन को एक बहाव की आवश्यकता होती है जिसमें रिश्तों की मधुर सरसराहट, सूर्य उदय की प्रथम किरण सी उत्साहपूर्ण चमक, पुष्पों के खिलने की मधुर गंध सब मिलकर मानव-मन को ऊर्जा देते रहते हैं | 

प्यार, स्नेह, क्रोध, अहंकार, बनावट, पारदर्शिता –सब ही तो हमारे व्यक्तित्व के अंग हैं | चयन हमें करना है हमें किन रास्तों पर चलना है | लेकिन इन सबके अतिरिक्त जीवन का एक और कटु सत्य है, जीवन में उस घटना का होना जो सुनिश्चित है | सब कुछ जानते, परखते हुए भी मनुष्य का मन आशाओं के ढ़ेर पर बैठा रहता है | वह जानता है, समझता है कि शनै:शनै: इस टीले से नीचे फिसल जाएगा फिर भी बारंबार फिसलता है और शून्य पर आकर मुँह बाए खड़ा हो जाता है| 

गत वर्षों में इंदु न जाने कितनी बार रेत के टीलों पर चढ़ी है, फिसली है फिर भी उसकी मंशा ने दम नहीं तोड़ा है | आशा और निराशा के हिडोले में झूलता उसका मन प्रिय के मन में घुल जाने की बात जोहता रहा है | उसके लिए यह आशास्पद था कि विलास अब कभी-कभी अपने बंद खोखे से निकलने का प्रयास कर रहा था | संभवत: जीवन की संध्या में ही सही वह विलास का प्रथम किरण वाला सानिध्य प्राप्त कर सके | उसकी झोली में विलास के कोमल संवेदनशील स्पर्श गिने-चुने थे, जिन्हें उसने अपनी स्मृति में सँजो रखा था | उसने अपनी झोली इतनी कसकर बंद की थी कि जिसमें से एक कण भी वह बाहर निकलने देना नहीं चाहती थी | इंदु ने अपने प्रिय के साथ केवल दो वर्ष ही तो व्यतीत किए थे जिनको उसने सहेजकर अपने जीवन के बहुमूल्य खजाने में जमा कर लिया था | जीवन के हसीन लम्हों के मुँह फेरकर चले जाने से उसका जीवन फीका तो हो ही गया था, ठहर भी जाता यदि विलास उसके साथ न होता | वह उसके मन –मंदिर में गुमसुम होकर हर पल जीवन भर बैठा रह था | 

अपने पुत्र सारांश व पुत्र-वधू समिधा के वैवाहिक गठबंधन से निष्कासित प्रेम-पुष्प को महसूस करते हुए जहाँ वह बेहद प्रसन्न व संतुष्ट थी, वहीं वह अपने शरीर में भी युवा स्पंदन महसूस करने लगी थी | अचानक इतने वर्षों के पश्चात वह स्वयं को नवोढ़ा महसूस करने लगी | जो हृदय विलास के सामने प्रतिपल रहते हुए भी शांत रहना सीख गया था, वह अचानक ही धड़कते हुए विलास की बाँहों में कैद होने की माँग कर रहा था | मन में प्रीतम से मिलने की आशा के दीप जलाए, एक कुनमुना एहसास मन में समेटे इंदु इलाहाबाद पहुँची | ड्राइवर हर बार की भाँति स्टेशन आ गया था | 

इस बार इंदु का मन कैसा चहक रहा था ! वह विलास के अतिरिक्त कुछ भी और सोचना नहीं चाहती थी | घर पहुँचने पर उसे एक झटका लगा | उसके आने की आहट सुनते ही विलास बाहर आ जाते थे , इस बार वे बाहर नहीं आए | इंदु का मन बुझ गया, धीरे-धीरे कदम उठाती हुई वह विलास के कमरे की ओर बढ़ी | 

“साहब, अस्पताल में हैं ---“ बहादुर ने सहमते हुए सूचना दी | 

इंदु के बढ़ते कदम वहीं थम गए | कब ? क्यों? कैसे? अनेक प्रश्न कतार में आ खड़े हुए | 

“किसी ने मुझे बताने की ज़रूरत नहीं समझी ?”

एक अनजानी आशंका से इंदु की धड़कनें बढ़ गईं | उसका सपना धूलि-धूसरित होकर उसकी आँखों के सामने भुरभुरा गया | चेहरे पर खिली धूप सी उतर आई, नवोढ़ा की सी मुस्कान को भय के काले साये ने घेर लिया | 

“कहाँ हैं ?उनके साथ कौन है ? रमेश से कहो गाड़ी अभी अंदर न रखे, स्टार्ट करे ---“

“जी, कल रात साहब की छाती में दर्द हुआ था और रात को ही उन्हें अस्पताल में दाख़िल करा दिया गया था | आप रास्ते में थीं –इसीलिए --| ”

“उनके पास कौन है ?” द्रुत गति से इंदु गाड़ी के पास जा पहुँची थी | 

“जी, उनके पास डॉ. मित्रा और डॉ. पाठक साहब हैं | ” बहादुर ने कुछ इस प्रकार कहा मानो प्रोफ़ेसर की तबीयत के लिए वही उत्तरदायी हो –| 

लगभग पंद्रह मिनट में इंदु अस्पताल में थी | विलास के साथी प्रोफ़ेसर उनके पास थे| इंदु को देखकर उनकी जान में जान आई | विलास की आँखें बंद थीं, उन्होंने इंदु से बाहर चलने का इशारा किया | उसने अनमने मन से अपने हाथ का पर्स कमरे में रखा और बाहर आ गई | 

“ भाभी जी, कल रात प्रो. विलास को दिल का दौरा पड़ा था | बहादुर भागता हुआ प्रो. मित्रा के पास गया और हम दोनों मिलकर तुरंत ही यहाँ आ गए | “प्रो. पाठक ने इंदु को स्थिति से अवगत करवाया | 

“अब क्या स्थिति है ?”इंदु के मुख से मरियल सी आवाज़ निकल रही थी |

“सर्जरी तो करनी होगी, अभी डॉक्टर आने वाले हैं –वो आपको वास्तविक स्थिति बताएंगे –“पाठक की आँखों से पूरी रात की नींद झाँक रही थी | 

“कैसे धन्यवाद दूँ आप लोगों का !”इंदु धीमे स्वर में बोली

“आप लोग अब आराम करें, मैं विलास के पास हूँ –प्लीज़ ---“इंदु ने अनुरोध किया | 

“कैसी बात कर रही हैं, आपको अकेले तो नहीं छोड़ेंगे, आने दीजिए डॉ. साहब को | मैं और मित्रा बैठते हैं | आप अंदर विलास के पास बैठिए, देखते हैं –डॉ. साहब क्या कहते हैं ---“| 

“आप बहुत थकी हुई हैं, आपके लिए चाय भिजवा देता हूँ, आप अंदर चलिए –“पाठक कैंटीन की ओर मुड़ गए | 

“थैंक्स, पर अभी मुझे कुछ नहीं चाहिए | ट्रेन में मैंने चाय पी ली थी | ”कमरे में जाकर इंदु विलास के पलंग के पास पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गई | उसने विलास का हाथ अपने हाथ में ले लिया और सहलाने लगी | उसकी आँखों से असीम जल-स्त्रोत की धारा प्रवाहित होने लगी थी, उसके आँसू विलास का हाथ सींचने लगे | 

इंदु ने कभी अपने आपको इतना असहाय व असुरक्षित महसूस नहीं किया था | प्रो. मित्रा इंदु को सांत्वना देने कमरे में गए, उन्होंने इंदु से कुछ कहने का प्रयास किया परंतु उसकी स्थिति देखकर वे बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल गए |