Nainam chhindati shstrani - 64 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 64

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 64

64

इंदु कभी भी अपने में खोने लगती, उसकी आँखों की कोर गीली हो जातीं फिर किसी की ज़रा सी भी आहट सुनते ही उसकी मुस्कान कानों तक खिंच जाती, अचानक सूखे गुलशन में जैसे बाहर आ जाती | 

“माँ!आपकी मुस्कान कितनी प्यारी है } उदासी आप पर अच्छी नहीं लगती | ”

“पर –मैं उदास कैसे रह सकती हूँ भला, इतने प्यारे बच्चे हैं मेरे !”इंदु दुलार से समिधा पर ममता बरसा देती| 

सब एक-दूसरे की पीर पहचानते थे पर सब गुम थे, आख़िर है क्या इस ज़िंदगी का मसला ? जो कभी न तो हल हुआ है और न ही होगा | होने, न होने के बीच लटकती ही तो रही है ज़िंदगी ! उससे जुड़ा मनुष्य स्वयं भी उसीसे लटका ही तो रहता है | जैसे ही अलग हुआ, न जाने कहाँ अदृश्य हो जाता है?

इससे पूर्व कि बंबई से अहमदाबाद पहुँचते, इंदु को समिधा के गर्भवती होने के आसार दृष्टिगोचर हुए | वह समिधा को लेकर डॉक्टर के पास गई | शुभ समाचार सुनते ही इंदु की आँखें छ्लक आईं | उसने समिधा को गले से लगा लिया और अनेकों शुभाशीषों से उसे भर दिया | इंदु माँ बनी थी परंतु उसे कब यह प्रसन्नता प्राप्त हो सकी थी ?अब समिधा के माध्यम से इंदु को आनंद के इस क्षण की अनुभूति हो रही थी | 

जब इंदु का बच्चा उसके गर्भ में आया था तब उसकी मानसिक अवस्था इतनी क्षीण थी, इतनी असहाय थी कि गर्भ उसके लिए बोझ था, एक भार ! उसकी गर्भावस्था का पूरा समय कठिन यातनाओं को झेलते हुए बीता था | अपनी आँखों के आँसुओं की धार से वह अपने उन कालिख भरे क्षणों को धोने की चेष्टा करती रहती थी जो उसके भीतर हर पल सुलगते रहते थे | मुख पर बनावटी सहज मुस्कान चिपकाए वह माँ-पापा के सामने बनी रहती | अपने पूरे गर्भावस्था के समय में इंदु इसी उलझन में डोलती रही थी कि कब उसे समय मिले और कब वह अपने उस अनचाहे गर्भ को नष्ट कर सके | परंतु जब वह बनारस गई तब उसकी माँ उसे छोड़ती ही कहाँ थीं अकेले ! कोई न कोई उसके आगे-पीछे घूमता रहता | एक बार उसे अपनी एक सखी के साथ डॉक्टर के पास जाने का अवसर प्राप्त हुआ था | उसने डॉक्टर से बात करने का प्रयास भी किया परंतु डॉक्टर ने उसकी माँ लक्ष्मी से बात करनी चाही | 

“नहीं डॉक्टर ! माँ परेशान हो जाएंगीं, उनसे कुछ न कहिएगा प्लीज़ !---“इंदु घबरा उठी थी, उसने इस क्लीनिक में आकर कितनी बड़ी भूल की थी | यदि माँ उससे कुछ पूछेंगीं तो वह क्या उत्तर देगी भला !

“लेकिन आप चाहती क्यों हैं ? क्या आपके पति को कोई ऐतराज़ है ?” डॉक्टर उसके पूरे परिवार से परिचित थीं | बनारस शहर में आख़िर कौन था जो इस परिवार से परिचित नहीं था ? डॉक्टर पाशोपेश में थी, आख़िर क्या बात हो सकती थी ? इंदु का जन्म भी इसी अस्पताल में हुआ था | उस समय डॉक्टर का यह अस्पताल नया ही खुला था | वह इस शहर की पहली डॉक्टर थी जो लंदन से मैडिकल अध्ययन करके आई थी और जिसने अपनी जन्मभूमि को अपनी सेवाएं अर्पित करने का निश्चय किया था | नाम था –डॉ. शांतामल !

शांतामल की बेटी भी डॉक्टरी की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अपनी माँ के समान इसी कार्य में व्यस्त हो गई थी | डॉ. शांतामल ने इस भावना से डॉक्टरी का अध्ययन किया था कि वे प्रकृति की जीवनदायिनी शक्ति से जुड़कर समाज के लिए कुछ उपयोगी सिद्ध हो सकेंगीं | सच में ही वे एक श्रेष्ठ डॉक्टर साबित हुई थीं | गरीबों से वे नाम मात्र की फ़ीस लेती थीं जबकि स्मृद्ध वर्ग से अधिक पैसे वसूल करती थीं | 

वे बहुत स्पष्ट रूप से कहती थीं कि यदि वे समृद्ध वर्ग से पैसा नहीं लेंगीं तो गरीबों की सेवा कहाँ से कर सकेंगीं ? उनके इस यज्ञ में बनारस के समाज के बहुत से धनी एवं समाज के प्रति निष्ठावान जुड़े हुए थे | जिनमें इंदु के पिता का भी एक परिवार था | 

डॉक्टर के इस प्रकार के प्रश्नों से घबराकर इंदु चुपचाप बाहर प्रतीक्षालय में बैठी पत्रिका के पन्ने पलटती सखी को वहाँ से लेकर चली आई थी और गर्भावस्था में मानसिक व शारीरिक संत्रास को झेलते हुए समय पर अपने लाड़ले पुत्र सारांश को जन्म दिया था | कैसी विडंबना थी जीवन की !एक आँख में आँसू, आहें और दूसरी आँख में प्रसन्नता व माँ बनने का गौरव ! अंत में माँ के गौरव ने ही विजय प्राप्त की थी | 

समिधा के माँ बनने का समाचार ज्ञात होने पर इंदु प्रसन्नता से झूम उठी थी | अहमदाबाद में सब कुछ व्यवस्थित करके इंदु वापिस इलाहाबाद चली गई | माँ के अतिरिक्त समिधा ने अभी तक किसीको इतना ‘केयरिंग’ नहीं पाया था | इंदु की याद आते ही समिधा का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठता, वह बारंबार अपने भाग्य पर गर्व करने लगती | 

“मैं अगले महीने बहादुर की बेटी चंदा को लेकर आऊँगी, यहाँ पास के स्कूल में उसे दाखिला दिलवा देना | तुम्हारे पास रहेगी, तुम्हारा ध्यान भी रखेगी और काम भी कर लेगी –हाँ, उसकी पढ़ाई मत छुड़वाना---| ”माँ कहकर गई थीं | 

“क्या ज़रूरत है माँ, अब तो मैं काम पर भी नहीं जाऊँगी | ”समिधा के कहने पर इंदु ने उसे किस प्यार से समझाया था कि उसे इस अवस्था में किसीके संबल की आवश्यकता रहेगी | 

अगले माह अपने वादे के अनुसार इंदु दो दिन के लिए बहादुर की बेटी चंदा को उसके पास छोड़ने आ गई और पास के एक हिन्दी माध्यम के स्कूल में उसको प्रवेश दिलवा दिया | वह बड़ी समझदार लड़की थी | घर की देखभाल भी कर लेती और भाभी का भी ध्यान रखती | अपनी पढ़ाई भी वह समय पर कर लेती थी | चंदा को अपने पिता की बातें याद आती रहतीं, उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को विलास की सदाशयता के बारे में न जाने कितनी बार बताया था | 

बहादुर प्रोफ़ेसर साहब का व इंदु बीबी जी का बहुत सम्मान करता था | उसके अनुसार यदि प्रोफ़ेसर उसके परिवार को अपने घर न लाए होते तो वे लोग न जाने कहाँ भटक रहे होते | उनके पिता ने बच्चों को थोड़ा बहुत बताया था किन्तु उसकी पत्नी सब परिस्थियों से वाकिफ़ थी | इसीलिए वह बच्चों को इस परिवार की वफ़ादारी के लिए सदा चेताती रही थी | बहादुर के दोनों बच्चों को शिक्षा, खाना-पीना, रहने की अच्छी सुविधा प्राप्त थी | चंदा को समिधा के पास छोड़कर इंदु काफ़ी निश्चिंत थी | उसके मन में दादी बनने की सुगबुगाहट भरने लगी थी |