Nainam chhindati shstrani - 62 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 62

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 62

62

इंदु विलास के चेहरे पर देखती आई थी, उसने बहुत बार विलास को उस कठिन स्थिति से उबारने के प्रयास में अपनी नारी-सुलभ सीमाएँ भी पार करीं थीं | परंतु पत्नी के समीप आते-आते वर्षों पीछे छूट गया चलचित्र विलास की दृष्टि के समक्ष पुन: खुल जाता और वह अचानक शिथिल हो जाता | इंदु के समीप पहुँचने की स्थिति में पहुँचता, उसका शरीर निढाल होने लगता | इंदु के तन व मन की अतृप्त प्यास की स्थिति समझे बिना वह लंबी-लंबी साँसें लेते हुए इंदु को अधर में लटकता छोड़ देता और करवट बदलकर सिकुड़ जाता | 

अपनी साँस रोककर इंदु चुपचाप उठकर ‘शावर’ के नीचे जा खड़ी होती | इंदु के मन में विलास की बेचारगी करुणा भर देती, वह उसकी मन:स्थिति अच्छी प्रकार समझती थी, उसे लगता जीवन ने उसके पति के साथ कितना क्रूर मज़ाक किया है! उसके पास सारांश तो था, सारांश के पास उसकी माँ थी –पर विलास के पास कौन था ?निपट अकेलापन !सूनापन ! विलास के चेहरे पर आने-जाने वाले भावों को पढ़ते हुए इंदु विचलित हो रही थी | 

वर्षों से इस प्रकार के उतार-चढ़ाव इंदु न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी | हर समय पुस्तकों से जूझते हुए देखकर इंदु के मन में बेबसी का तीव्र तूफ़ान उठता, वह विलास के लिए दुखी हो जाती | कई बार उसका मन हुआ वह बेटे से सब कुछ साझा कर ले परंतु फिर सहम जाती | अभी दो मन ही सुलग रहे थे यदि सारांश इस बात को सहन न कर सका तो? समस्या थी और उससे भी कठिन था उस समस्या का समाधान ! बिना कुछ जाने-समझे सारांश को कैसे इस कड़वे सच की अनुभूति हो सकती थी ? इससे कहीं बेहतर थी वह मायूसी जिसमें वह अभी घिरा हुआ था | इंदु एक लंबी श्वांस खींचती और हर बार अपनी इस मूर्खता को मस्तिष्क से निकाल फेंकने की चेष्टा करती | 

बेटे सारांश को उसके मन के अनुरूप जीवन-साथी मिल जाने से इंदु काफ़ी हद तक निश्चित हो गई थी | समिधा व सारांश का सूनापन, अकेलापन दूर हुआ | जीवन की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन संतुलित होने लगी थी | यह संतुलन शनै: शनै: उनके मन में उतरने लगा था | एक सौंधी बयार उनके मन को छूती और जीवन के आनंद का अर्थ समझाती रहती | मुखौटे नहीं थे जीवन में !एक पारदर्शिता थी जो एक-दूसरे के पारदर्शी व्यक्तित्व को पहचानने के लिए पर्याप्त थी, समीपता के लिए आवश्यक थी | सारांश माँ को अपनी प्रसन्नता से अवगत कराता रहता था | 

सारांश व समिधा बहुधा इंदु से बात करते, समिधा पापा के स्वास्थ्य के लिए चिंतित रहती थी| वह सारांश से इलाहाबाद चलने का अनुरोध करती रहती थी | इंदु से बात करके वह उन दोनों के स्वास्थ्य के बारे में चिंता व्यक्त करती रहती थी | विलास ने भी एक-दो बार समिधा से बात की थी | समिधा पापा के बात करने के सलीके से प्रभावित हुई, उसके मन में उनसे मिलने की उत्कृष्ट अभिलाषा जागृत हुई | पापा के बारे में विलास ने विवाह के पहले भी समिधा से मन की पीड़ा व्यक्त की थी| समिधा को लगता कहीं न जहीं कोई गलतफ़हमी है जो सारांश के मन में बैठ गई है | इंदु माँ ने भी तो उसे पापा के बारे में बताया था कि प्रोफ़ेसर हर समय अपने काम में निमग्न रहते हैं इसीलिए उनका इतना सम्मान है कि देश-विदेश में उन्हें व्याख्यान व चर्चाओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है, उनके लिए उनका काम ही उनकी पूजा था | 

विलास व इंदु के प्रारंभिक जीवन में भी तो स्थिति कमोबेश ऐसी ही थी, वो दोनों भी तो प्रेम व सामंजस्य के आकाश तले प्रेमी-पंखियों की भाँति विचरण करते थे ---सोचकर इंदु को पसीने आ जाते, आँखें भर आतीं और वह बच्चों के सुखी व शुभ भविष्य के लिए आँखें मूँदकर प्रार्थना करने लगती | 

सारांश व समिधा के जीवन में ताल-लयपूर्ण गति भरने लगी थी | सूने जीवन की परिभाषा अब उदासी और एकाकीपन से दूर सहज, सरल, सुंदर हो गई थी | पहले तीन मित्र संध्या-बेला में जुहू-बीच पर एकत्रित होते थे अब चार हो गए थे | जैक्सन का स्वभाव भी बहुत अच्छा था | वह उन तीनों में ऐसे घुल-मिल गया था मानो वे चारों न जाने कितने पुराने मित्र थे | मालूम ही नहीं चला, कब पाँच माह व्यतीत हो गए | 

“पापा के पास दिल्ली जाने का मन है सारांश –”

“हाँ, चलो—इस सप्ताह छुट्टी लेकर चलते हैं, उन्हें अच्छा लगेगा –“सारांश समिधा को किसी भी बात के लिए मना नहीं करता था | 

“दिल्ली से फिर इलाहाबाद जाएँगे –ये क्या हुआ दिल्ली पापा से मिलकर आ जाएँ और इलाहाबाद पापा से मिलने न जाएँ ? नहीं सारांश, मुझे इलाहाबाद भी जाना है | ”

समिधा सारांश से अपनी बात मनवाना सीख गई थी | वास्तव में इंदु ने उसे सारांश से बात मनवाने का गुर भी सीखा दिया था | उसे मालूम था कि उसका बेटा बहुत संवेदनशील है इसीलिए उसके सामने यदि कोई उदास हो जाता है तो वह तुरंत पिघल जाता है | 

“सारांश ! मेरा बहुत मन है पापा से मिलने का | तुम्हारी उनसे नाराज़गी जो भी है, मुझे तो उनसे मिलने इलाहाबाद जाना ही होगा | यह क्या हुआ, मैं अभी तक अपने दूसरे पापा से मिली ही नहीं | अगर वो नहीं आ पाते हैं तो हम तो जा सकते हैं न ?” फिर उसने अपना चेहरा लटका लिया | 

सारांश को भी महसूस हुआ, हैं तो वे उसके पिता ही, उसका भी तो उनके प्रति कुछ कर्तव्य बनता है | ”

“ठीक है, दिल्ली से चलेंगे, मैं यात्रा का आरक्षण करवा लेता हूँ –“

दोनों ने दस दिनों की छुट्टियाँ लीं और यात्रा की तैयारियाँ शुरू कर दीं | 

“कमाल हो ! कैसे दोस्त हो ! अकेले-अकेले घूमने चल दिए !”जैसे ही रोज़ी को पता चला, उसने शिकायत कर डाली | 

“हम घूमने कहाँ जा रहे हैं ? दोनों पापा से मिलने जा रहे हैं –“ समिधा ने उत्तर दिया | 

“हम भी तो चल सकते हैं, हमने क्या गुनाह किया ? हम तुम्हारे साथ नहीं चल सकते ?”

“यह तो हमने सोचा ही नहीं था, सच –बड़ा अच्छा रहेगा अगर आप लोग भी साथ चलें –“ सारांश प्रसन्न हो उठा | उसे इलाहाबाद जाने में पापा का व्यस्त व गंभीर चित्र परेशान कर रहा था | यदि कोई अतिथि घर पर आ जाता तो डॉ . विलास चंद्र कोई और ही व्यक्तित्व दिखाई देते | रोज़ी और जैक्सन के सामने पापा संभवत: थोड़े समय के लिए अपने कार्य से मुक्त होने का प्रयास करें और समिधा का उनसे मिलना सार्थक हो जाए |