औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 10
एक अजनबी जो अपना सा लगा
परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज
सम्पादक रामगोपाल भावुक
सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर
जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110
मो0 9425715707, , 8770554097
इस रचना को भी महाराज जी से अनेक बार सुना है-
माता-पिता पैदा करें जग में देय फसाय,
हमको जननी वह मिली सद्पथ दियो लगाय।।
हरिहरस्वामी
महाराज जी का चिन्तन चलता रहता है। एक सुबह वे सोच रहे थे-दीपक में बाती और तेल रहता है जब तक तेल रहता है तभी तक लौ का अस्तित्व है। मानव शरीर में जब तक शक्ति का संचार है तभी तक इसकी लौ प्रज्वलित बनी रहती है।
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मैं पुनः अपनी बात समाप्त करते समय’ अपना अपना सोच’कृति की ओर आपका ध्यान अकृर्षित करना चाहता हूँ। इन दिनों यह कृति मेरे जीवन की ‘आस्था के चरण’ कृति की तरह आचार संहिता बन गई है। मैं आपका ध्यान इस कृति के‘ एक दृष्टि ‘ अध्याय में पृष्ठ क्रमांक 101 पैरा दो पर केन्द्रित करना चाहता हूँ। गुरुदेव ने उसे इन शब्दों में यों दर्शाया है। देखें-
इन आने वाले विध्नों से निराश अथवा हताश न होकर व्यक्ति को अपने साधन के प्रति उत्साह और विश्वास बनाये रखना चाहिये। विध्न तो साधक के जीवन में आने स्वाभाविक ही है। किन्तु एक धैर्यवान व्यक्ति इनसे विचलित नहीं होता और विश्वास का पल्लू थामे रहता है। जिस प्रकार एक पनिहारिन अपने सिर पर पानी से भरे कई-कई मटकों को लिये हुये अपनी सहेलियों के साथ बातें भी करती जाती है और मटकों का भी ध्यान बनाये रखती है ,ठीक इसी प्रकार का साधक का जीवन भी होना चाहिये। जगत में अपने कर्तव्य कर्मो को कुशलता पूर्वक निभाते हुये अपने चित्त में श्री गुरुचरणों का ध्यान बनाये रखना चाहिये। किसी महापुरुष ने ठीक ही कहा है कि यदि गेाता लगाना है तो श्रीगुरु के चरणोंदक से बढ़ करकोई पावन जल नहीं है। यदि मस्तक पर चन्दन लगाना है तो श्रीगुरु के चरणों की रज से बढ़ कर शीतल और सुगन्धित कोई अन्य पदार्थ नहीं है। यदि ध्यान करना है तो श्रीगुरु के चरणों से बढ़ कर परमेश्वर का वास कहीं अन्यत्र नहीं है। यदि शीश नवाना हो तो श्रीगुरु के पदचिन्हों से उत्तम कोई अन्य स्थान नहीं है। यदि तुझे तेरे गंतव्य का ज्ञान नहीं है तो उनके पदचिन्हों का अनुसरण करे जा पहुँच जाएगा।
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महाराज जी का साधकों को यह अचूक सन्देश-
आपको जब कभी भटकन का अनुभव हो तो आप सब तरफ से ध्यान हटा कर उस क्षण को याद कर लेना, अपनी उस मनः स्थिति में डूब जाना जब आपके हृदय में श्रद्धा का अंकुर प्रस्फुटित हुआ था।
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आप जब गुरुनिकेतन पहुँचेंगे, आमजन के लिये निर्मित सत्संग भवन के मुख्य द्वार के समक्ष साधना के सोपान लिखे देखेंगे।
गुरुदेव ने ‘अपना अपना सोच’ कृति में भी इन्हें स्थान दिया है।
साधना के सोपान
0 अनुशासित जीवन
0 मर्यादित आचरण
0 सहनशीलता
0 सेवा भाव
0 सद्व्यवहार
0 संयम
0 धैर्य
0 आत्मनिरीक्षण
0 कोई आस्तिक है या नास्तिक इससे क्या फर्क पड़ता है। व्यक्ति के कर्म के पार्श्व में कौन सी भावना छुपी है महत्व इसका है।
0 केवल निष्काम कर्म ही व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान की दिशा में ले जा सकता है।
0 आत्म शान्ति के लिये हृदय का पूर्णतः निर्मल और मुक्त होना अनिवार्य है।
0 अपनी उन्नति अपने ही प्रयत्नों से होगी अन्य कोई इसमें लेशमात्र भी तुम्हारा सहायक नहीं हो सकता।
इन बातों को आश्रम में प्रवेश की आचार संहिता कहेंगे। प्रत्येक साधक को इन नियमों को पालन करना अनिवार्य है।
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इस समय मुझे दिनांक 3-2-06 की याद आरही है। उस दिन मैंने परम पूज्य गुरुदेव हरिओम तीर्थ जी से अनुग्रह प्राप्त हुआ था। उन दिनों गुरुदेव जम्मू में थे। उनका मुझे फोन से आदेश मिला कि सुवह चार बजे साधना में बैठ जाना । मैं आदेश के मुताविक साधना में बैठ गया। मेरी पीठ वर्फ सी ठन्डी हो गई। क्रियायें होने लगी। मैं समझ गया परम पूज्य गुरुदेव ने मुझ पर कृपा कर दी है। ऐसे महापुरुषों के लिये दूरी कोई माने नहीं रखती। वे सर्व शक्तिमान है। उस दिन से मैं साधना में लग गया। कुछ दिनों में गुरुदेव डबरा लौट आये। यहाँ आने पर मैंने गुरुदेव का विधिवत पूजन किया। उस दिन सोमबार का दिन था। घर में नियमित सोमबार के दिन सत्संग चलता ही है। सत्संग में हम वे ही चार लोग बैठे थे। जैसे ही ध्यान का क्रम समाप्त हुआ कि भवानी सैन जी बाबा की कुर्सी के सामने पसर गये । हम सब ने इस का कारण पूछा? वे बोले-’बाबा सामने बैठे थे,उनकी बड़ी कृपा है ,वे दर्शन दे गये।’हम सब को दर्शन नहीं हुये। इन्हें बाबा ने दर्शन दे दिये। जो हो हमारी दृष्टि नहीं रही होगी। जो हो बाबा की कृपा से ही परम पूज्य गुरुदेव ने मुझे अपनाया है। मेरी बाँह पकड़ी है। उस दिन से मैं महाराज जी के सतत सम्पर्क में हूँ।
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दिनांक4-9-10को मैं गुरुनिकेतन पहुँचा। गुरुजी प्रसंन्न मुद्रा में दिख रहे थे। वे कल अपना सारा चैकप करा कर ग्वालियर से लौटे थे। उन्हें किसी प्रकार की कोई बीमारी नहीं निकली थी। डॉ0 उदेनिया के व्यवहार की प्रशंसा करने के बाद उन्होंने गीता की प्रति उठा ली। उसके पन्ने पलटकर उसका द्वितीय अध्याय खेालकर उसका चौदहबाँ श्लोक पढ़कर सुनाते हुये बोले-’मैंने खुशवू के पुत्र कौन्तेय का नामकरण करते हुये सांख्य योग का यही श्लोक उसके कान में मोवाइल लगवाकर सुनाया था।’जिसका भावार्थ है-हे कौन्तेय! सर्दी- गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और बिषयों के संयोग तो उत्पन्न-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत! उनको तू सहन कर।।14।।
कुछ क्षण रुक कर वे पुनः बोले-’दूसरे अध्याय के सातवे श्लोक का कोई शुद्धता से ग्यारह माला जाप करै-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छेªयः स्यान्निच्श्रितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।7।।
और यह पा्रर्थना करै कि मुझे कोई राह नहीं सुझ रही है आप राह दिखायें। यह पार्थना करते हुये शुद्ध आसन पर लेट जायें, आपको उसी रात आपके प्रश्न का उत्तर मिल जायेगा। जिसे जीवन में कोई राह नहीं सूझ रही हो ,वह इस प्रयोग को करके देख ले। महाराज जी का कहना है कि इस अचूक मंत्र का प्रयोग करके मेरे परिवार जानों ने देखा है। वे उस बतलाये पथ पर चल कर जीवन में सफल हुये हैं।
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बात दिनांक 14.7.12के सुबह की है। मैं महाराज जी के यहाँ माताजी की कुछ दवायें लेकर पहुँचा। एक दवा नहीं मिली थी। उसको ग्वालियर से लाने के लिये अग्रवाल मेडाकल वाले से दो ट्यूव लाने के लिये कह दिया। यह बात मैंने महाराज जी को बतला दी। महाराज जी बोले-‘तिवाडी जी आप दानों टयूव ही लेकर आये। भले ही हमने एक मगवा लिया है। हम जानते हैं दूसरा टयूव कचरे में फेकना ही पड़ेगा।’
उनकी यह बात गुनते हुये मैं अग्रवाल मेडीकल पर पहुँचा। उससे कहा-एक टयूव कल मिल गया था। मैं आपसे दो टयूव लाने के लिये कह गया था। महाराज जी ने तो दोनों ही टयूव मगवाये हैं। वह बोला -‘आप चिन्ता नहीं करें। मैं इसे वापस ग्वालियर भेज दूँगा। हमारे लिये यह कोई समस्या नहीं है। ’
उसकी बातें सुनकर एक ही टयूव लेकर मैं महाराज जी के यहाँ चला गया। मैंने उन्हें वह टयूव दिया। वे बोले ‘दूसरा टयूव?’
मैंने कहा-‘ दुकानदार उसे बापस कर देगा। इसीलिये मैं उसे नहीं लाया।’
वे बोले-‘ हमने उसे दो लाने का आदेश दिया था। हमें दोनों ही लेना है। आप उसे अभी लेकर आये।’
मैंने उसे लाने का महाराज जी से बहुत विरोध किया। वे नहीं माने। मुझे दूसरा टयूव लेने जाना पड़ा। दुकानदार से एक बार फिर निवेदन करवाया कि महाराज जी टयूव वापस चला जायेगा। आप चिन्ता नहीं करें। महाराज जी फिर भी नहीं माने उनके सिद्धन्त में टयूव क्रय करना अनिवार्य था। मुझे दूसरा टयूव लेकर ही जाना पड़ा। महाराज जी को तभी सन्तोष मिला।
मैं समझ गया कि महाराज जी अपने सिद्धान्त के बहुत पक्के हैं। जो बात उन्हें जम जाती वे उसे करके ही मानते हैं।
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दिनांक 16.7.12 को जब में गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी फोन पर व्यस्त थे। बातों से ज्ञात हुआ परम पूज्य स्वामी गोपाल तीर्थ जी के पूर्व आश्रम की धर्म पत्नी उनका काफी समय से इलाज चल रहा था दिनांक 15.7.12 को देहान्त होगया है।वे स्वयम् भी तपस्वनी थीं।
दिनांक 16.7.12 को गढ़ मुक्तेश्वर में विधिवत उनकी अस्थियों का विसर्जन किया गया। इन दिनों परम पूज्य गोपाल तीर्थ जी नर्मदा परिक्रमा कर रहे है। उन्हें इसकी सूचना दे दी गई है। सन्यासी होने के कारण उनका गृहस्थ आश्रम के सदस्यों से कोई सम्बन्ध नहीं है।
गंगा जी गढ़ मुक्तेश्वर से बृजघाट पर बहुत वर्ष पहले ही चली गईं थीं। वहीं पर महाराज जी के परिवार वालों के अस्थि विसर्जन वाले कार्यक्रम सम्पन्न होते है।
स्वामी जी महाराज के गृहस्थ आश्रम के छोटे चाचा ने वहाँ एक पक्की कुटी बना ली थी। वहीं सदैव निवास करते थे। वर्तमान में उनके छोटे पुत्र देखभाल के लिये आते-जाते रहते हैं।
वे चाचाजी तथा उनके बड़े पुत्र श्री कृष्ण मोहन स्वामी जी स्वतंत्रता संग्राम में अनेक बार जेल गये हुये थे। महात्मा गाँन्धी जी के अहिन्सक आन्दोलन के वे सदस्य थे।
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दिनांक 1697.12 हरियाली अमरवस्या के दिन मैं शाम छह बजे गुरुनिकेतन पहुँचा। महाराज जी उस समय कक्ष में नहीं थे। कुछ ही देर में महाराज जी हाथ में एक कागज की पुर्जी लिये हुये आ गये। आसन पर बैठते ही उसकी पर्तें खोलने लगे। मैं उत्सुकता से बिना प्रश्न किये उसे देखने लगा। वह कागज का पुर्जा बीच में फटा हुआ था।शायद दीमक या चूहे ने उसे कुतरा होगा,सम्भव है पुराना कागज होने से गल गया हो। महाराज जी ने उसे पूरी तरह सँभाल कर रखा था। जब वह खुल गया तो उसमें से महाराज जी मुझे साम्यवाद पर अपने विचार पढ़कर सुनाने लगे-‘अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु किसी अन्य का धन लूट लेना, दूसरे के वैभव, उसकी सम्पन्नता से ईर्षा करना, बिना अपेक्षित श्रम किये दूसरों की कमाई पर जीवन यापन करना,स्वयं के ज्ञान को ही मान्यता देना, दूसरों के अधिकारों की उपेक्षा करके स्वयं को ही अधिक महत्व देना, आदि आदि विचारों को साम्यवादी विचार समझ बैठना कोरी भ्रान्ति है। साम्यवाद का अपमान है। साम्यवाद का सीधा-सीधा अर्थ है संसार में सभी में स्वयं को अनुभव करना, व्यवहार में द्वेत का अभाव पूरी तरह नष्ट होजाना। जब तक व्यक्ति के हृदय में राग-द्वेष है, अपने पराये का भान मन में है तब तक वह स्वयं को साम्यवादी होने का दावा कैसे कर सकता है। साम्यवादी बनने के लिये अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना पड़ता है।
साम्यवादी बनना ही तो इस सृष्टि में सबसे कठिन कार्य है, इसके लिये अपनी आवश्यकताओं को सीमित करना पड़ता है। बजाय दूसरों के दोषों के स्वयं के दोषों की तरफ दृष्टि रखनी पड़ती है। अपनी आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं को उसके सही पात्रों में समदृष्टि रखकर वितरण करना पड़ता है। संग्रह का विचार तक भी एक ईमानदार साम्यवादी के मन में उत्पन्न नहीं होता। अपनी दृष्टि में जब तक वह जगत को अपने से भिन्न देखता है, उसे भिन्न अनुभव करता है, वह साम्यवादी होने की बात कैसे कर सकता है।
जिस प्रकार एक चिड़िया अपने ही प्रतिविम्ब को प्रथक समझकर उसके साथ लड़-लड़कर अपने प्राण गवाँ देती हैं, सिंह जैसा एक हिन्सक पशु कुये में अपनी परछाईं देखकर कूद पड़ता है और अपने प्राण गबाँ देता है, उसी प्रकार अज्ञानता के कारण साम्यवाद की सही परिभाषा जाने बगैर लोग अपना आचरण करने लग जाते हैं। परिणामतः सारा वातावरण अशान्त बन जाता है। वस्तुतः सही साम्यवाद मानव समाज का प्राण है।
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मेरी माँ जी कलावती तिवारी जिनकी वय नब्बे वर्ष से ऊपर हो गई है, वे एक माह से बिस्तर पर पड़ीं हैं। महाराज जी उनके स्वास्थ्य के बारे में अक्सर पूछते रहते हैं कि आपकी माँ कैसीं हैं?
इन दिनों उनकी हालत और अधिक गिरने लगी। वे मेरे लघु भ्राता रामेश्वर के पास शुरू से ही रह रही थीं। सुवह-शाम माँ के पास जाकर, बैठने का मेरा क्रम चल रहा है । महाराज जी दूरभाष से उनके स्वास्थ्य के बारे में मुझ से जानकारी लेते रहते हैं।
इन दिनों लम्बे समय से महाराज जी आश्रम से कहीं जाते-आते नहीं हैं। नाही किसी से मिलते हैं। मैं 10.9.12 तारीख को शाम के समय माँ के पास पहुँचा। पता चला महाराज जी सुबह के समय डॉ0 के0 के0 शर्मा जी को साथ लेकर किसी को सूचना दिये बगैर माँ पर कृपा करने के लिये आये थे। वे उनके पास आकर बैठे गये। करीब पाँच मिनिट तक उनके सिर पर हाथ रखे रहे। निश्चय ही माँ के पुण्य उदय हुये होंगे जिससे जीवन के अन्तिम दिनों में महाराज जी की कृपा मिल सकी। उसी दिन से माँ अन्तर्मुखी रहने लगीं। बात कम करती । उनके चहरे की चमक बढ़ गई। अब वे चैन से अन्तिम समय की प्रतीक्षा करने लगीं।
दूसरे दिन मैं महाराज जी के पास पहुँचा। महाराज जी ने कहा-’तिवाड़ी जी आप पूछते रहते हैं ‘शक्तिपात क्या है? जब उस परमात्मा की ओर से किसी कार्य को करने का संकेत होता है , वह कार्य किया जाता है तो निश्चय ही वह शक्ति की कृपा ही होती है।’
मैं समझ गया माँ को गुरुदेव ने शक्तिपात दीक्षा प्रदान की है। अब उनके कल्याण में सन्देह नहीं है। मैंने घर आकर माँ की चलित कुण्डली देखी,इस समय मिथुन राशि पर गुरु और केतू बारहवे भाव में हैं। जो मोक्ष के कारक हैं। निश्चय ही गुरुदेव ने उन्हें मुक्त करने के लिये उन पर कृपा की है।
इस घटना के नौवे दिन यानी 19.9.12 को दोपहर से ही उन्हें धरती पर लिटा दिया गया। हम सभी भाई परिवार सहित ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का कीर्तन करने लगे। बीच-बीच में नन्दन भइया उनसे राम राम कहलवा लेते। यों 3.15 पर वे जीवन से मुक्त होगईं। गुरुदेव की इस कृपा को हम जीवन भर विस्मृत नहीं कर पायेंगे।
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