aughad kisse aur kavitayen-sant hariom tirth - 7 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 7

Featured Books
Categories
Share

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 7

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 7

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

दिनांक 03-02-09 को महाराज जी ने यह प्रसंग सुनाया।

अहमदाबाद में मेरे बड़े भ्राता जनार्दन स्वामी जी कपड़े की मिल में सबसे बड़े इन्जीनियर थे। वहीं एक वंशीवाले संत रहते थे। स्वामीजी अक्सर उनके यहाँ जाया करते थे। यह बात मील के मालिक को पता चल गई । स्वामी जी से निवेदन किया-’ आप कैसे भी वंशीवाले संत जी को घर ले आओ।’

जनार्दन स्वामी बोले-’ सेठजी ,आप घर में रामायण का कार्यक्रम रखें मैं उन्हें लाने का प्रयास करुंगा। ‘

सेठजी ने रामायण का कार्यक्रम रखा। जनार्दन स्वामी ने वंशीवाले संत जी से सेठजी के घर चलने का निवेदन किया। इनके निवेदन से वंशीवाले संत जी सेठजी के घर पधारे।

जिस समय रामायण का समापन हुआ सेठजी का लड़का दुर्घटना ग्रस्त होगया। उसकी स्थिति बहुत खराब हो गई।

ठीक उसी समय एक व्यक्ति शराब के नशे में उनके घर आया। वह पान खाये हुये था। पान की पीक उसके मुँह से बह रही थी।

सेठजी ने लड़के के स्वस्थ रहने के लिये वंशीवाले संत जी से प्रार्थना की। वंशीवाले संत जी ने पास खड़े उस व्यक्ति की ओर इशारा किया जो शराब पिये था बोले-’ इनके चरण पकड़ लो ,ये बहुत बड़े संत हैं।’

सेठजी ने उन संत के चरण पकड़ लिये। वे अटपटी भाष में बोले-’ जा ठीक है।’

कुछ ही देर में खबर मिली, सेठजी का लड़का खतरे से बाहर है। यह कथा जनार्दन स्वामी ने मुझे अनेक बार सुनाई है।

0000000

कुछ देर मौन रहने के बाद महाराज जी बोले-’ऐसे ही संत महापुरुष रामेश्वर बाबाजी थे। नाले में फसे ट्रक को इन्हीं बाबा जी ने निकाला था। आज तक यह चर्चा जन-जन के मुँह से सुनी जा सकती है।

एकबार मैं उनके यहाँ जा पहुँचा। वे मुझे देखते ही बोले-’तुम डबरा चले जाओ।’

मैंने उनसे निवेदन किया-’वह अच्छी जगह नहीं है।’

वे बोले-’लंका में विभीषण भी तो एकला रहता था, जा चला जा। मैं उन्हीं महापुरुष की आज्ञा से यहाँ आया हूँ। प0पू0विष्णू तीर्थजी महाराज के कहने पर ही मेरे पिताजी ने यहाँ जमीन क्रय की थी। मेरे पिताजी की यहाँ आश्रम बनाने की इच्छा थी। आज उन्हीं के आशीर्वाद से यह आश्रम बना है।

000000

उस दिन मैं महाराज जी के पास बैठा था। एक पिंकी नामकी लड़की का महाराज जी को फोन आया-’गुरुदेव नारायण’

महाराज जी ने उत्तर दिया-’ नारायण’।

वह बोली-’पापा बिस्तर पर हैं। उनके बेडसोर हो गये हैं। शौच आदि भी पलंग पर ही करना पड़ता है।’

महाराज जी ने यह सुनकर उसे समझाया-’उनके नीचे मोम जामा विछा दे। उनसे बिस्तर पर पड़े-पड़े साधना करने को कहें।’

महाराज जी की आज्ञा से उन्होंने बिस्तर पर पड़े-पड़े साधना शुरु करदी। कुछ ही दिनों बाद महाराज जी उन्हें देखने ग्वालियर गये। उस दिन उन्होंने बिस्तर से पहली बार उठकर महाराज जी का पूजन किया था और इसके कुछ दिनों बाद ही वे महाराज जी के दर्शन करने गुरु निकेतन डबरा आये।

उस दिन उन्होंने कहा था कि मैं गुरुकृपा से ही ठीक हो सका हूँ। उसी दिन उनकी पुत्री पिंकी कह रही थी-’ एक बार मैं बहुत मोटी होगई। जिसके कारण मैं दिल्ली के अस्पताल में भर्ती रही। जब गुरु महाराज के दर्शन करने आई तो सीढ़ियाँ ही मुश्किल से चढ़ पाई थी किन्तु गुरुकृपा से मैं कुछ ही दिनों में पूरी तरह ठीक होगई हूँ।

‘गुरुदेव की कृपा धन्य है।’

दि0 5-2-10को जब मैं गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी बोले-‘मुझे प्रतीकों से लगाव नहीं रहा। यह बात नहीं है कि मैं उनमें विश्वास नहीं करता। वे भी प्रत्यक्ष हैं फिर भी मैंने यह बात किसी से नहीं कही है तुम्हारे सामने व्यक्ति करता हूँ। जाने क्यों मुझे पूजा पाठ, उन्हें नहलाना -धुलाना सब आडम्वर सा लगता है या यूँ कहूँ यह मेरा प्रमाद है। जो भी सही, जब कभी माथा टेकता हूँ तो उन्हें प्रत्यक्ष मानकर, फिर मुझे आभास भी होता है कि वह मेरी बात सुन भी रहे है। उस समय वह मुझे प्रतीक नहीं लगते।

मैंने प्रश्न किया-’घूनी वाले दादाजी तो आपके जीवन में आज भी साकार हैं।’

महाराज जी बोले-’साकार तो विष्णू तीर्थ महाराज जी, गुरुदेव शिवोम् तीर्थ जी महाराज जी भी हैं। गुरुदेव को गंगाजी में प्रवाहित कर आया फिर भी यह नहीं लगता है कि वे चले गये। वे अभी भी साकार हैं। मेरे आसपास मौजूद रहते हैं।

कुछ क्षण रुककर महाराज जी पुनः बोले-’आपकी माताजी ने मेरी तथा माँ की बहुत सेवा की है। मैं तो क्रोधी हूँ, उनकी सहन शक्ति वन्दनीय है। मैंने महसूस किया है वे किसी महान संत से कम नहीं हैं। इस उम्र मैं भी सोमबार और एकादशी के वृत नियमित चलते हैं। शनिबार को सुन्दर काण्ड का पाठ भी नियम से चल रहा है।’

मैंने कहा-’माँजी के चहरे पर मैंने कभी क्रोध नहीं देखा।’

महाराज जी बोले-’मैं मन ही मन अपने क्रोध के लिये उनसे क्षमा मांगता रहता हूँ। वे सेवा करने में कभी आलस्य नहीं करतीं। मुझे रात भर नींद नहीं आती तो वे भी मेरे साथ जागरण करती रहती हैं। उनका आभार मानने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं।’यह कह कर महाराज जी गम्भीर होगये ।

0000000

बात दिनांक 06-02-09 की है । आज भी महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। वे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही यह वृतांत सुनाने लगे-’मैं कलकत्ता के लिये ट्रेन में बैठ गया। शुरु-शुरु में सीट के लिये थोड़ी सी चिकचिक-पिकपिक हुई किन्तु फिर सीट मिल गई। जिससे झड़प हुई उसी के साथ बातें करते हुये कलकत्ता पहुँच गये। वहाँ पहुँच कर सारी ट्रेन खाली हो गई। जो मेरे साथ सीट पर बैठा था उसका नाम राम जुड़ावन था। वह बोला-‘ उतरना नहीं है क्या?’

मैंने कहा-’ यह कलकत्ता स्टेशन नहीं है।’

राम जुड़ावन बोला-’ कलकत्ता स्टेशन का यही हावड़ा स्टेशन नाम है। यहाँ आप कहाँ जायेंगे?’

मैंने कहा-’कहीं धर्मशाला वगैराह में।’

राम जुड़ावन बोला-’मैं टेलीफोन विभाग में लाइनमैंन की नौकरी करता हूँ। आप साथ चल सकते हैं।’यह सुनकर मैंने प्रभू को मन ही मन घन्यवाद दिया-तू मेरी हरबार पहुँचने से पहले ही व्यव्स्था कर देता है। मैं उसके साथ चला गया। घुमावदार जीना चढ़कर हम ऊपर पहुँच गये।वहाँ छोटे-छोटे टीन सेड बने थे। एक खटिया बिछाने के बाद थो़ड़ीसी जगह बची रहती थी। उतने में ही उसके साथ रहना-खाना शुरु कर दिया। दो दिन बाद ही उसका ट्रान्सफर होगया। अब तक वहीं के दूसरे लोग परिचित होगये थे। वहीं एक ठाकुर का परिबार भी रहता था। उन्हें इनके ट्रान्सफर की बात पता चली तो उस घर का मालिक स्वयम् बोला-’ पण्डित जी तुम चाहो तो हमारे साथ रह सकते हो।’

वहीं एक नाई का परिबार भी रहता था। वे तीन लोग थे। पति पत्नी और पत्नी का भार्इ्र। उसकी पत्नी बोली-’मेरा भाई साथ रहता ही है, आप भी साथ रहे मेरे दो भाई होजायेंगे। उसकी बात मुझे अच्छी लगी। मैंने उनके साथ खाना शुरु कर दिया।

मेरे पास दस रुपये थे । वे खर्च होगये। समस्या खर्चे की आई। मेरे पास एक पेटी में कुछ नल की टोंटी का सामान पड़ा था। उसे बेचकर दस रुपये ले आया। उनसे नेल पालिस का सामान ले आया। थोड़े से प्रयास से नेल पालिस बन गई। उसे बाजार में बेच आया। कुछ दिन उनसे गुजर हुई। एक दिन नेल पालिस बेचते समय एक आदमी टकरा गया। उसका नाम था जे0एन0चक्रवर्र्ती। वह बोला -’आप चाहें तो मेरे साथ चलें। ‘वह स्याही की टिक्की बनाने की फेक्ट्री डाले था। मैं उसके साथ काम करने लगा। मैं दूसरे दिन ही बहुत सारा आर्डर ले आया। मेरा काम करना उसके साले को अखरने लगा। वह खुद भी उसी फैक्ट्री में काम करता था। वह सोचने लगा था, कही उसका पत्ता साफ न हो जाये। उसने मेरे विरुद्ध अपनी बहन के कान भर दिये। अतः मैंने वह नौकरी छोड़ दी।

उन्हीं दिनों एक कपड़े की दुकान वाले से मुलाकात होगई। उसने मुझे कपड़े बेचने का काम दे दिया। मैं कपड़े बेचने जाने लगा। जिस समय मैं कपड़े नाप रहा होता उस समय लोग मेरी पोटली से चुपचाप धोतियाँ चुरा ले जाते। जब मैंने अपना पूरा कपड़ा सम्हाला तो धोतियाँ कम पड़ी। सेठजी से कैसे कहूँ। एक नया संकट खड़ा होगया।

उन्हीं दिनों माँ की बीमारी की चिट्ठी मिली। उस सेठ के चार सौ रुपये उधार होगये थे। मैंने उस सेठ से सारी बात कह सुनाई। उसे मेरी बात से विश्वास होगया और उसने घर जाने के लिये किराया भी दे दिया।

मुझे आज तक पश्चाताप है कि उस सेठ के चार सौ रुपये मैं आज तक भी नहीं दे पाया। उसका पता भी नहीं हैं कि वह कहाँ है! अब तो उस लेन देन को प्रारब्ध के हाथों सोंप दिया है। इस लेन देन को प्रभू के हाथों सोप कर निश्चिन्त हो गया हूँ।

मैं भावुक यह सोचते हुये घर लौट आया-’जीवन में कई ऐसे प्रकरण आजाते हैं जिन पर आदमी का बस नहीं चलता। जिन्हें प्रभू को ही अर्पण करने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रहता।

हम ईश्वर को याद रखते हैं तो वह भी हर पल हमारे साथ रहता है। हम उसे देखते हैं तो वह भी हमें देखता है। महापुरुष सदैव वर्तमान में रहते हैं।

0000000

हरियाणा प्रान्त में एक स्थान पर पहाड़ी पर एक मन्दिर है। उस पहाड़ी का नाम च्यवन ऋषि के नाम पर है। निश्चिय ही उस पहाड़ी से च्यवन ऋषि का सम्बन्ध रहा होगा। एक आदमी बचपन से ही उस पहाड़ी के ऊपर जाता रहता था। एक दिन महाराज जी ने उनसे पूछा-’ आप तो यहाँ अक्सर आते रहते हैं।’

वे बोले-’ मैं युवा अवस्था से ही यहाँ आता रहा हूँ। आप इस पहाड़ी से नीचे सामने बगीचा देख रहे हैं।’

मैंने कहा-’ हाँ, देख रहा हूँ।’

वे बोले-’ हाँ हम अक्सर युवावस्था से ही पिकनिक मनाने के लिये आया करते थे। यहीं एक रामदास नामका आदमी हमारी सेवा किया करता था। पानी भरता, बरतन मांजता और झाडू लगाता तथा चिलम भरने का काम किया करता था।

एक दिन पिकनिक के बाद सभी ने तय किया कि ऋषिकेश चला जाये। जब ये चलने लगे तो रामदास से भी पूछा गया कि तुम भी हमारे साथ चलो।

रामदास बोला-’ मैं तो न जापाऊँगा। हाँ,ऋषिकेश से थोड़ा आगे चलने पर एक मन्दिर के पास झाड़ी है। वहाँ मेरे गुरु भाई रहते हैं। उनसे मेरी राम-राम कह देना।’

सभी लोग ऋषिकेश पहुँच गये।वहाँ एक स्थान पर जाकर ठहर गये। कुछ साथी भोजन प्रसादी बनाने लगे। यह कह कर वह थेाड़ी देर तक बात कहने से रुका । फिर महाराज जी से बोला-’स्वामी जी, उस समय मैंने सोचा कि ये लोग खाना बना रहे हैं तब तक मैं जाकर रामदास के गुरुभाई के पास जाकर उसकी राम-राम कह आता हूँ। यह सोचकर मैं वहाँ अपने साथियों को कह कर निकल पड़ा-’ तुम लोग खाना बनाते हो तब तक मैं रामदास के गुरुभाई से मिलकर उसकी राम-राम कह आता हूँ।’

ऋषिकेश से निकलकर थोड़ा आगे बढ़ने पर ढूढ़ने पर एक झाड़ी के पास एक गुफा मिली। मैं उस गुफा में चला गया। उस गुफा में कई संत धूनी रमाये, चीमटा गाड़े, ध्यान में मग्न बैठे थे। मैंने सोचा यहाँ किससे कहे? यह सोच कर मैं जोर से बोला-’रामदास ने राम -राम भेजा है।’यह सुनकर एक संत की आँखें खुलीं, बोले-’दुबारा कहना क्या कहा?’

मैंने कहा-’रामदास ने राम -राम कहा है।’

उन संत ने कहा-’आश्चर्य, उसकी तीन सौ साल में राम-राम आई है। कैसा है वह?’

मेरे मुह से शब्द निकले-’ आनन्द में है।’

वे संत बोले-’ जाकर, हमारी भी उससे राम-राम कहना। कहना ,तुम्हारे गुरुभाई ने राम-राम भेजी है और यह भी कहना कि हम सब यहाँ आनन्द में हैं। तुम इतनी लम्बी यात्रा करके आये हो भूखे होगे?’ यह कह कर उन्होंने धूनी में से एक कन्द निकालकर मुझे दिया। मैंने उसे खया तो मैं तृप्त होगया।

उसके बाद उन संत से बिदा लेकर मैं वहाँ आया जहाँ मेरे दूसरे साथी दाल- बाटी बना रहे थे। मुझे उन संतों के पास से लौट कर लगने लगा- घर कब पहुँच पाऊँ? यह सोच कर मैंने अपने साथियों से कहा-’ मुझे जरूरी काम याद आ गया है। बताने वाली बात नहीं है। मैं जारहा हूँ।’

वे बोले-’ दाल- बाटी तो खाते जाओ’

मैंने उनसे कहा-’तुम्ही खालो , मैं तो चलता हूँ।’यह कह कर मैं वहाँ से चला आया। स्टेशन पर आकर टिकिट लिया और लौट आया। गाँव में आकर सबसे पहले उसी आश्रम में रामदास बाबा के पास पहुँचा। किन्तु वहाँ रामदास बाबा नहीं था। इधर-उधर ढूढ़ा किन्तु वह कहीं नहीं मिला।

मैं पुनः ऋषिकेश के लिये लौट पड़ा कि चलकर उन महात्मा से मिलूं। उस स्थान पर पहुँचा जहाँ वह झाड़ी थी। किन्तू न वहाँ वह झाड़ी थी न गुफा। मैं पश्चाताप करता हुआ घर लौट आया। उसी दिन से आज तक मैं इस पहाड़ी पर नियमित आता रहता हूँ। यह कह कर वह व्यक्ति अनन्त आकाश की ओर ताकने लगा था।

यह कथा कहते हुये महाराज जी भी अनन्त आकाश की ओर ताकने लगे थे।

0000000