औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 6
एक अजनबी जो अपना सा लगा
परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज
सम्पादक रामगोपाल भावुक
सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर
जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110
मो0 9425715707, , 8770554097
उस दिन गुरुदेव ने यह गीत गुनगुनाते हुये दरवाजा खेला-’
रहे तुम पुरानी सरंगी बजाते।
समय गीत गाकर चला भी गया है।।
रहे तुम मिलन का महूर्त संजोते।
अथिति द्वार आकर चला भी गया है।।
इसके कुछ देर रुक कर बोले-’बात दोसा कस्वे की है एक नागा बाबा साथ था। एक व्यक्ति आकर बोला-’आप कल हमारे यहाँ भेाजन करें।’
मैंने कहा-’ इन नागा बाबा की नागा बाबा जानें। मैं किसी के यहाँ भेाजन नहीं करता।’
यह सुनकर वह व्यक्ति ही बोला-’ मैं ब्राह्मण हूँ। इन दिनों कनागत चल रहे हैं। कहीं न कहीं मुझे तो भोजन करने जाना ही पढ़ता है।’
मैंने कहा-’तुम भोजन के बदले उन्हें अपना कुछ पुण्य अर्पित करके आते हो या नहीं’
उसने कहा-‘ नहीं तो।’
मैंने उसे समझाया-’यह तो और भी बुरी बात है ,एक तो उसके यहाँ भेाजन करके उसे अपने पुण्य का हिस्सा देकर नहीं आते। यह तो बहुत बुरी बात है। मैं तो किसी का अन्न ग्रहण नहीं करता।’
वह बोला-’ क्यों?’
मैंने उसे पुनःसमझाया-’हम जिससे कुछ लें, उसके बदले उसे कुछ अर्पित करें। अन्यथा अगला जन्म लेकर उसका कर्ज पटाना पड़ेगा।’
मेरी बात सुनकर वह समझ गया, बोला-’ मैं आपकी बात समझ गया, आज के बाद अब मैं किसी के यहाँ भेाजन करने नहीं जाउूँगा।’
महाराज जी से यह प्रसंग सुनकर मैंने तय कर लिया -’ पराये अन्न से जितना हो सके बचना चाहिये। उस दिन से मैं किसी के यहाँ श्राद्ध में भेाजन करने नहीं जाता।
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बात अप्रैल सन् 2010 ई0 की है। इन दिनों तक परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा के जीवन वृत पर आधारित कृति ‘आस्था के चरण’ प्रकाशित होचुकी थी। प्रश्न उठा इसका विमोचन किससे कराया जाये। ऐसी कृति के विमोचन के लिये केवल परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी का नाम ही हम सब के सामने था। मैंने डरते-डरते स्वामी जी के समक्ष अपना प्रस्ताव रखा।
महाराज जी बोले-‘देखो तिवाड़ी जी, मेरा गिरता हुआ स्वास्थ्य देख ही रहे हैं। अब मैं कहीं जाता-आता नहीं हूँ। किन्तु इन महापुरूष के नाम पर मैं मना भी नहीं कर पारहा हूँ। आप लोग प्रोग्राम बना लें और मुझे सूचित करदें।
बात स्थान पर आकर अटक गई। मैंने महाराज जी के स्वास्थ्य को देखकर आश्रम में ही कार्यक्रम रखने की स्वीकृति चाही। महाराज जी बोले-’ यहाँ रखलें। किन्तु व्यवस्था आश्रम की मर्यादा के अनुरूपरखना पड़ेगी।’व्यवस्था आश्रम की मर्यादा के अनुरूपरखने की बात पर मेरा साहस नहीं हुआ। पुस्तक के छपाने में ही पर्याप्त खर्च हो चुका था। मेरी खुद की जेब स्वीकृति नहीं दे रही थी। चन्दा करने के लिये भी मन स्वीकृति नहीं दे रहा था। दो हजार रूपये सत्संग के बजट में थे, उतने से ही काम चलाने की सोच रहा था।
आश्रम की मर्यादा के अनुसार पाँच -छह हजार से कम में काम नहीं चल पारहा था। मैंने निवेदन किया-’महाराज जी, आश्रम की मर्यादा के अनुसार हमारी समिति खर्च वहन नहीं कर पायेगी। अतः मैं कार्यक्रम अपने घर पर ही रख लेता हूँ। वहाँ आपको लेजाने -लाने की व्यवस्था डॉ0 के0 के0शर्मा के सहयोग से हो जायेगी।’
यों कार्यक्रम घर पर रखने का तय हो गया। मैंने प्रचार कार्य करना शुरू कर दिया। घर-घर जाकर बाबा के भक्तों को कार्यक्रम में आने के लिये सूचना देने लगा। ग्वालियर के ऐसे मित्रों को दूरभाष से सूचना देदी। गर्भी का प्रकोप बढ़ गया। प्रगति की सूचना देने महाराज जी से मिला।
गर्भी की स्थिति का आकलन करते हुये महाराज जी बोले-’ चिन्ता नहीं करें बाबा की कृपा से उन दिनों मौसम ठीक होजावेगा। महाराज जी की भविष्य वाणी सत्य सावित हुई। कार्यक्रम के तीन दिन पहले पानी बरस गया। मौसम में ठन्डक आगई। किन्तु महाराज जी का स्वास्थ्य खराब होगया।
डॉ0 के0 के0 शर्मा ने घोषणा करदी-’ महाराज जी आश्रम से बाहर नहीं जा पायेंगे। महाराज जी से विमोचन कराना है तो कार्यक्रम आश्रम में ही रखना पड़ेगा।’डॉ0 के0 के0 शर्मा के कहने से महाराज जी भी मान गये। आश्रम में व्यवस्था करने का जुम्मा डॉ0 शर्मा ने ले लिया।
मैंने प्रचार कार्य पुनः सँभाल लिया। अब घर-घर जाकर पुनः लोगों को स्थान परिवर्तन की सूचना देना अनिवार्य होगया। मैंने दिन-रात एक करके सभी के पास सूचना पहुँचा दी। प्रसाद की व्यवस्था महाराज जी ने अपनी ओर से करना शुरू करदी। मैंने डॅाक्टर के द्वारा सत्संग की ओर से दो हजार रुपये महाराज जी के पास भेज दिये।
दिनांक 02-05-10 को कार्यक्रम ठीक चार बजे शुरू हो गया। कार्यक्रम का संचालन महाराज जी के आदेश से डॉ0 के0 के0 शर्मा ने सँभाल लिया। सर्वप्रथम महाराज जी ने गौरीशंकर बाबा के चित्र पर मार्ल्यापण किया। इसके बाद महाराज जी का माला पहनाकर पूजन किया गया। डॉक्टर सतीश सक्सेना ‘शून्य’ ने बाबा की कृति को थाली में सजाकर महाराज जी के समक्ष प्रस्तुत की। महाराज जी ने उस कृति का सभी के समक्ष विमोचन किया। शून्य’जी ने भी अपने भाषण में बाबा के अनेक संस्मरण सुनाये।
इसके बाद महाराज जी ने कृति के लेखन में डॉक्टर सतीश सक्सेना ‘शून्य’ की भूरि-भूरि प्रसंसा की। ’किन्तु मैं भावुक सोच रहा था- संतों के चरित्र-चित्रण में शास्त्रों की साक्षी देना अनिवार्य तो नहीं है। उनका चरित्र तो स्वयम् सिद्ध है। इसी सोच में मैं इस लेखन में शास्त्रों के प्रमाण नहीं दे पाया। किन्तु गुरू वाक्य अन्यथा नहीं हो सकता। ऐसा करके बाबा स्वयम् मेरे मन का भ्रम मिटाकर शास्त्रों के महत्व को प्रतिपादित कर रहे हैं।
महाराज जी ने कहा- ‘गौरी शंकर बाबा महाराज जैसे महापुरूष की कृपा पाकर भी आदमी कुछ भी अर्जित नहीं कर पा रहा है। सभी तरफ दौड़ लगाते रहने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। हम चाहे जिधर बढ़े ,एक निश्चित दिशा तय करलें। आदमी अपनी शक्ति को गलत दिशा में नष्ट कर रहा है। इस तरह हम इन महापुरूषों से कुछ भी नहीं सीख पायेंगे, यह किसी के सोच में नहीं आता।’
उनके ये शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते रहते हैं। चित्त में संकलित हो रहे कचरे को इन महापुरूषों की कृपा से महसूस करने लगा हूँ। और अधिक कचरा जमा न हो इसके लिये गुरूदेव मुझे सचेत करते रहते हैं।
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याद आरहा है दिनांक16-1-08 का वह प्रसंग ,जब मैं गुरू निकेतन पहुँचा महाराज जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। शायद ज्यादा ही खराब रहा होगा अन्यथा वे बिस्तर पर कम ही लेटे रहते हैं। मैंने उन्हें जब-जब देखा है, सचेत अवस्था में बैठे देखा है। उस दिन वे बिस्तर पर लेटे-लेटे ही बोले-’मुझ पर पग-पग पर महान संतों की अपार कृपा रही है।
मुम्वई में माँजी, पत्नी, बेटी और बहिन के साथ रहता था। उस समय मैं कपड़े के टुकड़े बेचने का कार्य करता था। मदद के लिये एक आदमी साथ रहता था। वाणगंगा पर एक संत रहा करते थे। मेरे अनुमान से उनका शरीर सिंध प्रान्त का था। एक दिन मैं वहाँ चला गया। वहीं एक चाय वाले की दुकान थी। मैंने उस चाय वाले के पास जाकर कहा-‘ तीन चाय भेज दो।’
वह बोला -’आप और आप का साथी, दो जने हो। तीसरी चाय किसके लिये?’
मैंने कहा-‘ तीसरी चाय पास बैठे उन बाबा जी के लिये।’
वह बोला-’वे तो किसी से कुछ नहीं लेते।’
मैंने कहा-’ तुम तो बनाओ।’उसने तीन चाय बना दीं। हम चाय लेकर उन संत के पास गये।उन संत ने मेरी ओर गौर से देखा और चाय पी ली।
एक दिन उन्होंन बाँस का गोल घेरासा बना लिया था जिसमें लेटकर प्रवेश किया जा सकता था। उन्होंने उसमें मुझे बुलाया। किन्तु मैं गया नहीं जिसका मुझे आज तक पश्चाताप है।
बात उन्हीं दिनों की है एक दिन हमारे पड़ोस में भाँग की पकोड़ी बनी थी। उस पड़ोसी नेें भँाग की पकोड़ी हमें भी लाकर देदीं तो हम सब उन्हें खागये। माँजी तो वेहोश ही हो गई। यह देख हमने उन्हें घी पिलाया उनके मुँह में नीवू निचोड़ा तब कहीं उन्हें होश आया। हम सब ने भी नीवू चूसा तब कहीं हम स्वस्थ हुये।
दूसरे दिन जब में उन महाराज जी के पास पहुँचा तो वे अपने दाहिने हाथ का पन्जा फैलाकर उसे हिलाते हुये सी-सी करते हुये बोले-’ इससे मौत होजाती है। ‘ मैं उनकी बात पूरी तरह समझ गया कि बाबा रात वाली घटना की ओर संकेत कर रहे है। उस दिन से मैंनें भाँग को छुआ भी नहीं है।
यों मैं जीवन भर संतों के बताये मार्ग पर चलने का प्रयास करता रहा हूँ।
यह बात भी उन्हीं दिनों की है एक दिन मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं था ,कपड़ा बिके तो पैसा आये। मैं उन्हीं महाराज के पास पहुँच गया। उन्होंने मुझ से हाथ के इशारे से कहा कि उधर के रास्ते पर चला जा।
मैं उनके बतलाये इशारे के अनुसार चला गया तो उधर मेरा सारा कपड़ा बिक गया।
यों मुझ पर जीवन भर ऐसे महापुरूषों की कृपा होती रही है।
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उन दिनों मैं बम्वई में ही था। उस समय मेरी उम्र पेंतीस-छत्तीस वर्ष की रही होगी। मैं रोजगार की तलाश में बम्वई में ही ठहरा था। मैंने वहाँ कट पीस के कपड़े खरीदे और उन्हें बेचने के लिये एक बाजार में जाकर दुकान लगा ली। वह जगह एक मुसलमान भाई की थी। उसने दुकान समेटने के लिये कहा तो मैंने अपनी दुकान समेंटना शुरु करदी। सामने एक दर्जी की दुकान थी। उसने मुझे दुकान समेटते देखा तो इसारे से अपन पास बुलाया। मैं उसके पास गया तो वह बोला-’‘ मेरी दुकान के सामने मेरी ही जमीन है यहाँ आकर तुम अपनी दुकान लगा लो।
मैंने अपनी दुकान वहाँ लगा ली। रात को उसकी खेाली में ही अपना वंडल भी रख देता। इसी बीच उस दुकानदार की पत्नी गाँव में बीमार पड़ गई। उसे जाना अनिवार्य होगया तो वह मेरे भरोसे अपनी दुकान सँभलाकर गाँव चला गया। जब वह लौटा तो उसने अपनी दुकान संभाल ली। बाद में तो वह मुसलमान बोहरे भी मेरी मदद करने लगे थे।
कुछ दिनों बाद एक छोटी सी लड़की मेरी दुकान पर आई। वह कपड़े देखने लगी। उसे एक पीस पसन्द आगया। बाल सुलभ भाषा में वह बोली-’यह कितने का है? ‘
मुझे उसकी ये बातें अच्छीं लगी। मैंने वह पीस उसके मना करने पर भी उसे दे दिया।
बीस-पच्चीस मिनिट बाद वह अपनी मौसी को लेकर आगई। उसकी मौसी बोली-’ आपने इसे यह पीस दिया है ,क्या आप इसे जानते हैं।
मैंने जैसा था, बैसा कह दिया। वह बोली-‘भाई साहिब, बालक किसी का भी क्यों न हो, वह तो अच्छा लगता ही है।आप कहाँ तक ये देंगे! इसके पैसे लेलो।’उसके अनेक बार कहने पर भी मैंने उससे पैसे नहीं लिये।
जब वह पैसे के लिये अधिक कहने लगी तो मैंने उससे कहा-’ मैं पेसे तो लेने वाला नहीं हूँ , आप चाहे तो इन पैसे से दूसरा पीस खरीद लें।’यों वह मुश्किल से मानी थी।
यह घटना सुनाते हुये महाराज जी कहने लगे-’ गरीबों में भी स्वाभिमान होता है। वे बेईमान नहीं होते। उनके साथ मजबूरी जुड़ी होती है। वह उसे बेईमान बना देती है।
कुछ वर्षों बाद जब मैं वहाँ पहुँचा तो वहाँ के लोग मुझे घेर कर खड़े हो गये। बोले-’ सेठ जी, दो -चार दिन में पगार मिलने वाली है, हमें याद है हमें आपके पैसे देने हैं । लेकर चले जाना।’
मैंने कहा-’मैं पैसे लेने नहीं आया हूँ , मुझे तो याद भी नहीं है। भगवान ने मुझे अब बहुत दिया है। इसे भूल जाओ, वह तो उन दिनों की बात थी।’
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कुछ देर तक महाराज जी निःचेष्ट बिस्तर पर पड़े रहे फिर सचेत होकर बिस्तर पर बैठ गये और बोले-’‘ यह बात उज्जैन की है। वे संत मुसलिम शरीर से थे। वे गुरूद्वारों एवं मन्दिरों में प्रवेश नहीं करते थे । वे किसी के हाथ से भोजन प्रसादी के लिये पैसे गुरूद्वारों एवं मन्दिरों में भेज दिया करते थे। एक दिन उन्होंने मुझे कचौड़ी खिलाई थी। मैं उनके चेहरे को देखकर समझ गया था कि वे निश्चय ही महान संत हैं।श्
इस बात को जैसे ही गुरूदेव ने विराम दिया वैसे ही दिल्ली के किसी शिष्य का फोन आगया। इन दिनों वह परम पूज्य स्वामी शिवोम् तीर्थ जी की कृति ‘मेरी अन्तिम रचना ’ का अध्यन कर रहा होगा। महाराज जी ने अपने मोवाइल का स्पीकर आँन कर दिया। इसी करण मुझे सब कुछ साफ-साफ सुनाई देरहा था। उसने गुरूदेव के समक्ष प्रश्न किया-’गुरूदेव दृश्य जगत और अदृश्य जगत क्या है?’
महाराज जी ने उसे फोन पर ही समझाया-’-’दृश्य जगत वो जो दिखाई देता है। किन्तु अदृश्य जगत दो तरह का होता है। एक जो वासना से युक्त जैसे भूत-प्रेत। दूसरा निर्लिप्त, इसमें उन महान संतों की गिनती की जा सकती है जैस लल, परमानन्द तीर्थ,मुकुन्द तीर्थ,विष्णू तीर्थ एवं परमहंस मस्तराम गौरी शंकर बाबा आदि जो चिन्मय शरीर में रहते हैं।
उसने प्रश्न किया-’ ये दिखाई क्यों नहीं देते।’
महाराज श्री बोले-’भूत-प्रेत तो वासना युक्त शरीर में प्रवेश करके अपना प्रभाव दिखा जाते हैं। किन्तु महान संतों को देखने की हममें दृष्टि नहीं होती। उनकी इच्छा होती है तो वे दिख जाते हैं। हमें अपनी साधना बढ़ाकर, शक्ति अर्जित करके अपनी सामर्थ बढानी चाहिये । जिससे इन शक्तियों की हम पर जब कृपा होगी तव हम उनके तेज को सहन कर सकेंगे।
ये महान संत इस जगत में विचरण करते रहते हैं। कभी-कभी जब उनकी कृपा हो तव वे अपनी उपस्थिति पात्र देखकर आभास करा जाते हैं।
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जीवन के अन्तिम दिनों में कितना सहन करना पड़ रहा है। शरीर अपना काम कर रहा है किन्त इस अवस्था में भी चित्त पूरी तरह सचेत है। महाराज जी यह कह रहे थे। उसी समय उनके मोबाइल की घन्टी बजी। उसकी आवाज सुनकर उसे ओपन किये बिना महाराज जी ने उस मोबाइल को अपने मस्तक से लगाया और गुरू बन्दना की ,उसके बाद मोबाइल को ऑन किया।
मैं महाराज जी के सामने ही बैठा था। मैं सोचने लगा - महाराज जी ऐसा कभी नहीं करते। आज यह किसका मोवाइल है?
पता चला- गुरूदेव के एक शिष्य की माँ की हालत अत्यन्त सीरियस थी। वे अस्पताल में अन्तिम साँसें गिन रही थीं। महाराज जी को यह कैसे भान होगया ,आश्चर्य ! निश्चय ही उन्हें सभी बातों का पूर्वाभाष्स होजाता है।
मैं यही सब सोच रहा था कि महाराज जी ने अपना मोवाइल उठाते हुये कहा-’इस उम्र में कितना सहना पड़ रहा है।’
यह कहते हुये उन्होंने सुनीता नाम की लड़की को मोवाइल से रिंग किया। उससे बोले-’ मेरे पास ज्योति का नम्बर नहीं है। मुझे उसकी बहुत याद आ रही है।’
वह बोली गुरूजी ज्योति तो जम्मू में है। वहाँ उसका स्वास्थ्य बहुत खराव है। ह्म्योंग्लिोबिन बहुत कम होगया है। आर वी सी 2200 तक रह गये हैं।
महाराज जी बोले-’तुम ज्योति से कहो वह अपने मोवाइल से मुझे रिंग करदे। मेरे पास उसका नम्बर आते ही मैं उससे बात कर लूंगा।’
थोड़ी ही देर में जम्मू से ज्योति का फोन आगया। नम्बर देखते ही उन्होंने उसे काट दिया और अपने मोवाइल से उसे रिंग कर दिया।
उससे लम्बी बातें हुई। महाराज जी उसे हिम्मत देते रहे। वह कह रही थी-’गुरूजी मुझे अब किसी दवा की जरूरत नहीं है। अब तो आप की कृपासे मैं पूरी तरह ठीक होजाउॅगी।’
जब फोन रख दिया तो महाराज जी मुझ से बोले-’ ये लड़की अधिक दिनों तक टिकने वाली नहीं है। काम पूरा हुआ कि गई।’यह कह कर महाराज जी गम्भीर होगये।
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