aughad kisse aur kavitayen-sant hariom tirth - 4 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 4

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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 4

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ 4

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

20.1.10

बसन्त पंचमी के अवसर पर गुरुदेव ने अपने जीवन का यह प्रसंग सुनाया- मेहदीपुर श्रीवालाजीधाम से मैं और एक नागा बाबा साथ-साथ चल पड़े। दौसा के निकट सोप स्टोन की पहाड़ीयाँ हैं। उन्हें अंग्रेजी में टेलकम भी कहते हैं। अजबगढ़ में पत्थर की मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं। हम अजबगढ़ सुवह ही पहुँच गये। वहाँ नागा बाबा का परिचित उनका एक भक्त रहता था। उसके घर भेाजन किया। नागा बाबा ने अपनी रामायण की प्रति उसके यहाँ रख दी और कहा-’जब लौटकर आउँगा तब ले लूँगा।’हम दोनों सड़क पर आगये। एक चाय वाले की दुकान पर चाय पीने बैठ गये। लोगों की बातचीत से पता चला कि पास में जो भानगढ़ के खण्डरात हैं । किसी जमाने में वहाँ एक वैभवशाली नगर था। ऐसी जनश्रुति है, किसी साधू के शाप से वह उलट-पुलट होकर खण्डहर बन गया। अब वहाँ सिवाय खण्डहरों के कुछ भी नहीं है। वहीं एक साधू और बैठा था जो उस नागा बाबा से परिचित था। ऐसे ही बातों- बातों में उन दोनों में तू-तू मैं-मैं हो गई। वह इसकी बात के उत्तर में बोला-’ऐसा है तो चला क्यों नहीं जाता भानगढ़ के खण्डहरों में।’

मैं पास बैठा उनकी बातें सुन रहा था। मैंने निर्णय किया-हम आज की रात उन खण्डहरों में ही व्यतीत करेंगे। यह सुनकर उपस्थित लोग आपस में बतियाने लगे- ये दोनों सुबह जिन्दा नहीं आने वाले

फिर भी लोगों के इस तरह कहने पर भी हम चल पड़े।

शाम के छह बजे हम दोनों खण्डहरों की तरफ चले जारहे थे। चारों तरफ बड़ी-बड़ी बाजरे की फसल खड़ी थी। एक आदमी पगड़ी बाँधे हुये दिखा। वह चिल्लाया-’बाबाजी रास्ता भूल गये हो।’

यह सुनकर हमने रास्ता बदल लिया। फिर उस आदमी का कहीं पता नहीं चला। हम भानगढ़ के खण्डहरों में पहुँच गये। वहाँ सबसे पहले हमारा स्वागत लगूरों ने किया। शुरु में ही दाहिने हाथ की तरफ एक खण्डहर पड़ा मन्दिर था जिसमें सात-आठ फीट ऊँची एक खड़ी प्रतिमा थी। जिस पर सिन्दूर लगा था। यह भेंरोंनाथ की प्रतिमा थी। मैंने माथा टेका और आगे बढ़ गये। चारों तरफ सूखे पत्ते बिखरे थे। वियावान जगह थी। जहाँ भी पाँव रखते सूखे पत्तों के खड़खडा ने की आवाज आती।

दिन छिपने वाला था इसलिये रुकने के लिये सुरक्षित स्थान की तलाश में आगे बढ़ते जा रहे थे। आखिर में वह रास्ता एक झील के किनारे जाकर बन्द हो गया। उसके एक किनारे पर बहुत बड़ा हरी-हरी दूब बाला मैदान था। दूसरी ओर एक भव्य मन्दिर जिसमें कोई मूर्ति नहीं थी। शेष दो तरफ पहाड़ थे। हम लोग उस दूब में जाकर बैठ गये। उसी समय सात व्यक्ति बहुत बड़ी-बड़ी पगड़ी पहने वहाँ आये। उन्होंने प्रणाम कर कहा-’ महाराज ये आटा और घी लेलो।’यों वे आटा और एक कटोरा घी तथा गुड देकर बोले-’ ऊपर चूल्हा बना है और तवा रखा है। आप भोजन बना लें और प्रसाद पायें।’

यह कहकर वे चले गये। मुझे स्मरण हो आया कि अजबगढ़ से चलते वक्त मैंने कहा था कि आज तो हम जिन्दों के मेहमान बनेंगे। यही सोचते हुये हम ऊपर मन्दिर में पहुँच गये और अपना डेरा जमा लिया। एक कोठरी में ईधन रखा था। मिटटी का तवा भी वहाँ चूल्हे पर रखा था। टिक्कर बने। गुड घी के साथ प्रेम से खाये। गहन अन्धकार होगया था। मन्दिर के तिबारे में आसन लगाकर लेट गये। बीच-बीच में नागा की टार्च टिमटिमा जाती। मैंने उत्सुकतावस नागा से कहा-’रामजी, सुना है कि जिन्दों की नगरी में अप्सरायें नृत्य करने आती हैं। ‘

मेरा इतना कहना था कि जाने कहाँ से छम-छम की आवाज सुनाई पड़ने लगी। मेरे तो होश ही उड़ गये और मेरे मुँह से निकला-’ ये सब हमें दिखना नहीं चाहिये , वह आवाजें भी आना बन्द हो गई। हम लोग सोने का प्रयास करने लगे। एक झपकी लग गई। रात में नागा बोला-’ मेरे ऊपर से शंकर जी का आभूषण निकल गया।’

मध्यरात्री के बाद ऐसे लगा जैसे कोई पशु जुवान से वावड़ी में पानी पी रहा है। हम समझ गये इस क्षेत्र में हिंसक पशुओं चीते, शेर इत्यादि का बास है। हम चुपचाप लेटे रहे। वह पानी पीकर चला गया। रात भर आराम से सोते रहे।

नागा सुबह जल्दी उठता था। वह नहा धोकर अपने जटा सुखा रहा होगा कि साँझ वाले वही सात लोग पुनः आगये और बोले-’लो और सामान लेलो।’

वे कुछ सामान देकर चलने लगे तो नागा ने बीड़ी माचिस के लिये उनसे कहा। उन्होंने उसी समय बीड़ी माचिस का ढेर लगा दिया। उनमें से एक बोला-’आप लोग यहीं रुकें। नों दुर्गा शुरु होने वाली हैं। किसी चीज की कमी नहीं रहेगी।

इसके बाद वे सभी झरने के रास्ते से पहाड़ में चले गये ।

हम दोनों बाबड़ी में नहा धोकर अजबगढ़ लौट आये।वहाँ के लोग आश्चर्य से हमें देख रहे थे।

वहाँ से हम सती नारायणी की ओर चल दिये। एक व्यक्ति हमारे पीछे-पीछे चलता आ रहा था। कई किलोमीटर निकल गये। जहाँ से सती नारायणी की पक्की सड़क जाती है वहीं से वह आदमी गायव हो गया। सम्भव है वह हमें ही रास्ता दिखाने आया होगा।

कुछ क्षण रुक कर महाराज जी पुनः बोले-’ इस वृतांत को में आज तक नहीं भूल पाया हूँ। परमहंस संतो के अतिरिक्त ऐसी अज्ञात आत्माओं का भी जाने-अनजाने जीवनभर सहयोग मिलता रहा है।

इस समय मुझे बात याद आ रही है 17-12-08 की। मैं गुरुनिकेतन पहुँचा महाराज जी से कुछ इधर-उधर की बातें हुई फिर वे गम्भीर होकर बैठ गये और बोले-’मेरी माँ मेरी गुरु भी थी । वे महान योगी थीं। वे जो बोलतीं ,बहुत सोचकर बोलती थीं। उन्होंने अपनी स्वीकृति से अपने दोनों लड़कों यानी मुझे और गोपाल स्वामी को सन्यास दिला दिया था। जिनमें गोपाल स्वामी तो देवास जैसे आश्रम के प्रमुख रहे।

मैं हरिओम तीर्थ अपने जन्म की कथा जो मैंने अपनी माँ से सुनी है वह सुना चुका हूँ। आज मैं अपनी माँ के ब्रह्मलीन होने की कथा सुना रहा हूँ। एक दिन पहले माँ बोलीं-’आज मेरा प्रारब्ध समाप्त होगया।’

यह सुनकर मैंने कहा-’माँ आपने मुझे तो सन्यास दिला कर मुक्त कर दिया। अब मेरे से मन हटाकर अपने राम में लगाओ। मैंने तुम्हें अपने से मुक्त कर दिया।’

माँ का उत्तर था‘-’ठीक है सभी कुछ ठीक होजायेगा।’ माँ को मेरी ओर से सदैव ही चिन्ता रहती थीं। मेरे प्रति उनका कुछ विशेष लगाव था। यह मेरे ऊपर उनका विशेष अनुग्रह था।

राजू शाम तक कार ले आया। मैं माँ के पास बैठ गया। माँ, राम-राम । माँ, राम-राम । और माँ सबको हाथ जोड़कर कह रहीं थीं राम-राम। आगे चलकर गाजियाबाद से हमने राजू ड्रायवर को लौटा दिया क्योंकि उसी दिन उसके भाई की शादी थी। हम आगे बढ़ते गये और गढ़मुक्तेश्वर पहुँच गये। गढ़मुक्तेश्वर में ही हमारे परिबार के लोग गये हैं। वहीं उनकी अस्थियाँ विसर्जित की गईं हैं। यहाँ गंगा से हमारा पीढ़ियों का नाता है।

माँ का गंगा की रेती में ही अन्तिम संस्कार किया गया। किन्तु दूसरे दिन जब हम अस्थि विर्सजन के लिये वहाँ पहुँचे ,गंगा माँ ने उनकी चिता की जगह को चारों ओर से घेर लिया था। यों माँ जैसी दिव्य आत्मा गंगा में समा गर्इ्रं।

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बात मेहदीपुर श्री वालाजी धाम की हैं । मैंने पितृपक्ष में निमंत्रण करने की इच्छा से पंड़ित जी को तलासा। मेहदीपुर श्री वालाजी धाम के मन्दिर में चाचा- भतीजे दोनों जाप में लगे रहते थे। मैंने उनकी तलास की। पता चला चाचाजी कहीं चले गये हैं। मैं उनके भतीजे से मिला और निमंत्रण स्वीकार करने का निवेदन किया। उन्होंने निमंत्रण स्वीकार कर लिया। मैंने उनसे पूछा-’कच्चा-पक्का कैसा भोजन करेंगें?’

वे बोले-’अग्नि को समर्पित करने के वाद भोजन कच्चा कहाँ रहता है?’ उस दिन से कच्चे-पक्के भोजन के सम्बन्ध में मेरा दृष्टि कोण पुख्ता हो गया है। मेरे पिताजी का भी यही दृष्टि कोण था।

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इस प्रसंग के अगले दिन मैंने गुरुदेव से निवेदन किया-’ गुरुदेव, दिन प्रतिदिन मेरी स्मरण शक्ति क्षीण होती जारही है। मैं सब कुछ भूलता जारहा हूँ। यहाँ तक कि पाँच- पाँच हजार रुपये रखकर भूल जाता हूँ।’

महाराज जी बोले-’यह ठीक नहीं है फिर तो तुम्हें पागलखाने के डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा।’

मैंने पुनःनिवेदन किया-’एक बार मैं चलती मोटर साइकिल से गिर गया था। पाँच-छह घन्टे तक बेहोश रहा तभी से यह हालत है।’

वे बोले-’तुम्हें किसी अच्छे डॉक्टर से इलाज कराना चाहिये।’

मैंने कहा-’स्मृति गायब होरही है यह तो अच्छी बात है। प्रभू की जैसी इच्छा!’

महाराज जी ने मुझे समझाया-’यह गलत है, कहीं तुम अपने में महान संत होने का भ्रम तो नहीं पाल रहे हो।’

‘ नहीं गुरुदेव, मैं अपने अवगुण ही देखता हूँ। मुझे दूसरों के गुण ही दिखाई देते हैं। आपके सम्पर्क में इतना लम्बा समय निकल गया। कभी मेरे मुँह से किसी की बुराई निकली है।’

गुरुदेव ने परामर्श दिया-’तुम्हारा जो भी सोच हो, किन्तु तुम्हें अपना इलाज कराना चाहिये।’

दूसरे दिन गुरुदेव ने डॉक्टर के0के0शर्मा के पास फोन किया-’ तिवाड़ीजी को बुलाकर उनकी स्मरण-र्शिक्त का इलाज करो।’

उस दिन से इलाज ले रहा हूँ किन्तु जैसा का तैसा हूँ। कोई फायदा नहीं हुआ है। निश्चय ही किसी बड़े डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा। लेकिन मैं समझ गया हूँ ,गुरुदेव से बड़ा कोई डॉक्टर नहीं है।

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