aughad kisse aur kavitayen-sant hariom tirth - 1 in Hindi Moral Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 1

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औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ - 1

औघड़ किस्से और कविताएँ-सन्त हरिओम तीर्थ

एक अजनबी जो अपना सा लगा

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज

सम्पादक रामगोपाल भावुक

सम्पर्क- कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूतिनगर

जि0 ग्वालियर ;म0 प्र0 475110

मो0 9425715707, , 8770554097

परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज !!

किसी ने उन्हें जासूस कहा तो किसी ने कुछ। अन्य, जो जिस रंग का व्यक्ति था उसने उसी रूप में उन्हें अनुभव किया।एक व्यक्तित्व जिस पर लोगों की दृष्टि अनायास ठहरी है, उन्हें इस नगर में लोग अक्सर संदेह की दृष्टि से देखते रहे हैं। इस छोटे से नगर में साधू जैसी किसी की ऐसी बेशभूषा देखने को नहीं मिलती थी। इससे लगता था यह महापुरुष दुनियाँ से हट कर जीने में विश्वास रखता हैं। बेशभूषा की तरह इनका सोच भी बैसा ही दुनियाँ से हटकर था।

स्वामी हरिओम तीर्थ जी अक्सर शिव स्तुति और माँ अम्बे की स्तुति को गुनगुनाते रहते- इसे भी आप गुनगुनाकर देखें-

अथ् श्री गणेशाय नमः।

ऊँ नारायणाय परमेश्वराय

विंदेश्वराय नमः शिवाय।

हरि हराय दिगम्बराय

वटेश्वराय नमः शिवाय।

नित्याय शुद्धाय निरन्जनाय

भस्मांगराय नमः शिवाय।

रिद्धेश्वराय सिद्धेश्वराय

धूमेश्वराय नमः शिवाय।

सर्वेश्वराय गुरुवेश्वराय

तस्मै देवाय नमः शिवाय।

स्वामी हरिओम तीर्थ माँ अम्बे की इस स्तुति को गुनगुनाते रहते---

हे कल्याणी, हे रुद्रणी, शिवाशम्भवी, जगदम्वे,

माँ मातंगी, हे मीनाक्षी, हे कामाक्षी, हे अम्बे।

हे नारायणी, हे कात्यानी, हे पदमाक्षी, हे दुर्गे,

उमा माहेश्वरी, हे त्रिपुरेश्वरी, हे जगदेश्वरी, हे अम्बे।।

दूसरी बार उनसे मेरी मुलाकात नरेन्द्र उत्सुक जी के यहाँ एक कवि गोष्ठी में हुई थी। नरेन्द्र उत्सुक जी उन के अनन्य प्रशंसकों में से थे।वहाँ पहली बार स्वामी मामा जी की रचना

उनका मधुर स्वर आज भी मेरे कानों में गूँजता रहता है। उस दिन लग रहा था-सधे सरगम के स्वर से कोई साधक अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहा है।

कब तक प्रतिमायें पूजोगे,

खुद प्रतिमा बनते जाते हो,

पाषाण खण्ड पर तन मन धन,

क्यों व्यर्थ लुटाते जाते हो।।

प्रतिमा प्रतीक है भावों का,

कुछ अर्थ छुपे उन भावों में,

प्रतिमा लगती नित नई नई,

पर भाव भूलते जाते हो।।

जब भाव नहीं कोई अर्थ नहीं,

किसका प्रतीक प्रतिमा कैसी?

गूँगी बहरी निर्जीव देह,

क्यों रोज सजाते जाते हो।।

गाँन्धी गौतम बुत बने खड़े

बुत राम कृष्ण की जोड़ी है,

जहाँ हृदय अधर कंपन विहीन,

क्यों पाठ सुनाते जाते हो।।

कितने बुत पहले लगे यहाँ,

कितनी प्रतिमायें भंग हुई,

पाषाण खण्ड कभी बोले हैं?

क्यों अर्ध चढ़ाते जाते हो।।

ईसा मोहम्मद नानक रहीम,

अब अक्षर बने किताबों में

पीढ़ी तुमको धिक्कारेगी ,

क्यों सत्य भूलते जाते हो।।

सुखदेव गुरु आजाद भगत,

अब बीते कल के किस्से हैं,

इतिहास हसेगा कल तुम पर,

क्यों कन्टक बोते जाते हो।।

अब अर्थ अर्थ में समा रहा,

बिन अर्थ किसी का अर्थ नहीं,

मानव मस्तिष्क में अर्थ घुसा,

सब अर्थ भूलते जाते हो।।

उत्पीड़न शोषण दमन चक्र,

जहाँ मानव भाग्य सिसकता हो।

क्या होगा इन प्रतिमाओं से,

जो रोज बढ़ाते जाते हो।।

भूखी प्यासी मासूम नजर,

है लगी तुम्हारे चेहरों पर ,

तुम बुद्ध बने अधिकारों के,

दायित्व भूलते जाते हो।।

हे युग निर्माता ध्यान धरो,

मत तम की चादर गहराओ ,

कल जग तुमको धिक्कारेगा,

क्यों राह भूलते जाते हो।।

प्रतिमा से भूख नहीं मिटती,

नहीं सबल राष्ट्र है हुआ कभी,

वसुधा के जर-जर बेटों पर,

क्यों बोझ लादते जाते हो।।

लाहड़ी सुभाष विस्मिल पान्ड़े,

मौजूद करोड़ो लाल यहाँ,

धरती कभी वाँझ नहीं होती,

क्यों तथ्य भूलते जाते हो।।

(23.1.1982)

इस रचना ने मुझे स्वामी जी के व्यक्तित्व के बारे में सोचने के लिये विवश कर दिया। प्रतिमाओं के बारे में मैं भी सोचता रहा हूँ- आधार के बिना मन टिकता नहीं है इसलिये प्रतिमायें मन को टिकाने के लिये आधार तो हो सकती हैं किन्तु ये लक्ष्य नहीं हैं। जो इन्हें केबल भौतिक उपलब्धियों के लिये ही लक्ष्य बना लेते हैं वे जीवन भर भटकते रहते हैं। कब तक प्रतिमायें पूजोगे, भटकाव से रोकने के लिये सचेत करना है।

इस रचना को उनके मुखारविन्द से अनेको बार सुना है। हर बार नये-नये भाव निकले हैं। इस रचना को कैनेडा से प्रकाशित पत्रिका हिन्दी चेतना ने सम्मान पूर्वक प्रकाशित किया है।

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महाराजजी ने मुझे बतलाया - स्कूल में नियमित अध्ययन अधिक नहीं रहा। कक्षा आाठ तक ही नियमित अध्ययन चल पाया। इधर- उधर आने- जाने से पढ़ाई डिस्टर्व रही । यद्यपि बाद में मैट्रिक तथा साहित्य सुधाकर की परीक्षायें उत्तीर्ण की थी।

ग्वालियर में रहना बचपन से ही शुरू होगया था। इनके पिताश्री ने सम्वत् 2000 के आसपास डबरा में कृषि भूमि क्रय करली थी और वे डबरा में ही गोपीराम वूकोलियाजी के मकान को किराये पर लेकर रहने लग गये थे। यदाकदा अपने परिबार की देखभाल करने के लिये लश्कर के अपने निवास पर आते-जाते रहते थे। उन दिनों इनका निवास लश्कर शहर में पाटनकर साहब की कोठी में था। जहाँ परम पूज्य योगानन्दजी महाराज एवं स्वामी विष्णू तीर्थजी महाराज के अलावा हुजूर मालिक साहब तथा परम पूज्य स्वामी सदानन्द तीर्थजी महाराज आदि का भी आगमन हुआ था।

महाराजजी ने मुझे बतलाया-‘पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज जो उस समय कोठी में चातुर्मास के लिये पधारे हुये थे। यद्यपि स्वामी जी किसी को दीक्षा प्रदान नहीं करते थे। किन्तु हम तीनों भाई-बहन अर्थात् मैं,छोटी बहन कृष्णा जो उस समय बारह वर्ष की थी तथा अनुज गोविन्द जो नौं -दस वर्ष के थे, परम पूज्य स्वामी जी महाराज ने हमें अनुग्रहित करने की कृपा की थी।

पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज के बारे में कहीं कोई विवरण नहीं मिलता है। स्वामी जी महाराज को अपने भ्रमण काल में म0 प्र0 के नैमावर के चिन्मय आश्रम से कुछ जानकारी प्राप्त हुई है। उस आश्रम के संस्थापक ब्रह्मचारीजी पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज के गुरु बन्धु विश्वनाथ प्रकाश ब्रह्मचारी जी थे। उनका सम्पूर्ण जीवन नर्मदा के तट पर कुटी बनाकर व्यतीत हुआ। उनसे मिली जानकारी के अनुसार सदानन्द तीर्थ जी का शरीर वंगाल के प्रतिष्ठित ब्राह्मण परिबार का था। ब्रह्मचारी जी के साथ ही सदानन्द तीर्थ जी की ब्रह्मचारी दीक्षा सम्पन्न हुई थी।

काशी में छोटी गैवी में पं0 पू0 स्वामी पुरुषोत्तम तीर्थ जी का आश्रम है। उन्हीं के द्वारा सदानन्द तीर्थ जी की सन्यास से पूर्व ब्रह्मचारी दीक्षा भी हुई थी। इन ब्रह्मचारी का नाम क्षितीष प्रकाश था।

पं0 पू0 स्वामी विष्णू तीर्थ महाराज एवं पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी की सन्यास दीक्षा भी बनारस आश्रम मे ही हुई थी। दोनों ही दण्डी सन्यासी थे।

पं0 पू0 स्वामी शंकर पुरुषोत्तम तीर्थ महाराज ने दो आश्रमों की स्थापना की थी। एक बनारस में दूसरा शंकरमठ के नाम से उत्तर काशी में स्थापित किया था। जो पं0 पू0 स्वामी सदानन्द तीर्थ जी महाराज को प्रदान किया गया। उन दिनों उत्तर काशी के लिये कोई मार्ग सुलभ नहीं था। केवल पगडण्डियों के द्वारा ही वहाँ पहुँचा जा सकता था। अतः महाराज जी वहाँ जोशीमठ से आते-जाते रहते थे। महाराज जी का सारा जीवन एक परिब्राजक के रूप में व्यतीत हुआ था। ये कितने भाई-बहन थे अथवा इनकी शिक्षा कहाँ तक हुई थी इस विषय में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। जहाँ तक पता चला है, वे बार -एट-लॉ थे, अपने परिवार में वे सबसे छोटे और सबके चहेते थे तथा अविवाहित थे। निकले थे गुरु की खोज में, हिमालय से लौटकर ही नहीं गये।

ग्वालियर की इसी कोठी में हरिओम स्वामी यानी वर्तमान में परम पूज्य स्वामी हरिओम तीर्थ जी महाराज तथा उनकी छोटी बहन कृष्णा और छोटे भाई गोविन्द स्वामी को परम पूज्य स्वामी सदानन्द तीर्थजी महाराज ने दीक्षा देकर अनुग्रहीत किया था। यह वर्ष 1946 ई0 का था।

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