Tash ka aashiyana ch. 12 in Hindi Fiction Stories by Rajshree books and stories PDF | ताश का आशियाना - भाग 12

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

Categories
Share

ताश का आशियाना - भाग 12

(लंबा अध्याय)

सिद्धार्थ रागिनी को इतनी रात कहा लेकर जाए समझ नहीं पा रहा था।
"रागिनी तुम्हारे घर का पता बताओ, मै तुम्हे छोड़ देता हु।"
"हम में राही प्यारे के हमसे कुछ ना बोलिए,
जो भी प्यार से मिला, हम उसी के हो लिए।"
रागिनी पूरी तरह नशे में धुत है, इसका अंदाजा सिद्धार्थ ने लगा लिया था। कहा लेकर जाता वो रागिनी को? यहाँ भी तो नहीं छोड़ सकता था। एक लड़की को इस हालत में घर मे पेश करे ऐसे तो भारतीय संस्कारो को उलंघन हो जाता।
आखिरकर निष्कर्ष निकला वो उसे पास के किसी लॉज़ पर लेकर जाएगा।
वह पहुचे "स्वप्नसुंदरी लॉज" पर।
पहुचते ही उसने एक कमरे की डिमांड की। लॉज के मालिक ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर लड़की की हालत देख थोड़ा मुह ख्यालो से ही हँसी की तरफ मुड़ गया।
"कितने दिनों के लिए?या सिर्फ एक रात के लिए?"
उस मालिक के सवाल जानकारी कम दोहरी अर्थ ज्यादा समझ में आ रहे थे, जिस प्रकार उसने "एक रात" को थोड़ा लंबा ही खीच दिया था।
सिद्धार्थ के दाँत गुस्से से पीसने लगे थे
पर मज़बुरी खुद में ही एक मज़बुरी होती है।
सिद्धार्थ एक लंबी साँस लेते हुए "डबल बेड फॉर वन नाइट ओनली."
सिद्धार्थ के ऐसा कहते ही मानो मालिक के कान में किसी ने अमृतवाणी घोल दी हो।
४००० ₹
"४०००₹? कमरा सिर्फ एक दिन के लिए चाहिए।"
"अरे सर, तो हम कहा आपको अपना घर जमाई बनाकर रखने वाले यहा।"
"पर यहाँ तो सिर्फ १००० ₹ लिखा है।" सिद्धार्थ चिड़ते हुए बोला।
"सर, वो सिर्फ सिंगल या कपल के लिए ऐसे मामलो मे..." *रागिनी जिसने अपने शरीर को पूरी तरह से सिद्धार्थ पर छोड़ दिया था उसे देखते हुए।* "जरा कभी पुलिस की भी जेब गरम करनी पड़ती है। समझ रहे है न सर आप, मेरे बात को।"
सिद्धार्थ को ग़ुस्सा इतना आ रहा था मानो जिस जबान से यह आदमी बोल रहा था उसे कुत्तो को खिला दे।
पर इस कल्पना को रागिनी पहले ही विरोध कर रही थी उसका सिर सिद्धार्थ के छाती में धस चुका था। और हात पीठ को ऐसे कैसे हुए थे मानो फ़ैवीकोल का जोड हो।
सिद्धार्थ ने बिना कुछ ही बोले ही ४००० ₹ रख दिए।
मालिक ने चाबी के साथ एक गुलाबी रंग का छोटासा पैकेट भी सामने कर दिया।
"यह भी ले जाइये सर, प्रोटेक्शन जरुरी है। और कुछ सुविधा कर दू आपके लिए? हमारा लड़का छोटू उस्ताद है।"
बिना कुछ बोले, बिना वो छोटासा सा पैकेट लिए, सिद्धार्थ नाक से धुआ छोड़ते हुए रागिनी को लेकर ऊपर चला गया।

सिद्धार्थ जैसे तैसे कर ऊपर पहुचा।
रागिनी की कोई हलचल नही कर रही थी इस बात से यह तसल्ली हुई की वो रूम का ताला खोल सका।
रूम कुछ खासा स्वीट नहीं था।
रंग लगाया था, वो भी कही जगह से निकल आ रहा था।
एक पुराना वीडियोकॉन का टीवी था, चलता भी होगा या नहीं, पता नहीं।
बेड भले ही दो लोगो के लिए था, लेकिन जैसे ही सिद्धार्थ ने रागिनी को उस बेड पर तभी उसमे से आवाज आना शुरू हो गया। इससे पता चला रहा था की शीट भी काफी पुराणी हो चुकी थी इस के बावजूद भी मुझसे ४००० ₹ लिए इस ख़्याल से ही सिद्धार्थ के दाँत पिसे जा रहे थे।

रागिनी को बेड पर बैठाते ही कुछ अनसुने शब्द उसके जुबान से फुटने लगे।
उसने सिद्धार्थ को अपने बाजू में बैठने का इशारा दिया।
सिद्धार्थ ने इस बात से मना कर दिया तो उसने उसे खीचकर अपने बाजू बैठा लिया और उसके कंधे पर अपना सिर रख दिया।
सिद्धार्थ हिचकिचाया पर जब रागिनी रोने लगी तो उठ जाओ यह कहने का तक मन उसे नही हुआ।
रागिनी नशे में तो थी, लेकिन नींद का निशान कही गायब हो गए थे।
रागिनी ने अपना सिर सिद्धार्थ के सिरहाने रख दिया।
मै गलत नहीं थी , बस मजूबर थी।
सब परिवार वाले मुझसे प्यार करते थे।
पापा, ऋषभ भैया, कुमार भैया, नवीन भैया सब लोग,
सब ठीक था।
लेकिन एक दिन सब बदल गया।
"भारद्वाज गारमेंट" को बहुत बड़ा नुकसान हुआ।
बहुत कोशिशे हुए बचाने की।
भारद्वाजकंपनी का नाम धीरे-धीरे मिटाता जा रहा था। मेरे चाचाजी प्रताप कुमार भारद्वाज उन्होंने इस पर सलाह दी की घर में दोष होने के कारण यह सब हो सकता है।
वारणसी के बहुत बड़े पंडित नारायण प्रेम प्रताप शास्त्री को बुलाया गया। उन्होंने सबकी कुंडलिया देखी।
उन्होंने तब यह कहा की दोष घर या व्यापार में नही बल्कि मेरी कुंडली में है।
अगर इस घर का दोष दुर करना है तो ग्रह शांति की पूजा करनी होगी। दो दिन ग्रह शांति की पूजा चली सबने कहा मेरे जन्मदिन की पूजा है। सप्टेंबर की पूजा जुलाई में करना मुझे ख़ासा अजीब लगने लगा पर पूजा आखिरकार पुरी हुई। पंडित ने कहा अब धीरे-धीरे सब परेशानियां दूर हो जाएगी बस मेहनत में कोई कसर ना छोड़े।
लेकिन फिर भी एक बार फिर पापा का टेंडर हाथ से चला गया क्योंकि पापा मशीनरी नही बल्कि वर्कर की मदत से अपनी मिल चला रहे थे। उसमे मेरी क्या गलती थी? बोलोना! सिद्धार्थ कुछ भी नही बोल रहा था। बस वो जाने अनजाने ही सही रागिनी के सिर को सहला रहा था ताकि रागिनी चैन से सो सके।
"इतना मत सोचो रागिनी, जो हो गया सो हो गया।"
"नही !! "रागिनी चिल्लाई। "जो हो गया सो हो गया नही।"
मेरी कोई गलती नही थी। जो मुझे खुदसे दूर दिल्ली भेज दिया गया, बिना मेरी मर्ज़ी जाने।
गलती उनके काम करने के तरीके में थी। ग्रह शांति तो पहले ही हो चुकी थी।
क्यो सुनी पापा ने चाचाजी की बात की वो मुझे दिल्ली भेज देगे तो सब ठीक हो जाएगा। क्योंकि वो मुझसे ज्यादा अपने बिज़नेस से प्यार करते थे। माँ को भी इमोशनल ब्लैकमेलिंग किया गया, पति या बेटी बुल**ट?
आखरीकार मुझे पढ़ने दिल्ली भेज दिया गया मेरे मासी के घर।
रोज रात में अपने माँ के लिए चिल्लाती और माँ की जगह मासी आ जाती। जब कुछ महीनो बाद पता चला माँ नहीं आएगी तब रोना नही आया।
मेरी मासी मेरे लिए माँ बन गयी मासी को मेरी ग्रहदोष से किसी भी तरह की प्रॉब्लेम नही थी उन्होंने मुझे उतने ही प्यार से पाला जितना वो कभी अपने बच्चे को संभालती।
उनके पति फौजी थे, बॉर्डर पर लढते हुए उनकी मौत हो गयी। और बेटा-परिवार कर सके ऐसे हालात कभी बने ही नही उन दोनों के बीच।
पर वो हमेशा कहती "प्यार को कभी छुआ नही जाता, बस महसूस किया जाता है।"
पर यह बात उनकी थोड़ी अजीब है, ऐसा ही मुझे लगा है आजतक। खुद पैसा कमाने के लिए दिल्ली के छोटेसे हॉटेल में शेफ का काम करती थी।
माँ बाबा मुझसे मिलने आते पर कुछ ऐसा था जो मुझमे पहले कही खो गया था। रागिनी की आंखों से आंसू झलक उठे जो आंखों के किनारे सिद्धार्थ के पैरो पर अपना अस्तित्व बना रहे थे।
वो हमेशा पैसे भेजते मेरी पढ़ाई के लिए, खर्चे के लिए लेकिन मासी सिर्फ पढ़ाई के लिए पैसे लेती।
जो पैसे उन्हें मेरी देखभाल करने को मिलते वो पसे हमेशा वो बैंक फंड में जमा कर देती। वो हमेशा कहती "जब वक्त पड़े,तो पैसा निकाल लेना। तेरा ही है।"
क्यो, क्यो वो बाकियो की तरह नही थी? क्यो उन्होंने पैसो के लिए नही संभाला मुझे? क्यो मेरी वो माँ बनी? क्यो हमेशा यह जताती रही तु अकेली नही है? क्यो खुदकी इतनी आदत लगाई? और
फिर क्यो एक दिन अचानक वही छोड़कर चली गयी जहा से मैं आयी थी? क्यो?क्यो!?
रागिनी अब गला फाड़कर रो रही थी, मानो कंठ तक जल रहा हो, आंसूए तक गर्म लपटे छोड़ रही हो, नाक लाल, चेहरा एक जीवंत वेदना दर्षाता हुआ एक कलचित्र हो।
सिद्धार्थ को क्या कहे रागिनी को कैसे संभले पर बिना कुछ सोचे समझे उसने उसे गले लगा लिया।
रागिनी रोई, "क्यो कोई अपनी आदत लगाकर बीच रस्ते छोड़कर चला जाता है?"
सिद्धार्थ को कुछ वक्त के लिए ही सही चित्रा का ख्याल आया पर रागिनी की चिंता के सामने चित्रा एक भूतकाल बन चुकी थी।
बहुत रोई रागिनी, जब तक कंठ घुटने टेक नही देता तब तक, आंखे धीरे धीरे थकने लगी।
पर सिद्धार्थ बैठा रहा बिना थके एक छोटी बच्ची के बालों को सहला रहा था ताकि वो सुकून से सो सके।
उसकी नींद तो कब की हमेशा की तरह थककर आंखों से गायब हो चुकी थी।