जीवन के सप्त सोपान 10
( सतशयी)
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अर्पण-
स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में
सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
आभार की धरोहर-
जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)
मो.9981284867
पीछे निंदा करत जो,अरु मुँह पर तारीफ।
उसे हितैषी मत समझ,दुश्मन विश्वा बीस।।
श्रद्धा में सब कुछ भरा, पावै श्रद्धावान।
श्रद्धाहीन न पा सकैं,कुछ भी,सच्ची मान।।
ईर्ष्या,स्वार्थ भाव में,नहीं भक्ति का वास।
पूर्ण ब्रह्म में मन लगा,तो भक्ति के पास।।
जो कुछ भी दिखता तुझे,समझ गुरु का रुप।
नहीं असंभव है कहीं,हन जाओ तत रुप।।
अगर माँगने ही चले,माँगो मालिक द्वार।
क्या रक्खा संसार में,उसका ले आधार।।
जंग लगा बर्तन तेरा,शुद्ध पदारथ आस।
क्यों इतना नादान हैं,गुरु चरणों कर वास।।
जम्बूरे लोहार के, क्यों तपते दिन रात।
कभी अग्नि में मुख तेरा,कभी नीर के पास।।
जब तक दुनियाँ पास है,तब तक प्रभु नहीं पास।
एक म्यान में कब,कहाँ,दो तलवार निवास।।
हानि-लाभ,सुख-दुःख उभय,जब तक है मन माहि।
नहीं पकड़ सकता कभी, श्री गुरुवर की बाँहे।।
मनहि पराजित कीजिए,बहुविधि कर संग्राम।
श्रेष्ठ बनो योद्धा तभी,गुरु आश्रय सुख धाम।।
भक्ति मार्ग अति सूक्ष्म है,अरु लम्बा है दौर।
गुरु के ही अबलम्ब से,पा जाओगे छोर।।
ह्रदय खूब ही तौल कर,बाहर बोलो बोल।
जो ऐसा करते रहै,बनै सदाँ बे-मोल।।
अपनी ही हर बात को,उचित न मानो मीत।
गुरु निरीक्षक है -बड़े, एही सनातन रीत।।
सदाँ बड़ा,वाचाल से,मित भाषी को जान।
एक शब्द में छिपा है,सौ शब्दों का ज्ञान।।
प्रेम, नम्रता, शीलता, तोष, आस, विश्वास।
तथा याचना में रखो,गुरुवर चरण निवास।।
जेहि मन रमता झूठ है,सत्य न उसे सुहाए।
द्वेश घृणा उससे रखे,जो उसको समझाए।।
मन मति जिसका चलन,है स्वार्थ से हेत।
उसकी संगति से रहो, दूर हजारों खेत।।
बहुत कठिन है छोड़ना,पूर्व जमें संस्कार।
धीरे-धीरे उन्हीं का,कर सकते उपचार।।
सदगुरु आज्ञा श्रेष्ठ है,अन्य कार्य लघु जान।
अबहेलन करना नहीं,सब कुछ गुरु को मान।।
बैठे जो नीचे सदाँ,मालिक के कर क्षत्र।
गुरु कृपा का पात्र है,सुख पावै सर्वत्र।।
सदगुरु रक्षक उन्हीं के, जो उनके आधीन।
सभी काल,निज भक्त की,जिम्मेदारी लीन।।
है अमूल्य गुरु भक्ति, भलाँ कष्ट से पाव।
सस्ता ही मिलना समझ,श्री सदगुरु का गाँव।।
क्षण भंगुर सुख के लिए,सिर दे देते लोग।
स्थायी सुख,गुरु कृपा,जग न्यौक्षावर योग।।
गुरुवर नित्या नंद है, पारब्रम्ह परिपूर्ण।
उनके निर्भय राज्य में,चाटो पद रज चूर्ण।।
चरण शरण जब से मिले,सब झंझट निर्मूल।
पाकर किरपाद दृष्टि को,इच्छाएँ,जाए भूल।।
केवल उतना ही सुनो,और गुनो मन माहि।
जिससे सदगुरु चरण में,उपजे प्रीति सदाँहि।।
किरपा गुरु की,तब मिलै,हो सम भावी भाव।
साँसारिक इच्छा मिटै, रहे न कोई चाव।।
विद्या,पद,धन,कला से,नहीं सदगुरु को पाय।
गुरु को पाना चाहे तो,चरण शरण में जाय।।
सबको सबकुछ गुरु ने,बाँटा है भरपूर।
बरले को देते दिखे,भक्ति संजीवन मूरि।।
कृपा गुरु की विना ही,मिटै मन के मैल।
मौज आपकी मिल सकें,वहीं बता दो गैल।।
निगरानी मेरी करो,ये मालिक दातार।
मैं अज्ञानी जीव हूँ,विनती बारम्बार।।
ऐहि तन को नित कोषते,चलै प्रमादी राह।
वे संसारी जीव है,क्षण सुख-दुःख से दाह।।
कर सकते कुछ भी नहीं,तेरा दुश्मन लाख।
सदगुरु का ले सहारा,बन जाएगी साख।।
गुरु प्रसन्न हो जाए तो,नहीं किसी से काम।
सच्चा सुख गुरु चरण में,वह वैकुण्ठी धाम।।
इस जीनव का सारधन,सतगुरु आज्ञा एक।
रहो भरोसे उन्हीं के,तज कर सारी टेक।।
श्री सदगुरु शरणागति,सब सुख का घर जान।
दुनियाँ में सुख है नहीं,अब भी मनुवाँ मान।।
माणि-माणिक-मुक्ता,नहीं सुख के भण्डार।
गुरु सरुप में है सभी, है असार संसार।।
रुहानी मारग चलो, धरो राहवर ध्यान।
मन का कहना मत करो,गुरु आज्ञा सत मान।।
घड़ी साज ज्यौं जानता,सब पुर्जों का राज।
ऐसे ही गुरु की दृष्टि से,चलते है सब काज।।
पर उपकारी एक है,श्री सदगुरु महाराज।
सुरति शब्द से जोड़कर,करते सबके काज।।
गुरु का सत आदेश है,समय न जावै व्यर्थ।
कभी न डसने पाएगा, बेकारी का सर्प।।
वाद-विवादों का त्यजन,रहें गुरु के आधार।
अपनें जीवन में घना, पाएगा विस्तार।।
शास्त्रों को कंठस्थ कर,नहिं पाओगें चैन।
सभी सुखों का सार है,ह्रदयंगम गुरु बैन।।
मालिक के चरणों बढ़े,प्रेम,प्रीति अरु नेह।
कर्म करो, ऐसे सदाँ, पावों- गुरु सनैह।।
मन सा कायर और को,ध्यान शस्त्र ले हाथ।
शब्द धार की धार लख,करै न कोई बात।।
शब्द आत्मा आपकी,शब्द सुखों की खान।
सुप्त भाव जागें सभी,शब्द ब्रह्म पहिचान।।
नाम रुप के जहाज चढ़,तर गए पतित हजार।
ह्रदय प्रेम को देखते,आदि पुरुष करतार।।
एक-एक संग होत है,एकादश का भाव।
एक अकेला एक है,चूक न अपना दाव।।
मैं,मेरी अथवा खुदी,मिट जब होती एक।
त्याग जगत का आवरण,खींच अनूठी रेख।।
छोड़ न दैना,हे प्रभु कर्म हीन मोहे जान।
भक्ति दान दे दो मुझे,विरद संभालो आन।।
सर्व व्यापक हो प्रभु,देखै सबको रोज।
एक बार ही टेर ले,पा जाएगा मौज।।
उसे देख सकते नहीं,असमंजस की दृष्टि।
अगर पुकारो आर्त स्वर,करै कृपा की दृष्टि।।
पल-पल में प्रभु दर्श कर,सुद्ध ह्रदय के माहि।
वर्णन करना है कठिन,ज्यौं गुड़-गूंगा खाहि।।
मालिक के दरबार में,सच्चे मन से जाए।
एक उपस्थिति में तेरी,मनसा पूर्ण हो जाए।।
मालिक की बिन मौज के,मिलै न गुप्त रहस्य।
नहीं सुनाना किसी को, रहै कंजूसी बस्य।।
अहंकार से दूर है,मालिक हाथ हजार।
दीन भाव से पाओगे,मालिक का दरबार।।
संसारी जन जिस तरह,धन साधन लें खोज।
तूँ भी गुरु की मौज में,पा ले अपनी मौज।।