जीवन के सप्त सोपान 9
( सतशयी)
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अर्पण-
स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में
सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
आभार की धरोहर-
जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)
मो.9981284867
बिन अवाज के मंत्र जप,हिलते ओष्ठ दिखाँए।
मुँह के अंदर क्रिया हो,प्रथम से आगे जाए।।
ओष्ठों का हिलना रुके,मुँह पर केन्द्रित ध्यान।
अंदर-अंदर जप चले,तृतीय भाग पहिचान।।
मन के अदंर जाप हो,मुँह की क्रिया बंद।
तीनों से अति सूक्ष्म हो,अजपा जापी छंद।।
जब,अंतःजप मन करै, मन ही सुनै विशेष।
सबसे है यह सूक्ष्मत्तम,बिन प्रयत्न,क्रमछेक।।
जब साधक की चित्त वृत्ति,नाद परिवर्तित होए।
अपना -आपा सून्यवत, नाद -योग में खोए।।
वहां जगत व्यापक समझ,दृश्य नाद जहाँ होत।
उससे आगे का चलन,असम्प्रज्ञात में खोत।।
कई तरह से सुन पड़े, नादों का संवाद।
जलधी,जलद,भेरी,तुमुल,शंख शब्द का नाद।।
अंदर जिसके यह ध्वनि,सरस,मधुर हो जाए।
वंशी, वीणा, भ्रमर की, गुंजन मधुर सुहाए।।
हो विलीन चित्त,जीव जब,नाद जगत के बीच।
चिंता आशा, वासना, छोड़, नाद लय सींच।।
भ्रमर-पुष्प रस,ग्रहत ज्यों,गंध चाह नहीं आए।
विशष वासना त्याग चित्त,तिम नादहि अपनाए।।
नाद योग में जो बंधा,हो जाता सब त्याग।
सर्प,नाग अरु पुरंग भी,बंध जाता अनुराग।।
ब्रह्मप्रणव में जो पगा,ज्योति स्वरुपा नांद।
उसी अवस्था को समझ,विष्णु परमपद पाद।।
विन आश्रय अवलम्ब के,चित्त स्थिर जब होए।
प्रणव ब्रह्ममय नाद है,तुरीय अवस्था सोए।।
अमन नाद के श्रवण की,चार अवस्था जान।
आरंभी, घट, परिचया, निष्पत्ति पहिचान।।
कुण्डलिनी की जागृति,अति आनंद अनुभूति।
कई क्रियाएँ दान की,चित्त पाता स्फीर्ती।।
प्राण वायु चढ़ सुषुम्ना,भेदत विष्णु ग्रंथी।
घटावस्था योग की,शब्द कंठ की संधी।।
साधक मर्दल ध्वनि सुनै,वायु संयम शून्य।
जगदातीत शक्तियाँ,जरा दोष अब शून्य।।
ब्रह्मरन्ध्र तक प्राण गति,वैणु,वीणानाद।
ईश समानी शक्ति पा,नादी हो आवाद।।
यम नियमों पालन करत,साधक मन को बाँध।
अनाशक्त अनुष्ठान से,नाँद ब्रह्म को साध।।
मन-पारा को बाँधने,नाँद गंध का योग।
ब्रह्माकारी वृत्ति हो,चंचलता दे रोक।।
प्राण शक्ति-चित्त जब,आत्मा में लय होए।
शेष न चेष्ठाएं कोई, उन्मन नाँदी सोए।।
व्युथान क अवस्था,पाँच लीजिए मान।
जागृत,स्वपन,सुषुक्ति,मूर्छा,मरण प्रमाण।।
समाधिस्थि योगी सदाँ,गंध-रुप हीन।
नाँद स्पर्शी ज्ञान से,अमन पराया छीन।।
गंध बेभ दो होत है, सुचि सुगंध, दुर्गध।
योगी जिनसे है परे,चलै जग बिन अनुबंध।।
मधुर,अमल,कटु,तिक्त है,लवण और काषाय।
षट प्रकार के रस रहित,योगी चलत दिखाय।।
शक्ल,पीत,लोहित,हरित,नील,कपिस अरु चित्र।
योगी त्यागत सभी को,करते चलते मित्र।।
तीन भेद स्पर्श के,शीत,ऊष्ण को जान।
तृतीय अनुष्ठा शीत है,शुद्ध योग पहिचान।।
जलधि,जलद और दुन्ध भी,शंक,वीण,मृदंग।
नाँद आन्तरिक धवनि भी,रहें न नाँद प्रसंग।।
स्वाँस-प्रस्वाँसी क्रिया जब,लगभग होए विलीन।
स्वस्थ्य समाधि अवस्था,योगी मुक्त प्रवीन।।
इसी साधना को करत,योगी पाते योग।
साधक जन अपनीइए,योग क्रियाएं भोग।।
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छठवाँ- मन माया का त्याग
मन,इन्द्रिए आधीन नहीं,सदगुरु सेवक होए।
जान परीक्षा घड़ी यह,रहो सजग,नहीं सोए।।
क्रोध कभी नहीं कीजिए,नहीं अनुचित व्यवहार।
ध्यान सदा गुरु के वचन,ये गुरुमुख के कार।।
दुर्जन को मित मानकर,बुरा न सोचो मीत।
इसी साधना से मिलै,जीवनदायी जीत।।
दुष्ट मिलैगे मग बहुत,मत करना तकरार।
सहन करो चुपचाप सब,सदगुरु पहै पुकार।।
औरो का सम्मान ही,बुद्धिमान पहिचान।
त्यागमान-अपमान को,हो जाओ निरमान।।
बिना भजन अभ्यास के,मिलै न भक्ति कोए।
जैसे व्यय की पूर्ति भी,आय विना कब होए।।
भक्त बुद्धिवादी नहीं,होते कर्म प्रधान।
मायावी,क्षल-छद्म से,प्रभु का करै बखान।।
नाम अमौघी अस्त्र है, माया को दे पाट।
सुमिरण ही महाशक्ति है,नहीं हो बारह-बाट।।
आत्मिक शान्ति के लिए,कर सेवा सत्संग।
मालिक से जोरे रहो,दिल के तार अभंग।।
जिस मन रुपी शत्रु ने, धोखे दिए अनेक।
उस पर मन विश्वास कर,गुरु ही साक्षी एक।।
मन को विषय विकार से,हटा लीजिए मीत।
निश्चय है, नहीं जाओगे, चौरासी के बीच।।
सुरति चढ़ाई कठिन है,सेवक धर ले ध्यान।
गिरकर,उढने में लगे,बहुत समय को मान।।
मालिक पर विश्वास कर,धैर्य धरो मन बीच।
सांसारिक ऊहा-पटक,मिटै समय को खींच।।
सत पुरुषों के संग से,मन प्रसन्न हो जाए।
सत संगत करना सदाँ,जिएत मोक्ष को पाए।।
गुरु शब्द अभ्यास का,क्रम ज्यौं ही बन जाए।
क्रोध न आए पास में,मन बिकार हट जाए।।
आपा-धापी मत करो,धरो प्रभु का ध्यान।
चिंता चतुराई तजो,ऐहि में है कल्याण।।
साथ न जाती है कभी,यह सांसारिक चीज।
त्याग भाव अपनाईए,इनसे कभी न रीझ।।
अटल सत्य पहिचानिए,कर्म प्रधानी लेख।
रात दिवस से जानिए,मन में करो विविक।।
चिंतक चित को साध ले,गुरु में हो जा लीन।
क्यों कैसे,क्या-क्या हुआ,सब प्रभु के आधीन।।
नियम न तोड़ो भजन का,नियम तजो दुःख होए।
आपा- धापी जहाँ भई, आतम शक्ति खोए।।
मोह आदि से त्याग मन,यह सत्संग प्रभाव।
जीवन क्षण भमगुर समझ,क्यों मन लाता ताव।।
परद्रोही, पर दार रत, नश्वरता की राह।
मोह आदि किस वास्ते,जब क्षण भंगुर चाह।।
आना जाना नियति है,इसे जान लो मीत।
सुख-दुःख फिर किस वास्ते,होगी तेरी जीत।।
गुरु चरण की छाँव गह,निर्मल सीतल जान।
सुख की नींदों सोएगा,गुरु वाणी को मान।।
पात्र बनों सदगुरु कृपा,जो चाहो कल्याण।
सदाँ दर्श पाते रहो,तज मन के अभिमान।।
मान सुमिरणी श्रेष्ठ है,चलती रहे हमेश।
फिर प्रमाद है किस लिए,चले जाओ उह देश।।
सदगुरु शरणें जो गया, उसका बेड़ा पार।
यहीं मुक्ति का मार्ग है,कर लो उससे प्यार।।
समय सार्थक कर चलो,समय न आता लौट।
व्यर्थ समय नहीं खोईए,गहन समय की चोट।।
मन-आत्म की हो रही, आपा-धापी नित।
सबल आत्मा को बना,करके निर्मल चित्त।।
इक विवेक से ही रहा,पशु मानव में भेद।
मानव होकर पशु बनै,इतना सा ही खेद।।
प्रेम करो विश्वास ले,सदगुरु आज्ञा मान।
निश्चय ही होता मिलन,पूरी है पहिचान।।
बड़ीं भुजा गुरुदेव की,सब ब्रम्हाण्डों पार।
सेवक की रक्षा करै,लीला अपरम्पार।।
स्वारथ को तज के चलो,परमारत की राह।
यहीं गुरु आदेश है,चल दें बिन परवाह।।
मत बनना मन के चतुर,सदगुरु आज्ञा बीच।
रीति सनातन है यहीं,गुरु वाणी को सींच।।
कभी न बोलो बीच में,दो का जहाँ संवाद।
भूल कभी नहीं जाइए,होवै जहाँ विवाद।।
पद-पदवी की दौड़ में,कभी न दौड़ो दौड़।
सत पुरुषी चित से बनो,वे सब पीछे छोड़।।
तेरी क्या सामर्थ्य है,प्रभु की जो सामर्थ्य।
पल में सब करता वहीं,नहीं समझा कुछ अर्थ।।
माया अपरंम पार है,जान सके नहीं कोए।
सदगुरु की शरणैं चलो,राम करै सो होए।।
गुरु समान को जगत में,है हितकारी मीत।
सब सम्बन्धों को तजो,जो चाहों जग जीत।।
जग रुठे,रुठा रहे, होए न हानी कोए।
बाल न बाँका हो सके,गुरु प्रसन्न जो होए।।
भटके बहु संसार में,चापलूश की बात।
नहीं समझ पाते कभी,बात-बात में घात।।
सबसे गहरै शत्रु है,मिठबोला,चापलूश।
लोग समझते मित्र है,पर वे लेते चूश।।