जीवन के सप्त सोपान 8
( सतशयी)
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अर्पण-
स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में
सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
आभार की धरोहर-
जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)
मो.9981284867
पंचम- योग क्रिया पद-
हैं अनमोले वचन ये,साधक जन लो साध।
आत्म मोक्ष पद पाओगे,मिटैं सकल भव व्याधि।।
जग प्रपंच जो दृश्य हैं,नित्य न जानौ सोय।
यह चित के संयोग संग,आदि अंत सब होय।।
चित ज्ञान के योग से,जग नानत्व दिखाए।
चित से ज्ञान विलुप्त जब,जग अस्तित्व मिटाए।।
योग अनेकौ ,यौ समझ,भक्ति,कर्म अरु ध्यान।
ज्ञान,उपासना,हठ,लय,और बहुत कुछ मान।।
अनुभवगम्य,प्रत्यक्ष नहीं,वह असत्य है मीत।
सबका मानन है यही,सत प्रत्यक्ष की जीत।।
सास्त्र ज्ञान में उलझकर,जीव जगत भटकाव।
एक श्रेष्ठ मत यही है,योग शास्त्र का भाव।।
योग शास्त्र में जानिए,चित्त वृत्ति का निरोध।
चित चंचलता,वासना,छय होने का शोध।।
योग शास्त्र के अधेष्ठा,है शंकर भगवान।
योग पद्धति के जनक,उद्गम के स्थान।।
सभी वासना त्यागकर,आत्मानंद को जान।
आत्म प्रकाशक है यही,योग मार्ग पहिचान।।
ईश शक्ति चैतन्य की,अभिव्यक्ति जग जान।
स्थित हो सब ईश में,भिन्न न कोई मान।।
जिम अनेक जल घट लखो,रवि प्रतिबिम्ब अनेक।
किन्तु सूर्य तो एक है,आत्म तत्व इम लेख।।
कारण सूक्ष्म स्थूल सब,कर विलीन परमात्म।
जन्म,मरण,बंधन,मुक्त,योग मार्ग जीवात्म।।
क्षण भंगुर मिथ्या जगत,माया के अनुसार।
उदय-अस्त होता सदाँ,माया का विस्तार।।
जिम सागर की तरंगे,अलग न सागर जान।
आत्मा में कल्पित जगत,माया कारण मान।।
क्षीण अविद्या के हुए,जगत भ्रान्ति हो दूर।
आत्मास्थित जीव तब,सुख पावै भरपूर।।
गुरु कृपा अंतःमुखी,शक्ति जागृत जान।
मल-विछेपी-आवरण,हटै चित्त से मान।।
स्वयं भ्रान्ति जब अविद्या,कल्पित जग किम सत्य।
फिर आशक्ति किस लिए,क्यों कर जीवन नृत्य।।
आत्मा चैतन्य रुप है,जग उत्पत्क हेतु।
फिर भटकावा,जीव क्यों,चढ़ जा जीवन सेतु।।
आत्मा द्वारा आत्मा,आत्मा में ही देख।
योगी चित्त निरुद्ध कर,योग मार्ग का लेख।।
माया,जग विस्तार में,सत्य नित्य कुछ नाए।
आत्मावस्थित होत ही,आनन्द धन को पाए।।
पंचभूत का घटक है,इस शरीर का रुप।
तज शरीर आशक्ति को,पावै आत्म स्वरुप।।
इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना,मिल होतीं जहाँ एक।
त्रिवेणी संगम वही , आज्ञाचक्र विशेष।।
इड़ा पिंगला प्रकट है, जैसे यमुना गंग।
गुप्त सुषुम्ना सरस्वती,जानों योग अभंग।।
त्रिवेणी स्नान को, ध्यान अवस्था जान।
नित्य क्रमिक करते रहो,योग त्रिभंगी मान।।
जब साधक की चेतना,हो जाती चैतन्य।
भीतर बाहर एक है,होता दृश्य न अन्य।।
जब विकार के तत्व सब, हो जाते है क्षीण।
आत्मतत्व चित्त प्रकट तब,बजतीं अनहद वीण।।
सत्व रुपी जल सुद्धमय,श्रैष्ट ,सुषुम्ना जान।
वहाँ तरंगो की गति, है आनन्दी खान।।
चित्रा नाड़ी उच्चत्तम, रहे सुषुम्ना बीच।
दिव्य,अमर आनंद को,जो लाती है खींच।।
ध्यान केन्द्रित होय जब , चित्रा के अनुकूल।
चित्त शुद्ध,सब पाप क्षय,मिटैं सकल भव शूल।।
मूलाधर कमल एक,चार अंगुल विस्तार।
गुदा-मेढ़ु के मध्य में,रुप त्रिकोणा कार।।
कुण्डलि साढ़े तीन ले,यह कुण्डलिनि एक।
मार्ग सुषुम्ना रोकती, जो विधुत की रेख।।
सृष्टी रच उपरांत जो , शक्ति बचै सो शेष।
सत-रज-तम कुण्डलि लिए,कुण्डलिनि अभिषेक।।
त्रय कुण्डली के मध्य में,जिसका छिपा स्वरुप।
योगी जन -पहिचानते , शुद्ध वृभ का रुप।।
इड़ा-नासिका वाम में,दहिन पिंगला जान।
युक्त सुषुम्ना होत ही,विपरीती प्रस्थान।।
षष्ठ कमल,या चक्र में,है इसका विस्तार।
स्वाधिष्ठान ,अनाहत, आज्ञा, मूलाधार।।
मणिपूर और विशुद्ध है,इस नाणी के रुप।
साढ़े त्रय लक्ष नाड़ियाँ,रहै देह के कूप।।
अन्य नाड़ियाँ देह में,मूलाधार से जान।
जिव्हा,मेंढ्र,नेत्र,पग,श्रवण,अंगुष्ठा मान।।
इन्हीं नाड़ियों से भई,उपशाखाएँ अनेक।
अंग और प्रत्यंग में,जिनके कार्य विशेष।।
मूलाधार मणिपूर तक,अग्नि मण्डल कहलाए।
मणिपूर से विशुद्ध तक,रवि मण्डल दर्शाए।।
ऊपर जान विशुद्ध से,चन्द्र मण्डल स्थान।
योग साधना के लिए,गोयी धरते ध्यान।।
द्वादश कलाओं युक्त है,अग्नि मण्डल विस्तार।
बैश्वानर की शक्ति से, भोजन पाचन कार।।
कई तरह के योग है,किन्तु मुख है चार।
राज,मंत्र,लय,हठ सभी,मुक्ति के आधार।।
सो.-ज्ञान भक्ति अरु योग,अनाशक्ति कर उपासना।
सुचि प्रकाश राज योग,नोद योग जीवन सुखद।।
स्व-शरीर सुदृढ़ करन, नाड़ी -शुद्धी प्रयास।
प्राण वायु का नियमनन,हठ योगी की आस।।
प्राण वायु को सुषुम्ना,में करना भी जान।
ध्यान,साधना,मंत्र,जप,आसन का भी ज्ञान।।
प्राणायाम अभ्यास से,सुनते अनहद नाद।
चित्त वृत्ति कर केन्द्रित,विना किसी आघात।।
महायोग की जागृति, हो जाने के बाद।
स्वतः साधना मे मिले,सभी योग का स्वाद।।
कई जनम की साधना,अरु संचित संस्कार।
बिन प्रयत्न ही योग का,अंर्तमुखी व्यापार।।
महा माया जगदम्ब के,कुण्डलिनी की शक्ति।
क्रियाशील अंर्तमुखी,हो जागृति -अनुरक्ति।।
संचित चित्त संस्कार जो,बाहर निकलन लाग।
कृपा दृष्टि हो शक्ति की,योग सिद्धि मन जाग।।
कुण्डलिनी की जागृति,परम,चरम है लक्ष्य।
सब मुद्राएँ स्वतः ही, होती ह्रदय- कक्ष्य।।
शक्ति जाग-ति से सदाँ,चलता रहता जाप।
इस क्रिया का नाम है,स्मृति-अजपा जाप।।
नाद श्रवण चित उदय से,कई ध्वनियाँ समवेत।
धीरे-धीरे, सूक्ष्म बन, चित्त -सुद्धता हेत।।
चित्त विलय होवै जभी,आत्म शक्ति चैतन्य।
असम्प्रज्ञात समाधि है,लुप्त क्रियाएँ अन्य।।
शक्ति जागृत होत ही,स्वतः सिद्धि आरंभ।
कर्ता के स्थान पर,दृष्टा भाव न दम्भ।।
प्रत्येक शरीरी गुरु में,गुरु तत्व का बास।
सच्चे गुरु से हेत कर,गुरु तत्व है खास।।
गुरु तत्व,चित्त शिष्य के,जागृत जब हो जाए।
केवल उसको वह दिखे,आत्मस्थ बन जाए।।
गुरु तत्व की शक्ति से,हठ जाते सब दोष।
वे सारी अनभूतियाँ, गुरु कृपा में देख।।
गुरुमुख विद्या फलवती,बिन गुरु है निर्वीय।
गुरु प्रसन्न के होत ही,सकल सिद्धी सम्भवीय।।
गुरु शरीर,गुरु होत नहिं,अंतः ईश्वर शक्ति।
गुरु उसी को मानिए,करो गुरु की भक्ति।।
अपनी मुक्ति हेतु जो,करै उपाय अनेक।
आण्वी दीक्षा कहै उसे,अभिमानी मत,टेक।।
गुरु द्वार दीक्षा मिले,शक्ति दीक्षा जान।
शुद्ध होए अंतःकरँ,गुरु आज्ञा कर ध्यान।।
तपो निष्ठ गुरु ब्रह्मवत,भाग्य बनंत ही पाए।
शाम्भवी दीक्षा मिलत,शिवो अह्म हो जाए।।
साधक चित्त में चेतना,स्व शरीर ब्रह्माण्ड।
सब सीमाओं से बिलख,शाम्भवी का खंण्ड।।
जिम चाबी ताला खुलै,योगी प्राणायाम।
कुण्डलिनी की साधना,मोक्ष मार्ग का धाम।।
योग साधना के लिए,है वैराग्य विशेष।
चित्त संयत,निजवस करो,संस्कारयुत वेश।।
चार स्तरों में बटा, जग बैराग्य सुजान।
यत,व्यतिरेक,ऐकेन्द्रीय,बशीकरण का ज्ञान।।
विना किय जप,क्रिया में,जप होता दिखलाए।
विना परिश्रम जप चले,अजपा जाप कहाए।।
पाँच- स्तरों में बटा, अजपा- जाप बिचार।
जिसके क्रम की साधना,क्रिया शक्ति आधार।।
क्रम उत्तरोत्तर चलै जब,सूक्ष्म,सूक्ष्मतर होत।
अजपा जप की अवस्था,अति सूक्ष्मत्म होत।।
अपने आपहिं उच्च स्वर,मुख से निकलन लाग।
बिना नियंत्रण मंत्र जप,अदृश्य शक्ति जाग।।