पहले तो कोरोना के कारण लंबी बंदिशें लगी। फिर जब सब कुछ सामान्य होने लगा तो एक के बाद एक घटना ऐसी घटनी लगी कि मन खिन्न हो गया। लखीमपुर खीरी की घटना के साथ-साथ हमारी युवा पीढ़ी नशे के जाल में उलझती जा रही है। यह चिंता की बात है। जीवन अब खुला-सा है। खुलेपन का सबसे बड़ा दृश्य अब इस रूप में दिख रहा है। निश्चित रूप से शिक्षण संस्थाएं भी इससे अछूती नहीं होंगी। इन घटनाओं को देखकर हम सबक ले सकते हैं। बहुत सावधानी बरतनी होगी। उत्साह और जोश को बरकारार रखना है। बच्चों को केवल ज्ञान, कर्म और उपासना के मार्ग पर आज के समय में चलाने की महती जिम्मेदारी हम सबकी है। संयुक्त परिवार रहने से तो ज्ञान परिवार के लोगों से विचार-स्वरुप मिल जाता था। आजकल एकल परिवार के कारण विचार-शून्यता की स्थिति है। अच्छे कर्म से अच्छे अनुभव प्राप्त होते हैं। हम किसी भी मार्ग से उपासना को अपनाएँ लेकिन अपनाएँ जरुर। इससे आस्था बलवती होती है। लेकिन इन सब बातों को नयी पीढ़ी को बताने वाला कोई नहीं है। किसी को अपने से फुर्सत नहीं है। सभी अपने में व्यस्त हैं। नानी-दादी की कमी आजकल साफ़ दिखाई दे रही है। परियों वाली कहानी, रामायण-महाभारत की शिक्षाप्रद कहानियों को सुनानेवाला अब कोई नहीं रहा। हो सकता है कि आधुनिक नानी-दादी को इन सब कहानियों में रूचि न हो। लोग अपने बेटों की संगत पर नज़र नहीं रखते हैं। हाँ, बेटियों के मामले में अलग बात है. बेटियों पर नजर रखते हैं। वैसे आरुषि हत्याकांड में भी माँ-पिताजी ने पैनी नजर नहीं रखी थी। यह तो पहले से ही तय है कि तकनीकी विकास होने से नए प्रकार के खतरे उत्पन्न होंगे। समाज में आय का असमान वितरण और सुख की गलत परिभाषा ही हमेशा संघर्ष को जन्म देती है। फ़िल्मी सितारों के बच्चों का इस तरह से नशे के सेवन के आरोप में पकड़ा जाना बहुत कुछ कह देता है। धन कमाने के चक्कर में अपने बेटे को गँवा बैठा। वैसे रुपहले पर्दे की दुनिया में नशे का चलन तो दीखता ही है। कुछ दिन पहले ही एक सिने-सितारे की मौत पर जम कर हंगामा हुआ था तथा यह इसके तार नशे के कारोबार की तरफ ही जाते दिखाई दिए थे। गलत व्यक्ति को प्रेरणास्रोत मानने से युवाओं में गलत संदेश जाता है। शोहरत सब दिन नहीं रहती है। इस संसार में सब नश्वर है। जो आज है – कल नहीं रहेगा। बेटे-बेटी भी पिता की शोहरत के सहारे बुलंदी पर पहुंच पायेंगे – यह कोई जरुरी नहीं है। अतः फ़िल्मी सितारों को अपने बेटे-बेटियों पर नजर अवश्य रखनी चाहिए। प्राचीनकाल से यदि देखें तो प्रेरणास्रोत बनाने का आधार ‘धन’ तो अपने देश में कभी नहीं रहा है। लेकिन आजकल गलती से धन, इसकी चकाचौंध, अभिजात्यवर्गीय आडंबर आदि ही महत्वपूर्ण हो गया है। देश की युवा पीढी उनके जीवन व गतिविधियों का अनुसरण करती है। प्रेरणास्रोत परिश्रमी, ईमानदार और विपरीत परिस्थितियों में भी नैतिक मूल्यों पर खड़े रहनेवाला ही बनता है। सिनेमा के चकाचौंध से भरे संसार से नशे के कारोबार तथा आतंक की ख़बरों का आना चिंताजनक है। इस शोहरत से भरे संसार में ध्यान देने की जरूरत अभी है। युवा पीढ़ी आज जिस तरह से अपनी मुख्य धारा से दूर होते जा रही है, वह वास्तव में चिंतनीय विषय है।