हम कैसे आगे बढे ( प्रेरक कहानिया)
आत्म-कथ्य
कभी खुशी - कभी गम के बीच जीवन के साठ बसंत जाने कब बीत गये। जो कुछ देखा, सुना और समझा उन अनुभूतियों और विचारों को कविता, कहानी और उपन्यास के रूप में व्यक्त किया। कुछ सच और कुछ कल्पना का सहारा लेकर अपनी अभिव्यक्तियों को सरस और सरल बनाने का प्रयास किया है। मेरा सृजन पाठकों को प्रसन्नता भी दे और कुछ प्रेरणा भी दे सके तो समझूंगा कि मेरा प्रयास सफल रहा है। रचनाओं को सजाने संवारने में श्री अभय तिवारी और श्री राजेष पाठक ’प्रवीण’ का अमूल्य सहयोग प्राप्त होता रहा है जिसके लिये मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
- राजेश माहेश्वरी ,106, नया गांव हाउसिंग सोसायटी, रामपुर, जबलपुर.
समर्पण
ये रचनाएं समर्पित हैं, मेरी पौत्रियों मान्या एवं सात्विका को, सुखद एवं सफल जीवन की शुभकामनाओं और स्नेहाशीषों के साथ।
अनुक्रमणिका
1. पात्र की महिमा
2. धीरज
3. धन की महिमा
4. विवेक
5. विनम्रता
6. मौलिकता
7. षरणागत
8. लातों के भूत
9. अहंकार
10. भेड़ और भेड़िये
11. चतुराई
12. आलसी
13. पालतू
14. परिश्रम
15. कौआ
16. साधन
17. सात्विका
18. ततैया
19. चेहरे पे चेहरा
20. मित्र और मित्रता
21. धन का सदुपयोग
22. पत्थर
23. ईष्र्या
24. हम कैसे आगे बढे़
25. प्रथम श्रेणी में प्रथम
26. ईमानदार बेईमानी
27. चाहत
28. मैं कौन हूँ
29. हार-जीत
30. फातिहा
31. निर्जीव सजीव
32. आत्म सम्मान
33. प्रायष्चित
34. वेदना
35. सेवा का महत्व
36. आत्मविष्वास
37. बाँसुरीवाला
38. ईष्वर कृपा
39. पाष्विकता
40. जीवन का सत्य
41. नाविक
1 पात्र की महिमा
यह घटना मगध की है। मगध के एक छोटे से राज्य के राजा की कोई सन्तान नहीं थी। जब वे वृद्धावस्था के करीब पहुँचे तथा उन्हें लगा कि उनके जीवन का सूर्य अब अस्ताचल के करीब जा रहा है और सन्तान प्राप्ति की कोई आषा नहीं रही तो उन्होने अपने राज्य के एक सैनिक को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। वह सैनिक बहुत वीर और साहसी था। वह बहुत बुद्धिमान भी था। उसने अपनी बुद्धि और वीरता से अनेक बार राजा के प्राणों की रक्षा की थी। यही कारण था कि राजा का उस पर स्नेह और विष्वास था। राजा की मृत्यु के बाद वह राजगद्दी पर बैठाया गया।
मगध के नागरिक उसका सम्मान नहीं किया करते थे क्योंकि वह एक गरीब परिवार से आया था। वह राजघराने का व्यक्ति नहीं था। उसने अपना जीवन बहुत निचले स्तर से प्रारम्भ किया था। वह भी यह जानता था कि मगध के लोग उसका सम्मान नहीं करते हैं किन्तु उसने इसके लिये कोई सख्त कदम नहीं उठाये। वह चतुराई के साथ उन्हें अपने पक्ष में करता चला गया। जब उसने देखा कि अब लोग उसके पक्ष में तो आ गये हैं लेकिन अभी भी उनके मन में यह झिझक है कि मैं एक निचले गरीब परिवार का व्यक्ति हूँ तो उसने एक उपाय किया।
राजा के रुप में उसके पास जो सम्पत्ति थी उसमें एक सोने का पात्र था। वह पात्र उसके और उसके अतिथियों के विषेष अवसरों पर पैर धोने और मुँह आदि धोने के उपयोग में लाया जाता था। उसने उस पात्र को तुड़वाकर उससे एक देवता की मूर्ति बनवाई। उसने वह स्वर्ण की प्रतिमा नगर में एक सबसे अच्छी जगह पर लगवा दी। लोग उस मूर्ति का सम्मान और पूजन करने लगे। वह प्रतिमा बहुत पूजनीय हो गई थी। एक बार उसके राज्य में एक समारोह था। उसमें राज्य के लगभग सभी लोग उपस्थित थे। जिस समय उस जन समुदाय को राज्य के महामन्त्री संबोधित कर रहे थे तो उन्होंने सभी उपस्थित नागरिकों को बतलाया कि देवता की वह सम्मानित मूर्ति कभी राजा के अतिथियों के पैर धोने का पात्र थी जिसमें लोग पैर धोते थे, कुल्ला करते थे और अपनी गन्दगी साफ किया करते थे। उसने उन्हें समझाया कि सोना तो सोना ही होता है। चाहे वह गन्दगी धोने का पात्र हो या फिर देवता की मूर्ति। महत्व सोने का नहीं है महत्व उस रुप का है जो उसे दिया गया है।
कोई व्यक्ति किस परिवार का है या कैसे परिवार का है यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितनी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसका आचरण कैसा है और वह कार्य क्या करता है। अच्छे कार्य करने वाला निम्न परिवार का होकर भी सम्माननीय हो सकता है और अच्छे परिवार का होकर भी एक व्यक्ति अपने कार्यों के कारण निन्दनीय हो सकता है। लोगों को उसकी बात समझ में आ गई और फिर सारा राज्य उसका सम्मान करने लगा।
२. धीरज
सिकन्दर महान ने अपने दो भगोड़े सैनिकों को मौत की सजा सुनाई। उनमें से एक यह जानता था कि घोड़े सिकन्दर को बहुत पसंद हैं। वह अपने घोड़ों से बहुत प्रेम करता था। उसने सिकन्दर से कहा- अगर आप मेरी जान बख्श दे तो मैं आपके घोड़े को एक साल में उड़ने की कला सिखा सकता हूँ। ऐसा होने पर आप दुनिया के इकलौते उडने वाले घोड़े पर सवारी कर सकेंगे। यह बात उसने कुछ इस प्रकार कही कि सिकन्दर सहित वहाँ उपस्थित लोगों को भी लगा कि वह घोड़े को उड़ना सिखा सकता है। सिकन्दर उसकी बात मान गया और उसने एक साल का समय उसे घोड़े को उड़ने की कला सिखाने के लिये दे दिया। साथ ही उसने यह शर्त भी रख दी कि यदि वह घोड़े को उड़ना नहीं सिखा पाया तो उसका सर उसके धड़ से अलग कर दिया जाएगा। उस सैनिक ने सिकन्दर की बात को स्वीकार कर लिया।
उसका दूसरा साथी यह जानता था कि यह कार्य असंभव है और उसके साथी ने मात्र एक साल का समय लेने के लिये यह सब किया है। उसने उससे कहा- तुम जानते हो कि तुम घोड़े को उड़ना नहीं सिखा सकते तब तुमने इस प्रकार की बात कैसे की और कैसे सिकन्दर ने इस षर्त को मान लिया? जबकि तुम केवल अपनी मृत्यु को एक साल के लिये टाल रहे हो। ऐसी बात नहीं है। मैंने अपनी जान बचाने के लिये दरअसल स्वतंत्रता के तीन मौके लिये हैं। पहली बात यह कि सिकन्दर महान एक साल के भीतर मर सकता है। दूसरा यह कि एक साल के भीतर मैं मर सकता हूँ। तीसरी बात यह कि यह घोड़ा मर सकता है। फिर ऐसा हुआ कि एक साल के भीतर सिकन्दर ही इस दुनिया से विदा हो गया और वह कैदी हमेषा के लिये आजाद हो गया। उसे विपरीत परिस्थितियों में भी धीरज न खोने का पुरूस्कार मिल गया।
३. धन की महिमा
एक धनवान व्यक्ति था किन्तु वह बहुत कन्जूस था। एक बार उसने अपनी सारी सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का एक उपाय सोचा। उसने अपना सब कुछ बेच दिया और सोने की एक बड़ी सिल्ली खरीद ली। उसने उसे दूर एक सुनसान जगह पर जमीन के भीतर छुपा दिया। अब वह प्रतिदिन उसे देखने जाने लगा। उसे देखकर वह संतुष्ट हो जाता और प्रसन्नता पूर्वक वापिस आ जाता था। उसके एक नौकर को उत्सुकता जागी कि उसका मालिक प्रतिदिन कहाँ जाता है। एक दिन उसने छुपकर उसका पीछा किया। उसने देखा कि मालिक एक जगह पर जाकर जमीन के भीतर कुछ खोदकर देख रहे हैं फिर उसे वैसा ही पूर कर वापिस लौट आए हैं। उनके आने के बाद वह वहाँ गया। उसने वहाँ खोदकर देखा। उसे वहाँ वह सोने की सिल्ली मिली। उसने उसे रख लिया और मिट्टी पूर कर वापिस आ गया। अगले दिन वह कंजूस जब अपना धन देखने गया तो वहाँ कुछ भी नहीं था। यह देखकर वह रोने लगा। वह दुख में डूबा हुआ रोता हुआ घर वापिस आया। उसकी स्थिति पागलों सी हो गई थी। उसकी इस हालत को देखकर एक पड़ौसी ने इसका कारण पता किया और कारण पता लगने पर वह उस कंजूस से बोला- तुम चिन्ता मत करो। एक बड़ा सा पत्थर उठाकर उस स्थान पर रख दो। उसे ही अपनी सोने की सिल्ली मान लो। तुम उस सोने का उपयोग तो करना ही नहीं चाहते थे। इसलिये तुम्हारा रोना व्यर्थ है, तुम्हारे लिये तो उस पत्थर और सोने में कोई फर्क नहीं है।
४. विवेक
एक बार एक घाटी में एक शेर एक सांभर का पीछा कर रहा था। वह उसे पकड़ने ही वाला था और हसरत भरी आंखों से निष्चिन्त होकर संतुष्टि दायक भोजन की कल्पना कर रहा था। उसे पूरा विष्वास था कि उसका षिकार अब उससे बचकर नहीं निकल सकता। एक गहरी खाई सामने थी। सांभर बहुत तेजी से भाग रहा था, अपनी जान बचाने के लिये उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और कमान से निकले तीर की तरह कूदकर खाई को पार कर गया और एक चट्टान पर खड़े होकर पीछे मुड़कर देखने लगा। वह बहुत थक चुका था। उसके लिये अब आगे चलना संभव नहीं था। उसका पीछा करता हुआ षेर घाटी के इसी ओर रूक गया। उसे वह घाटी पार करना संभव नहीं लग रहा था। षिकार को हाथ से जाता देखकर वह बहुत निराषा और झुंझलाहट में था। तभी उसकी मित्र लोमड़ी उसके पास आई। वह भी षेर के पीछे-पीछे ही आ रही थी।
वह बोली- आप इतने ताकतवर और तेज होते हुए भी क्या एक कमजोर सांभर से हार जाएंगे। आपमें सिर्फ इच्छा षक्ति की कमी है, वरना आप चमत्कार कर सकते हैं। यद्यपि यह खाई गहरी है लेकिन यदि आप सचमुच गंभीर हैं तो मैं यकीन के साथ कह सकती हूँ कि आप इसे आसानी से पार कर जाएंगे। आप मेरी निस्वार्थ मित्रता पर विष्वास कर सकते हैं। अगर मुझे आपकी षक्ति और तीव्रता पर विष्वास नहीं होता तो मैं आपको ऐसी सलाह कभी नहीं देती जिससे आपके जीवन को खतरा हो।
शेर का खुन गर्म होकर उसकी षिराओं में दौड़ने लगा। उसने अपनी पूरी ताकत से छलांग लगा दी। किन्तु वह घाटी को पार नहीं कर सका। वह सिर के बल नीचे गिरा और मर गया। उसकी वह मित्र लोमड़ी यह देख रही थी। वह सावधानी से घाटी में नीचे उतरी और खुले आसमान के नीचे खुली हवा में उसने देखा कि षेर के प्राण निकल चुके हैं। अब उससे डरने या उसकी चिन्ता करने की कोई आवष्यकता नहीं है। उसने कुछ दिनों में ही उसकी हड्डियां तक साफ कर दीं। षेर क्रोध में आ जाने के कारण विवेक षुन्य हो गया और घाटी को पार करने की मूर्खता कर बैठा। विवेक को जाग्रत रहना चाहिए। यह भगवान का वरदान है। विवेकषील व्यक्ति ही जीवन में सकारात्मक सृजन करके समाज के लिये कुछ कर पाता है। विवेकहीन व्यक्ति तो बस पषुओं के समान होता है।
५. विनम्रता
रामसिंह अपनी दुकान पर बैठे हुए थे तभी उनके मित्र हरिसिंह का पुत्र रमेष कुछ लेने के लिये आया। उस समय ग्राहकी तेज थी। अनेक ग्राहक सामान लेने के लिये अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। रामसिंह और उनका नौकर जितनी तेजी से संभव था उतनी तेजी से काम कर रहे थे। रमेष ने दूसरे ग्राहकों की उपेक्षा करते हुए तेज और कर्कष स्वर में सामान मांगा। उसका यह आचरण रामसिंह को अच्छा नहीं लगा और उसने लगभग उसे डांटते हुए उससे कहा कि-तुमसे पहले से ये लोग खड़े हैं पहले इन्हें सामान दूँगा तुमको थोड़ा रूकना पड़ेगा। उसे यह बात नागावार गुजरी और वह दुकान से बाहर निकला तथा घर आकर पिता से बोला कि उनके मित्र ने उसके साथ दुव्र्यवहार किया है। उसकी बात पर हरिसिंह को विष्वास नहीं हुआ। वे दोनों अच्छे मित्र थे वह रामसिंह के स्वभाव से वाकिफ था। हरिसिंह ने अपने बेटे से कहा- तुम मेरे साथ चलो! मैं देखता हूँ। वे दोनों रामसिंह की दुकान पर पहुँचे। उस समय भी रामसिंह एक ग्राहक को सामान दे रहा था। हरिसिंह चुपचाप अपने बेटे के साथ वहीं पड़ी बेन्च पर बैठ गया। उसने रमेष को भी अपने बगल में बैठा लिया। जैसे ही रामसिंह ग्राहक से निवृत्त हुआ उन दोनों में दुआ-सलाम हुई। तब हरिसिंह ने उससे कहा- क्या बात है रमेष आपसे क्यों नाराज हो गया है?
रामसिंह ने सारी बात जब अपने मित्र को समझाई तो हरिसिंह ने बेटे से कहा- हमारे विनम्र होने में ही समझदारी है। विनम्रता का अर्थ सिर्फ मीठी वाणी ही नहीं है बल्कि अपने मन में दूसरे के प्रति आदर रखते हुए अपनी बात को प्रस्तुत करना होता है। हमें अपनी बात इस प्रकार रखना चाहिए कि सुनने वाले के हृदय मंे कोई ठेस न लगे और वह भी हमें उसी प्रकार उत्तर दे। जब हम अपनी बात को जोर-जोर से दूसरे की भावनाओं को समझे बिना कहते हैं तो वह असभ्यता है और असभ्यता मूर्खता की श्रेणी में आती है। हमारे असभ्य व्यवहार से हमारी मित्रता षत्रुता में बदल सकती है। यह वैसा ही पागलपन होगा जैसे हम अपने ही घर में स्वयं आग लगा लें। विनम्रता में कभी कन्जूसी नहीं करना चाहिए और समझदार आदमी इसका प्रयोग पूरी उदारता से करता है। वैसे तो मोम कठोर होता है किन्तु उसे जरा सी गरमी देकर कोमल बनाकर जैसा चाहो वैसा आकार दिया जा सकता है। इसी प्रकार विनम्रता और मित्रतापूर्ण व्यवहार की आँच से कठोर से कठोर हृदय को अपने वष में किया जा सकता है और उससे मनचाहा कार्य कराया जा सकता है।
विनम्रता इन्सान के स्वभाव पर वही असर डालती है जो गरमी मोम पर डालती है। विनम्रता एक गुण ही नहीं है वरन वह एक ऐसा साधन और ईष्वर द्वारा दिया गया एक असाधारण उपहार है जिसका प्रयोग करके आप हारी हुई बाजी को भी जीत में परिवर्तित कर सकते हैं। वह हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं संस्कारों का आधार है। किसी से क्रोध में बात करना षब्दों या हावभाव से नफरत को प्रदर्षित करना एक ओछापन और बुरी आदत है। रमेष चुपचाप सुन रहा था वह शर्मिन्दा और नतमस्तक था।
६. मौलिकता
एक युवा चित्रकार कला एकेडेमी से षिक्षा पूरी करके प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर निकला। उसे चित्रकला से बहुत प्रेम था। वह उसके प्रति समर्पित था। वह अच्छे-अच्छे कलाकारों की कलाकृतियों की हू-बहू नकल कर देता था। वह इसमें इतना पारंगत था कि यह समझना मुष्किल हो जाता था कि कौन असली है और कौन नकली। वह जहाँ भी अपनी कलाकृतियों को प्रदर्षित करता था वहाँ उसकी सराहना तो होती ही थी साथ ही दर्षकों का कथन यही रहता था कि कलाकृति मौलिक नहीं है। इसके कारण उसे कला जगत में वह स्थान प्राप्त नहीं था जो उसे प्राप्त होना चाहिए था। एक दिन उसके नगर में प्रसिद्ध चित्रकार आये। उनसे उसकी मुलाकात हुई। उसने उन्हेें अपनी व्यथा बतलाई।
उन्होंने उसे बड़े स्नेह पूर्वक समझाया- जो दूसरे का अनुसरण करते हैं वे नकलची माने जाते हैं। वे कितना भी श्रम करें नकलची की छवि से नहीं उभर पाते। उत्कृष्टता की नई राह या यष का आधुनिक मार्ग खोजना एक असाधारण योग्यता है। जीवन में किसी की नकल कभी साहसिक कल्पना का स्थान नहीं ले सकती। सफलता उन्हें मिलती है जो अपनी मौलिकता को कायम रखते हैं। तुम देखो कि मैंने कला जगत में एक नयी शैली को जन्म दिया है। मैं गहरे रंगों का प्रयोग करता हूँ एवं तुम मेरी पेन्टिगस को देखकर स्वयं समझ सकते हो कि ये मेरी कलाकृति है। तुम्हें भी इसी प्रकार अपनी एक नयी शैली विकसित करना होगी। हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा समय आता है जिसमें उसे विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करना पड़ता है। ऐसे समय में हमें विचलित नहीं होना चाहिए। तुम मेहनत करोगे तो एक दिन सफलता निष्चित तुम्हारे कदम चूमेगी।
७. षरणागत
एक बार एक कौआ चोंच में एक नवोद्भिद को लेकर जा रहा था। वह जब एक इमारत के ऊपर था तभी वह नन्हा पौधा कौए की चोंच से फिसलकर गिर गया। गिरकर वह पौधा एक इमारत की एक दरार में जा पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उस नन्हें पौधे ने इमारत से निवेदन किया कि वह उसे षरण देकर उसकी रक्षा करे। उसने कहा- मैं ईष्वर का वास्ता देकर कहता हूँ कि आप जैसी इमारत की ऊँचाई, सुन्दरता, वास्तुकला एवं निर्माण की जितनी भी प्रषंसा की जाए वह कम है। आप जैसी भव्य एवं आकर्षक इमारत तो मैंने कहीं देखी ही नहीं। रात के समय जब आप रौषनी से जगमागाती होंगी तो इन्सान तो क्या देवता भी देखकर प्रसन्नता का अनुभव करते होंगे। आपसे मेरा आग्रह है कि आप मुझे सहारा देने की कृपा करें। जब मैं उस क्रूर कौए की चोंच में था तो मैंने कसम खाई थी कि यदि मैं बच गया तो अपनी बाकी जिन्दगी एक छोटी सी जगह में भी गुजार दूंगा। ईष्वर की कृपा है जो मैं किसी रेगिस्तान या किसी वीराने में नहीं गिरा। मैं गिरा भी तो आपकी गोद में। आप मेरी रक्षा कीजिये और अपनी षरण में ले लीजिये।
दीवार ने सोचा कि अपनी शरण में आये हुए की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। फिर यह नन्हीं सी जान है अगर इसकी रक्षा नहीं की गई तो इसका तो जीवन की समाप्त हो जाएगा। उसकी बात सुनकर उस इमारत की दीवाल को उस पर दया आ गई। उसने उसे अपने पास षरण दे दी। वह पौधा वहां रहने लगा। धीरे-धीरे वह पौधा बढ़ने लगा। उसकी जड़ें फैलने लगी और नीचे पत्थरों की दीवार के बीच से सेंध लगाते हुए जमीन के भीतर प्रवेष करने लगीं। वे धीरे-धीरे मोटी होकर पत्थरों को खिसकाने लगीं। वृक्ष की षाखाएं भी आसमान की और बढ़ने लगीं। एक समय ऐसा आया जब उस वृक्ष की जड़ें इतनी मोटी हो गई कि दीवार को ही खिसकाने लगीं। इससे वह इमारत ही खतरे में आ गई। बहुत दिनों बाद जाकर दीवार को होष आया कि उसकी दया के कारण आज उसका ही अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। लेकिन अब दुख या अफसोस करने से कोई फायदा नहीं था। कुछ ही समय बाद वह दीवार गिर गई और उसके कारण वह इमारत धराषायी हो गई। किसी को भी षरण देने से पूर्व अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए। इस बात पर भली भाँति विचार कर लेना चाहिए कि हम जिसे सहारा दे रहे हैं कहीं ऐसा न हो कि उसके कारण हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये दूसरों की षरण में जाना पड़े।
८. लातों के भूत
एक मालगुजार जो आर्थिक रुप से बहुत सम्पन्न था उसके बगीचे में सेव का एक वृक्ष लगा था। उसमें फल नहीं आते थे। विभिन्न प्रकार के पक्षी उस पर अपने घोंसले बनाकर रहते थे। एक दिन उसने पेड़ काटने का फैसला किया। वह उस वृक्ष पर कुल्हाड़ी से प्रहार करने लगा। पक्षियों ने उससे आग्रह किया कि वह उस वृक्ष को न काटे क्यों कि उस वृक्ष पर उनके घोंसले हैं और उन घोंसलों में उनके अण्डे और बच्चे रह रहे हैं। उसने उनके आग्रह पर कोई ध्यान नहीं दिया और पेड़ काटना प्रारम्भ कर दिया। वह अभी कुछ प्रहार ही कर पाया था कि उस वृक्ष पर रहने वाली मधुमक्खियां उसके पास आईं। उन्होंने भी उससे उस वृक्ष को न काटने का आग्रह किया किन्तु वह दुष्ट और स्वार्थी व्यक्ति नहीं माना। वह प्रहार करता ही गया और उसने उन्हें भी झिड़क कर भगा दिया।
यह देख कर रानी मधुमक्खी को क्रोध आ गया। उसने सभी मधुमक्खियों को हमले का आदेष दे दिया। जैेसे ही मधुमक्खियों ने उसे काटना प्रारम्भ किया वह दर्द से चीखता हुआ वहाँ से भाग खड़ा हुआ। उसके बाद उसने उस वृक्ष को काटने का विचार त्याग दिया। संसार में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें केवल अपने स्वार्थ से मतलब होता है। ऐसे लोग न तो दूसरों का कष्ट ही समझते हैं और न ही दूसरों के आग्रह और विनम्रता का उन पर कोई प्रभाव होता है। ऐसे लोग केवल दण्ड की भाषा समझते हैं और वे किसी बात को तभी मानते हैं जब या तो उनका स्वार्थ पूरा हो रहा होता है अथवा उन्हें स्वयं दण्ड का भय होता है। ये लातों के भूत होते हैं बातों से नहीं मानते हैं। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति में ही लिप्त रहते हैं। यह ध्यान रखने वाली बात है कि दण्ड भी कभी सही दिषा दे देता है।
९. अहंकार
एक बार दो मुर्गे एक कचरे के ढेर पर लड़ रहे थे। उनमें से एक अधिक ताकतवर था, उसने दूसरे को हराकर कचरे के ढेर से दूर भगा दिया। यह देखकर सारी मुर्गियाँ कचरे के ढेर के पास एकत्रित होकर उसकी तारीफ करने लगीं। विजयी मुर्गे में अहंकार आ गया। उसे लगने लगा कि उसकी ताकत का डंका चारों और बजे। वह खलिहान पर उड़कर बैठ गया और अपने पंख लहरा-लहरा कर तेज आवाज में बोलने लगा- देखो मैं जीतने वाला मुर्गा हूँ। दुनियां में किसी भी मुर्गे में इतनी ताकत नहीं है कि मुझसे मुकाबला कर सके। अभी मुर्गे की बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि एक बाज ने उस पर झपट्टा मारा और उसे अपने पंजों में दबाकर अपने घोंसले में ले गया और फिर अपनी पत्नी व बच्चों के साथ मिलकर उसे मारकर खा गया। हमें ईष्वर ने कुछ दिया है तो हमें उसका अहंकार नहीं करना चाहिए वरना हमारी हालत भी उसी मुर्गे के समान हो जाएगी।
१०. भेड़ और भेड़िये
एक बार भेड़ों ने सोचा कि उनके और भेड़ियों के बीच हमेषा झगड़ा और लुका-छिपी का खेल चलता रहता है। क्यों न भेड़ियों से बात करके सुलह कर ली जाए। इससे उनके बीच षान्ति भी कायम हो जाएगी और उनका भय भी समाप्त हो जाएगा। भेड़ों ने अपना एक प्रतिनिधि मण्डल भेड़ियों के पास भेजा और इस बात की चर्चा की तो भेड़ियों ने उनसे कहा- हमारे और आपके बीच तो दोस्ताना संबंध बन सकते हैं किन्तु इसमें कुत्ते हमारे बीच बाधा हैं। उनके कारण हमारे बीच षान्ति कायम नहीं हो पाती है। इसके लिये हमें उपाय करना होगा। यदि हम मिलकर इस जंगल से कुत्तों को भगा दे ंतो हमारे बीच षान्ति स्थापित हो सकती है। सीधी-सादी भेड़ें उनकी चाल को नहीं समझ सकीं। उनने भेड़ियों के साथ मिलकर कुत्तों को जंगल के बाहर खदेड़ दिया। कुत्तों के जाते ही भेड़ियों का राज हो गया। कुत्ते भेड़ियों को मारकर भेड़ों की रक्षा किया करते थे। अब भेड़ियों को कोई भय नहीं रह गया। वे धीरे-धीरे सारी भेड़ों को मारकर खा गए। हमें सदैव कोई भी कदम सोच-समझकर उठाना चाहिए अन्यथा हमारा हाल भी मूर्ख भेड़ों के समान हो सकता है। हम यह सीखें कि अपने लाभ के लिये दूसरों का प्रयोग कैसे किया जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अपने षत्रुओं से भी लाभ ले लेता है, लेकिन मूर्ख अपने मित्रों से भी हानि उठाता है।