MAHAMARI KE KAARAN MAANSIKTA ME BADLAAV in Hindi Moral Stories by Anand M Mishra books and stories PDF | महामारी के कारण मानसिकता में बदलाव

Featured Books
Categories
Share

महामारी के कारण मानसिकता में बदलाव

कोरोना काल में काम करने वालों के मानसिकता में काफी परिवर्तन हुआ है। बिटिया के प्रवेश परीक्षा के सिलसिले में पूर्वोत्तर के एक बड़े शहर में जाना पड़ा। आने-जाने, रहने-खाने-पीने आदि सभी जगह ऐसा प्रतीत हुआ कि कहीं न कहीं नये लोक में आ गया हूँ। धन की बर्बादी तो हो ही रही थी। जहाँ एक रूपये खर्च हो सकते थे वहां तीन रूपये खर्च करने पड़ रहे थे। जहाँ पहले सब कुछ चमकदार था, अब कुछ भी चमकदार नहीं लग रहा था। सत्कार की भावना करीब-करीब समाप्त हो चुकी थी। ऐसा लगा कि मानव, मानव नहीं रहा बल्कि यंत्र हो गया। यंत्र भी अच्छे से कार्य करता है। सभी जगह निराशा ही हाथ लगी। चाहे वह बस, होटल या टैक्सी हो। कितना बदल गया इंसान! इस गीत की पंक्ति याद आ गयी। हम किधर जा रहे हैं? आतिथ्य, सत्कार या व्यवहार – इन बातों को निजी क्षेत्र में अधिक प्राथमिकता दी जाती है। सरकारी क्षेत्र में उपरोक्त गुणों का होना विरले ही पाया जाता है। कभी-कभी ही कोई सरकारी कर्मचारी गर्मजोशी से बातें करते मिलते हैं। उनकी बातों में मिठास नहीं के बराबर ही होती है। इसके विपरीत निजी क्षेत्र में लोगों को चुनकर काम पर लगाया जाता है। व्यवहार ठीक रखने के लिए उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। कारण भी स्पष्ट है क्योंकि निजी क्षेत्र अपने व्यवहार की अनोखी संस्कृति से चलता है। वही संस्कृति धनी समुदाय को निजी क्षेत्र की तरफ खींचती है। होटल के प्रवेश द्वार पर मौजूद सुरक्षाकर्मी से लेकर मेहमानों को कमरे तक ले जाने वाले उत्साहहीन थे। भारतीयों की विविधता में एकता वाली संस्कृति तो दिखाई ही नहीं दे रही थी। मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि यदि यही अवस्था रही तो विश्वगुरु बनना मुमकिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन हो जाएगा। कहीं न कहीं निजी क्षेत्र के लिए यह चिंता की बात है। कर्मचारियों में हमदर्दी, प्रेम, उदारता और एक-दूसरे के प्रति सोच – यह लगभग समाप्त हो चुका है। पहले लोग पूछते थे – आप कैसे हैं? क्या कोई तकलीफ है? भोजन कैसा लगा? पुनः आयेंगे। कुछ परेशानी हो तो बताएं? लेकिन किसी ने नहीं पूछा। भोजन मांगने से मिल गया। रहने के लिए होटल में भी कोई कर्मचारी कमरे तक लेकर नहीं गया। आमतौर पर होटलों में एक कर्मचारी मेहमानों को कमरे तक लेकर जाता है। कह सकते हैं कि धैर्य से बात करने की यह क्षमता निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को महीनों काम करने के बाद आता है। यह कार्य संस्कृति निश्चित रूप से उन्हें अनुभव से प्राप्त होती है। होटल में आगंतुकों ने भोजन किया या नहीं? कमरे की सेवा में लगा व्यक्ति यह सुनिश्चित करता है। अंत में यही कह सकते हैं कि अब मानवता रही ही नहीं है। ऐसा अनुभव केवल मुझे हुआ है ऐसी बात नहीं है। हो सकता है कि मैं गलत रहूँ लेकिन बहुतों के साथ करीब-करीब ऐसी स्थिति आई है। निराशावादी दृष्टिकोण मेरा नहीं है। मैं आशावादी हूँ। हो सकता है कि परिस्थितियों में बदलाव हो। होना भी चाहिए। यदि बदलाव नहीं होता है तो यह ‘भारतीयता’ के लिए भी खतरा है। भारत के लोग स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं रखते हैं। इसका प्रमाण हमारा इतिहास है।