dr radheshyam gupta-krutitw evm vyktitw in Hindi Book Reviews by ramgopal bhavuk books and stories PDF | डॉ. राधेश्याम गृप्ता - कृतित्व एवं व्यक्तित्व

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डॉ. राधेश्याम गृप्ता - कृतित्व एवं व्यक्तित्व

डॉ. राधेश्याम गृप्ता जी का कृत्त्वि एवं व्यक्तित्व

रामगोपाल भावुक

मुक्त मनीषा के डॉ. राधेश्याम गुप्ता जी स्मृति अंक उनकी प्रथम पुण्य तिथि 9 सितम्वर 1995 को प्रकाशित किया गया है। इसके प्रधान सम्पादक नाथूराम खर्द एवं सम्पादन रामजी शारण छिरौल्या जी हैं। मुक्त मनीषा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समिति डबरा द्वारा इस ग्रंथ का प्रकाशन किया गया है।

शोध यात्रा के सम्पादक डॉ. रामकृष्ण गुप्त ने कहा है-

राधे कह भी नहीं पाये प्रीति रीति अन्तःकरण की,

उनके अपने शब्द चयन ने कह दी मन की व्यथा कथा।

नाथूराम खर्द जी सम्पादकीय में डॉ. राधेश्याम गुप्ता जी के वारे में लिखते हैं-

मेरा परिचय हर पीढ़ी से, हर मानव मेरा साथी है।

मानव सेवा ही मेरी पूजा, याद रही कुछ भूल गई हैं।

पहला आलेख नगर के वरिष्ठ कवि नरेन्द्र उत्सुक जी का है। इसमें इस कृति की प्रकाशक संस्था मुक्त मनीषा के गौरव शाली इतिहास का वर्णन है।

अमर अमिट व्यवहार है, हृदय लिये थे जीत।

मिलत शान्ति उर उपजत,राधेश्याम की कीर्ति।।

उनके गीत में-जीवन साथी बीच डगर में, राधेश्याम तुम छोड़ गये।

मुश्कानों से मन को जोड़ा,निर्मोही मुह मोड़ गये।।

नगर के प्रसिद्ध वक्ता ,समीक्षक रमाशंकर राय जी डॉ. राधेश्याम गुप्ता जी पर यह कविता काव्य गोष्ठियों में सुनाते रहते थे-

माँ की आंखें भी आंसू बहाती रही,

याद आती कन्हैया की पाती रही।

देश के चर्चित गीतकार धीरेन्द्र गहलोत धीर उनके शोक में गीत गा उठते हैं-‘

अनगिनत पीड़ाओं संग, हंसता रहा जीता रहा।

बांटता रहा मृदु स्नेह अमृत, खुद गरल पीता रहा।।

इसी नगर के वयोवृद्ध कवि अनन्तराम गुप्त जी अपनी कविता में लिखते हैं-

हास्य व्यंग के गीत रच, सबै सुनावै आप।

मोद विनोद प्रवीन यों, करें वार्तालाप।।

इस नगर के ही एक और वरिष्ठ कवि राजेन्द्र प्रसाद सक्सैना ‘रज्जन’गुप्ता जी स्मृति में गा उठते हैं-

तू गया दूर नभ पर रह गई तस्वीर तेरी।

बह रहे अश्रु अविरल, रह गई यादें घनेरी।

इस अविरल काव्यधारा के बाद इस समग्र में डॉ. जमुना प्रसाद बडैरिया का आलेख बहु आयमी व्यक्तित्व, उनके समग्र जीवन पर प्रकाश डालने वाला है। गुप्ता जी समय के पाबन्द थे। हर काम समय से करना उनके जहन में बसा था। राष्ट्रवादी विचार धारा उनके नस- नस में कूट- कूट कर भरी थी।

नगर के प्रसिद्ध समाज सेवी शिवप्रसाद जी श्रीवास्तव उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में निरूपित करते रहे। उन्होंने अपने आलेख में उनके जीवन के कुछ जाने माने पठनीय रोचक प्रसंग कह डाले हैं।

रामचरन लाल वर्मा ने भी उनके साथ अपनी यादें ताजा की हैं। उन्होंने उन्हें कर्म के सच्चे प्रहरी कहा है। रामजीशरण छिरोल्या ने डॉ. राधेश्याम गुप्ता जी की याद में- तुझसा कहां से लाऊँ कि तुझसा कहूं जिसे, लेख में नभदा भक्ति की तरह उनके नौ गुण गिनायें हैं। अनिल कुमार जैन ने तो जैसा मैंने देखा बैसा अपने आलेख में लिख दिया है। ओम प्रकाश गुप्त ‘चिन्तक’ ने कर्म की प्रधानता को महत्व दिया है। भगवान स्वरूप शर्मा प्राचार्य ने अपने कार्य क्षेंत्र में उनकी यादें ताजा की हैं। अंजना मिश्रा ने खामोशियों को भी खामोस कर गया कोई निरूपित किया है और देश के चर्चित उपन्यासकार रामनाथ नीखरा जी ने उनकी समग्र विशेषरताओं का अपने आलेख में उल्लेख किया है।

इस कृति का तीसरा सोपान है सृजन जिसमें उनकी चर्चित कवितायें- मेराजीवन एक कहानी, लोरी, सोजा सोजा वारे वीर गाई है। राष्ट्र बदले ऐसी करवट जिससे भटके लोग दिशा पा सकें। वे धरती माँ को बहुत प्यार करते थे। यह गीत-माँ रज तेरे चरणों की में अपने को अर्पित कर दिया है। राष्ट्र का उत्थान कैसें हो वे राष्ट्र का उत्थान गीत में चिन्तित दिखाई देते हैं।

उन्हें अपने गांव से बहुत ही लगाव रहा। मेरा गांव कविता में उन्होंने अपने गाँव की कथा कह डाली है।

वे कविता ओं के साथ साथ अनेक दोहे पूँछ वाले भी नई शैली में रचे हैं।

कुर्सी कुर्सी मत करो, कुर्सी गुण की खान।

कुर्सी पर ही बैठते, मूरख बनत सुजान।।

कुर्सी की महिमा न्यारी।

और इस समग्र के अन्त में पाती कन्हैया के नाम लिखने सें वे नहीं चूके हैं। जिसमें वर्तमान परिवेश की शल्यक्रिया कर डाली है।

डॉ. राधेश्याम गृप्ता जी के इस समग्र में रामगोपाल भावुक का एक समीक्षात्म लेख भी समाहित है। चिन्तक -डॉ. राधेश्याम गृप्त, इसे आलेख को मैं यहाँ जैसा का तैसा आपके समक्ष रख रहा हूँ।

जब जब मैं खाली होता हूँ ,मेरे कानों में डॉ. राधेश्याम गृप्त के शब्द गूंजने लगते हैं- सो जा सो जा बारे वीर,

बर्रा टन में तोय दिखा दऊँ

भारत की तस्वीर।

जगतन में जो तोय दिखाऊँ,

तन में होयगी पीर।

सुनतईं तेरे कान फटेंगे नैन बहेंगे नीर।

उनकी एक रचना और देखें। इस रचना में वे समाज पर तीखा प्रहार करते हुए गा उठते हैं।-‘ बड़े पेट के बड़े- बड़े नेता भारत के हैं वीर।

तोप निगल जायें, नोट चबा जायें तोऊ न होवे पीर।

डॉ. राधेश्याम गृप्त जी एक सच्चे राष्ट्रभक्त थे। वे जैसे थे भारत माँ के लाड़िले थे- माँ रज तेरे चरणों की मेरे मस्तक लगी रहे।

जैसा भी हूँ तेरा हूँ तेरी कृपा बनी रहे।

आप लोगों ने चन्द्रधर गुलेरी जी की कहानी ‘उसने कहा था’ जरूर पढ़ी होगी। वे तीन कहानियाँ लिखकर हिन्दी साहित्य जगत में अमर हो गये। डॉ. राधेश्याम गृप्त ने इसी तरह बहुत कम लिखा है जिसकी बजह से वे सारे हिन्दुस्तान में न सही कम से कम अपने इस पंचमहल क्षेत्र में तो अपनी अक्षुण साहित्यिक पहचान बनाये रखेंगे।

डॉ. राधेश्याम गृप्त जी ने बहुत देर से लिखा लेकिन बहुत सोच समझकर प्रोढ़ लेखक की तरह लिखा। इसका कारण था जब वे पूर्ण परिपक्व स्थिति में पहुँच गये उस समय उन्होंने लिखना शुरू हुआ। इसी कारण उनकी रचनायें पाठक के सामाने एकदम परिपक्व होकर फूट निकली थीं। मैं जब भी उनसे मिलता उनके विचार जानकर उनसे लिखने के लिये निवेदन करने लगता और एक दिन उन्होंने लिखना शुरू कर दिया।

उनकी रचनायें सुनकर हम सब लोग आश्चर्य चकित से रह जाते थे। उनकी रचनायें सुनकर अनायास वाह निकल जाती।

व्यंग्य उनकी नस नस में समाया हुआ था। उनके व्यंग्य जेख कन्हैया की पाती को देश के प्रसिद्ध अखबार दैनिक भास्कर ने ससम्मान प्रकाशित किया था। जो लम्बे समय तक चर्चा में बना रहा।

उनका अपने गाँव पिछोर से बहुत लगाव रहा है। यह रचना भी पंचमहल क्षेत्र की धड़कन बनकर उभरी है-

मेरा एक गाँव था वह आज भी है।

पर अब शहरी प्रदूषण से ग्रसित हो गया है।

और उसके लिए अब अजनबी हो गया है।

ईद मोहर्रम में वे अपने मित्रों को साथ लेकर उनमें सम्मिलित होते और जर्द सिमई का भर पूर आनन्द लेते। मुझे भी इस अवसर पर उनके साथ ईद मोहर्रम में सम्मिलित होने का अवसर मिला है। मैने भी उनके साथ सिमइयाँ खाई हैं। वे इस बात को यों कहते हैं-मोहर्रम और दिवाली पूरे गाँव के त्यौहार थे।

आपस में भईचारे के त्यौहार थे।

अब सभी त्यौहार गुटों में बट गये है।

देख दुनियाँ के रंग, सबके दिल फट गये हैं।

उनकी रचना होली का आनन्द लें-

यह जो कहीं कहीं दीवारों पर छींटे हैं।

प्रतीक है होली आई थी।

तमोगुण व कलुषित भावों को निकाल

जीवन में एक नई उमंग लाई थी।

इस क्षेत्र के जन जीवन में ‘कुल कुल बाती चना चबाती’ एक महा मंत्र प्रचलित रहा है। माता पिता अपने अबोध बच्चों को खेल खेल में जीवन के प्रारम्भ से ही कुल की मर्यादा का पाठ इसी मंत्र के सहारे सिखा देते हैं।ं

चाहे चना चवाना पड़ें

कुल के दीपक बन कर रहना।

उनकी नजर गाँव के खेल और खिलाड़ियों पर जाने से भी नहीं चूकी है।

एक गिल्ली डण्डे पर

सौ सौ क्रिकेट निछावर थी।

बहुत से खेलों की फील्ड

अपनी बाखर थी।

पता नहीं किस की नजर लग गई,

मेरे इा गाँव को।

यों नई कविता की शैली में भी वे जो कहना चाहते सो कह जाते थे। वे सरगम स्वरों के भी जानकार थे। वे जीवन की कार्य शैली का आधार सत साहित्य को मानते थे-

सृजन सत् साहित्य अपने कार्य का आधार हो।

साहित्य जो दिखला सके पथ भटके हुए संसार को।

और सूरज बन के चमके मिटा दे तम अज्ञान को।

सम्मान जिनका सब करें और देश को अभिमान हो।

वे इस डबरा नगर के श्रेष्ठ चिकिस्सकों में गिने जाते थे। वे सहृदयी मित्र, श्रेष्ठ समाज सुधारक के साथ अच्छे इंसान भी थे। उन्हें अच्छे मित्रों की खोज बचपन से ही रही है-

बचपन से पचपन तलक रही मित्र की खोज।

सतुआ ले जग में फिरो हाथ परो अफसोस।।

उनका एक लेख ‘कुछ की आत्मकथा’ मुझे एक श्रेष्ठ व्यग्य लेख लगा है। जिसमें उन्होंने स्वयं की व्यथाओं को कुछ के माध्यम से उड़ेला है।

वे एक उपन्यास लिखने के प्रयास में भी थे। जिसमें चिकिस्सक जीवन के कटु अनुभव साँझा करना चाहते थे। किस तरह एक भावुक डॉक्टर का लोग किस तरह शोषण करते हैं फिर वही डाक्टर शनैः शनैः अपने जमीर की हत्याकर एक डाकू की तरह क्रूर बन जाता है। यह बात वे मुझ से कई वार साँझा कर चुके थे।

इस तरह के कटु लेकिन सत्य अनुभवों का यह दस्तावेज शुरू ही नहीं हो पाया और उनका यह सपना उनके साथ ही विलीन हो गया। संघषों से जूझता हुआ इंसान जिनके चहरे पर हमेशा मुस्कराहट विखरी रहती हो। कैसा विचित्र संयोग रहा, गणेश चतुर्थी को जन्मा मानव उसी गणेश चतुर्थी के दिन धरती में विलीन हो गया।