‘सा विद्या या विमुक्तये’ यह उक्ति तो दिन-रात सामने आती है। बच्चों के बिल्ले पर लिखा रहता है। देख कर मन को सुकून मिलता है। हमारे बच्चे उपरोक्त उक्ति का अर्थ भी अच्छी तरह से जानते हैं। पूरे श्लोक के बारे में जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि यह विष्णुपुराण से लिया गया है। इसके श्लोक का अर्थ संक्षेप में यही है कि कर्म वही है जो बन्धन का कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो। इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रम रुप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशल मात्र ही है। आज जब हम अपनी आजादी का अमृत वर्ष मना रहे हैं तथा यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि जब हम आजादी की सौवीं वर्षगांठ मना रहे होंगे तो अपने देश को विश्वगुरु कहलाने की स्थिति में पहुंचा देंगे। ऐसी स्थिति में अपने देश में शिक्षकीय परंपरा एवं उसके गुरुतर दायित्व पर गंभीरता से विचार-विमर्श तो होना ही चाहिए। आज आचार्य ‘सरस्वती’ की साधना छोड़कर ‘लक्ष्मी’ की साधना में लीन हो गए हैं। इसमें आचार्यों का दोष नहीं है – बल्कि परिस्थितियों का निर्माण ही इस कदर हो जाता है कि लक्ष्मी की उपासना करनी पड़ती है। व्यक्ति निर्माण जब तक आचार्य नहीं चाहेंगे हो नहीं सकता है। इस प्रक्रिया से राष्ट्र निर्माण भी प्रभावित हो सकता है। बच्चों या राष्ट्र का उत्थान-पतन हो – नींव में आचार्य ही तैयार करते हैं। हमारा इतिहास गवाह है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पिताजी चाहते तो उन्हें घर पर ही रखकर पढ़ाते। लेकिन उन्हें विद्या-अध्ययन के लिए गुरु वशिष्ठ के आश्रम में जाना पड़ा। राजा दशरथ चाहते तो प्रतिदिन रथ भेजकर गुरूजी को बुलवा लेते लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया। गुरु के सम्मान में राजा खड़े हो जाते थे। धन को तो वे तुच्छ समझते थे। उनके लिए सरस्वती की उपासना ही सर्वोपरि थी। आज स्थिति उलट है। कहने की जरुरत नहीं है – मठाधीश की ह्त्या या आत्महत्या धन के लिए हो जाती है। इसके चकाचौंध से आज कोई नहीं अछूता रहा है। सभी दिन-रात लक्ष्मी की गिनती में ही लगे रहते हैं। धार्मिक स्थानों पर इसकी बहुतायत देखी जा सकती है। एक समय हम विश्वगुरु थे। चीन से पढने के लिए हुवेणसांग तथा फाहियान भारत आए थे। यहाँ की ज्ञान परंपरा को वे अपने देश में लेकर गए। हम उदार थे। ज्ञान को बांटने में अपनी इज्जत समझते थे। राजा अशोक ने अपने बेटे-बेटियों को ज्ञान के प्रसार के लिए पूर्व दिशा में विदेश भेजा। वैसे आधुनिक काल में हमारे स्वामी विवेकानंदजी भी भारतीय ज्ञान को पश्चिम में पहुंचाने के लिए विदेश गए। विक्रमशिला, तक्षशिला और नालंदा में ज्ञान प्राप्ति के लिए दुनियाभर के लोग आते थे। ऐसा नहीं था कि केवल ये ही शिक्षा के केंद्र थे बल्कि गाँव-गाँव शिक्षा का केंद्र था। मैकाले ने शिक्षा व्यवस्था में ध्वस्त किया और हमलोग 75 वर्षों में स्थापित नहीं कर सके। अतः आज के समय में भारत का भविष्य आचार्यों पर टिका है। आचार्य पूरे मनोयोग से कार्य करें तो शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति में सुधार की गुंजाईश है। देश में फैली निरक्षरता समाप्त हो सकती है। शिक्षा के प्राण वापस लौट सकते हैं। शिक्षा रुपी वृक्ष फिर से हरा-भरा हो सकता है। आचार्य को राजनीति से दूर रखकर गैर शैक्षणिक कार्य तो नहीं ही कराना चाहिए। गैर-शिक्षकीय कार्य को करने से उनके उत्साह में कमी होती है। शिक्षक भी आत्मचिंतन करते हुए केवल अध्यापन कार्य पर ही ध्यान दें तो निश्चित रूप से हमारा देश विश्वगुरु बन सकता है। आचार्य के सम्मान को बढ़ाने का योग फिर से बना है। वर्षों बाद मिली राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का एक सबसे बड़ा उद्देश्य शिक्षक के खोये हुए सम्मान को पुनः स्थापित करना भी है।