Sitaram Chaturvedi Atal-Scholar Poet in Hindi Book Reviews by ramgopal bhavuk books and stories PDF | सीताराम चतुर्वेदी अटल-विद्वान कवि

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सीताराम चतुर्वेदी अटल-विद्वान कवि

सीताराम चतुर्वेदी अटल जी का कृतित्व और व्यक्तित्व
समीक्षक रामगोपाल भावुक

सीताराम चतुर्वेदी अटल जी के पुत्र साकेत सुमन चतुर्वेदी से मिलीं पांच पुस्तकें अर्चना, माँ मेरी माँ , जय बुन्देल भूमि, साकेत के सुमन और कविते तुम्हें प्रणाम मेरे सामने हैं।
उनकी कृति अर्चना है। जिसमें उनचास कविताओं को स्थान दिया गया है।
इसकी भूमिका में प्रार्थना की गई है कि
तुमने दे मुझ को मानव तन
कर दिया मेरा सफल जीवन।
पहली रचना हे प्रभु शरण दो में प्रभु से विनय की है-
आरती लेकर विनय की और श्रद्धा का समर्पण,
भावनाओं में संजोये भक्ति की गरिमा विलक्षण,
मैं चला साधक स्वरों में, ईश तेरी प्रार्थना को,
लीन तुझमें ही रहूँ नित, एक ऐसा आचरण दो।
हे प्रभु मुझको शरण दो।।
इस तरह अटल जी एक भक्ति कवि की तरह प्रभु से निवेदन करते दिखाई देते हैं। भक्त में अपने इष्ट के प्रति जो समर्पण होना चाहिए वह श्री अटल जी की कविताओं में हमें दिखाई देता है। कहो मन धीर से, रे मनुज चल, अथवा विदित है प्रस्थान में ईश्वर के प्रति कवि भाव विभोर होकर उनसे अपने कल्याण की याचना करता दिखाई दे रहा है।
अर्चना संकलन की सभी रचनायें भक्ति भव से लिखी रचनायें है। उनके इस संदेश का यह प्रभाव पड़ा कि उनके पुत्र साकेत सुमन की इन्हीं भावों पर रचना देखें-
सुख में दुःख में किसी ने जब भी पुकारा उसे।
पाया है उसको स्वयं के अंतः करण में।।
माँ मेरी माँ जो माँ के अवसान 2 जनवरी 1978 के अवसर पर प्रकाशित है। उनकी यह कृति माँ मेरी माँ सामने है। इस कृति के माध्यम से कवि ने माँ की याद में श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं।
माता तू तो चली गई है, मुझे अकेला छोड़ गई है। एक लम्बी कविता हैं जिसमें माँ की अंतिम स्मृतियों को संजोने का प्रयास किया है।
तू साहस की ज्योति बनी थी, विपदाओं के घने तिमिर में।
जूझ जूझकर रही जीतती, तू अभाव के विकट समर में।।
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अगर कभी भटकूं दुविधा में, पथ पर मुझे लगा देना तू।
स्वर्गलोक में भी रहकर के, मुझको यहाँ जगा देना तू।।
इस कृति के माध्यम से माँ की स्मृतियाँ सदैव सजग बनी रहेंगीं।
जय बुन्देल भूमि हाथ में आते ही उसे पढ़ने बैठना पड़ा। यह बहुत ही रोचक कृति है। इसमें बुन्देल खण्ड के वीरों की गााथयें अपने काव्य में पिरोकर इसे साकार रूप प्रदान किया है।
इसमें चन्देल परमार, आल्हा ऊदल, मधुकर शाह, वीर सिंह जू देव, हरदौल, चम्पत राय, सारन्धा और छत्रसाल की गाथायें काव्य में पिरोकर पाठकों के सामने रखी हैं। इसी में विजय कुँअर, रानी दुर्गावती, सम्मेर सिंह, रानी लक्ष्मी वाई, राजा मर्दन सिंह, लोहागढ़ का रज्जब वेग, चन्द्रशेखर आजाद के साथ पं0 परमानन्द को इसमें समाहित कर सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड़ को गौरवान्वित किया है और इस कृति का समापन इन शब्दों से-‘
संधषों के अंगारों पर किस तरह चले जन-परिपाटी।
बलिदानों की रक्ताभा से, कैसे चमके भू की माटी।।
इसकी व्याख्या संदर्भ सभी,इस भू पर मानव पाता है।
इतिहास पुरातन बुन्देली,मरधट पर गाना गाता है।
इन पठनीय कृतियों की भाषा- भाव सरल और स्पष्ट हैं।
साकेत के सुमन राम चरित काव्य के मुख्य पृष्ठ चित्र को देखकर पढ़ने की इच्छा तीव्र हो गई। उसे पलटना शुरू कर दिया।
इसमें अनन्त शक्ति सीते में सीताजी की वंदना है और लेखनी प्रभु को आराध रही में-शब्द शब्द में कौशलेश हो, पंक्ति पंक्ति में राम रहें,
बनें छंद जितने उन सब में, प्रभु महिमा का गान रहे।
ऐसी भाव विभोर करने वालीं रचना के प्रणेता वंदनीय हैं। इस कृति में ही अवतरित यहाँ भगवान हुये, ये जानकी जनक की, चले राम लक्ष्मन गुरुकुल के माध्यम से राम कथा कहते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। इसी तरह हुआ परिणय सीता राम का के बाद मन्थरा हुई विव्हल जैसा गीत पढ़कर पाठक राम कथा में डुवकियाँ लगाने लगता है।
लख कैकई को कोप भवन में सभी लोग मंथरा को दोषी मानने लगते हैं किन्तु अगली रचना में- मैं कहाँ अपराधनी मंथरा पढ़कर मैथलीशरण तुप्त जी की साकेत पाठक के सामने किलोलें करने लगती है।
चित्रकूट में अनोखा वातावरण के बाद उर्मिले? आओं निहारो पाठक को बाँधे रहने में सफल रचनायें हैं। कहां गई सीता अरे! में सीता की खोज का प्रकरण दर्ज किया गया है। आगे की कथा में हनुमान से मिलन, सुग्रीव से मित्रता के साथ कथा आगे बढ़ती जाती है। दीप बुझ गया दैत्य वंश का में रावणवध का प्रसंग के बाद राम सीता के मिलन की कथा है।
लेकिन कवि सीता की अग्नि परीक्षा प्रकरण का मोह नहीं छोड़ पाया है।
साकेत मिलन त्योहार के बाद कथोपकथन शैली में सीता के विश्राम कक्ष की बार्ता का दृश्य ,उठा फिर अपवाद एक, बना राम राम राज्य सुख पुंज और अन्त में धरा की पुत्री धरा की गोद में समा जाती है। इस तरह सम्पूर्ण राम कथा को बाइस प्रकरण में वांटकर रच डाली है।
यह साकेत के प्रभाव से सराबोर कृति है। पढ़ते समय साकेत के प्रसंग सामने उपस्थित होते रहे। कवि साकेत से इतने प्रभावित रहे कि उन्होंने अपने एक पुत्र का नाम ही साकेत सुमन रख लिया।
गाये अन गाये गीत साहित्य निकेतन प्रकाशन झाँसी से वर्ष 1996.97 में प्रकाशित कृति सामने गा गई है। इसमें कुछ रचनाये गाई जा सकतीं है कुछ अगेय रचनायें भी इसमें समाहित की गईं हैं।
संकलन को सात पायदान में भाव अनुभूतियों के अनुसार विभक्त किया गया है। अन्तज्योति, समय की लकीरें, वन्दना के स्वर, विहँसते शबनम, बोल बने गीत, मुक्त लहरी और सिन्दूरी सरगम जैसे पाय दानों में संबधित भावों को समाहित किया गया है। अन्तज्योति में-
तुमने शूल बिछाये हरदम,
मेरे जीवन में जीते जी।
अब मेरे मरधट पर आके,
क्यों झुककर तुम शीश नवाते।
इसी तरह के भावों को लेकर समय की लकीरें, वन्दना के स्वर में रचनायें समाहित की गईं हैं। मेरा चित्त विहँसते शबनम की छांह में आकर विराम करने लगा -ससुराल चलो,नहीं मायके जाना , क्या पति देव सुधरेंगे के साथ विकट मित्र मंड़ली जैसी रचनायें पढ़ने का आनन्द लेता रहा। इनके सहारे कवि मंच पर अपना झण्डा गाड़ने का प्रयास करता रहा होगा।
बोल बने गीतों को मंच पर गुनगुनाने का क्रम भी रहा होगा। समय के अनुसार कवि ने श्रृंगार के गीत भी गाये हैं।
निश्चय ही यह संकलन भी पढ़ा जाना चाहिए। इसमें नई नई अनुभूतियों से आप रू-ब-रू हो सकेंगे।
आपकी प्राप्त पुस्तकों में कविते तुम्हें प्रणाम वर्ष 2010.11 में प्रकाशित कृति है। किशोर अवस्था में जब कवि ने लिखना शुरू उस समय कविता को प्रणाम किया था और जब कविता से विलगता होने जा रही है उस समय भी‘कविता तुम्हें प्रणाम कह कर बोझिल मन से प्रणाम करके कविता का अभिवादन कर रहा है। इसका अर्थ यह निश्चय ही उनकी अन्तिम कृति होनी चाहिए। चलते चलते हमें भाषने लगता है कि अब कवि का समय निकट है। माँ शारदे? की वंदना से इस कृति का प्रारम्भ है।
जिसमें बिछुड़न मिलन भरे संदर्भ भरे हों, ऐसी द्वंद्व की भावना से सरावोर कृति पढ़ने के लिये मन व्याकुल हो उठा।
विना समय गवाये कृति पढ़ने बैठ गया-तुमने मेरे गीतों को पहिचाना कब है,
भावुक मन की उत्सुकता को जाना कब है।
और अनजानी डगर में- बोलो कैसे साथ चलूं मैं तेरी दूर नगरिया। इसके साथ ही मनुहार में-भटक न जाऊँ कहीं ओर मैं- जग के मादक शोर में।
मुझे ल्रगता है, जब आदमी की साधना परिपक्व हो जाती है। तभी ऐसे विचार प्रस्फुटित होने लगते हैं। इसी कारण प्रभु से मिलन त्योहार की प्रतिक्षा रहने लगती है। चाहे कहने आई कविता हो,बनी बावरी हो अथवा उससे मिलन की पिपासा हो के बाद अधूरी साधना का पश्चाताप सालता है।
तुम्हीं बताओ फिर से सुकुमार क्षणों में
कैसे झूठा प्यार भरा संसार बनायें।।
ऐसे भावों के छब्बीस गीत गाने के बाद कवि छणिकायें परोसाने लगता है।
जीवन रूपी सोने के पिजड़े में- सोने का पिजडा है
चाँदी की थाली में भोजन है
फिर भी तोता आकाश में उड़ने हेतु
उतावला रहता है।
ऐसे भावों में सारावोर एक सौ तेरह क्षणिकायें वैचारिक हैं।
कवि अब गजलों के पड़ाव पर आ जाता है। इसमें तेइस गजलें समाहित हैं। वैराग्य की बातें करते करते कवि फिर श्रृंगार में खो जाता है और प्यार के द्विपदी तराने गा उठता है। इसमें गीत वल्लरी भी है। हाइकू और चतुष्पदी भी इसमें संकलित हैं।
संकलन के अन्त में दोहे दिये है जो चिंतन की गहरी सतह को स्पर्श करते हुए पाठक को अपने बांधे रहने में सफल हैं।
कृतियों की भाषा में बुन्देली की झलक दृष्टव्य है। ऐसे कवि को पढ़ा जाना चाहिए। उनकी सभी कृतियाँ पठनीय और संग्रहणीय हैं। धन्यवाद।
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