aada vaqtirajnarayan bohare in Hindi Book Reviews by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | आड़ा वक्त-राजनारायण बौहरे

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आड़ा वक्त-राजनारायण बौहरे

आड़ा वक्त

(उपन्यास)

कथाकार- श्री राजनारायण बौहरे

समीक्षक- वेदराम प्रजापति मनमस्त

मो.- 9981284867

कथाकार श्री राजनारायण बोहरे जी के उपन्यास आड़ा वक्त के केनवास में,जीवन के अनेको अनछुए पहलुओं को बड़ी ही पेचीदी दृष्टि देकर उपन्यास की सफलता को सार्थक बनाया है जिसमें उन्यास के प्रथम सर्ग नियुक्ति की पहली पंक्ति ही समय सूचक संकेत लिये जीवन कथा-व्यथा कहती दिखी।

यथा-‘स्वरुप की नींद खुली तो उसने बांये हाथ की तरफ,दीवार पर टगीं घड़ी पर नजर दौड़ायी जो समय के संकेत के साथ अंदर के गहरे भावों को,आड़ा वक्त की ओर ले जाती है।’ दादा का पहले जागकर कहीं अन्यत्र चला जाना ही स्वरुप को ठीक नहीं लगा तथा चिंता का विषय बना।

कथाकार ने आड़ा वक्त की सार्थकता के लिये कथा को नामकरण के साथ दश सर्गों में संजोया है जो लगभग 118 पृष्ठों में विस्तार पाता है।

प्रत्येक सर्ग नई कथा को लेकर उभरा है। कथा की कहनि पाठक को बरबस बाँध लेती है और पाठक सब कुछ छोड़कर कथा में खो जाता है।

यह सर्ग भाई-भाई के स्नेह को बड़ी गहरी आत्मीयता देता है जो दादा के विशेष प्यार और स्नेह को आधार भी है। दादा हमेशा समय का तुल्नात्मक अध्ययन करते रहे है यह उनकी एक विशेष विशेषता रही है।

लोगो से मेल-मिलाप का जो भाव दादा का था वह उन्हें,उन मजदूरों के पास ले जाता है जो ईब नदी की रेत से कुछ निकाल रहे थे। उनकी बातचीत का तरीका भी अजब-गजब का रहा है। उन्होंने उन मजदूरों से क्षेत्र की वास्तविकता का सारा पता लगा लिया था। दादा को खोजते हुए स्वरुप का वहाँ पहुंचना आश्चर्य प्रकट करता है। उस किसान की व्यथा-कथा से प्राभावित होकर दादा का स्वरुप को समझाना ही जीनव की नई कहानी बनता है। उन्होंने स्वरुप से कहा-बेचारा यह किसान बड़ा दुखी है अपनी रोजी रोटी पर सासन द्वारा हक जमाना अच्छा नहीं है,तुम्हें उसकी मदद करना चाहिए किन्तु स्वरुप ने ना नुकुर किया तो दादा बोले-अपनी रोजी रोटी है तो क्या हम अन्यायी का साथ देगें स्वरुप।

उसके पास केवल यही पाँच बीघा जमीन है जिस पर वह तीन पीढ़ियों से खेती कर रहा है,बूढ़ा आदमी है बेचारा और कोई दूसरा आसरा नहीं है। इस पर विशेष ध्यान देना होगा। इस पर स्वरुप ने कहा था सरकार इसके लिए सही दाम दे देगी दादा,फिर अपन दुनिया की चिंता क्यों करै।

दादा को बड़ा दुख हुआ और बोले-स्वरुप तुम तो एक रात में ही बदल गए जबकी तुम्हारी पढ़ाई भी तो खेती से ही संभव हुई। वह किसान छोटा किसान है इतनी बड़ी सरकार से कैसे लड़ेगा। इतने सारे दृश्य दादा के किसानों और जमीन के प्रति अटूट विश्वास जताते है।

कथाकार ने शिक्षण विधि में पुराने अ को बनाने का जो तरीका दिखलाया है वह विशेष तर्कपूर्ण है। इस विश्लेषण पधति में बालकों को शिक्षा देना खोज पूर्ण सा लगा। यथा-हँसे थे दादा,चल मैं पुराना अ बनाना सिखाता हूँ,उन्होंने पूरी तक्ती पर इस तरह के चित्र उकेरे कि अन्त में वह अ आसानी से बन गया फिर तो स्वरुप ने उसे आसानी से बना लिया। यहाँ पर कथाकार ने भाषा लिपि पर वैज्ञानिकता का गहरा प्रभाव छोड़ा है। इससे लगता है कि वे उपन्यास का गठन भी ऐसे ही कई फुन्सा फोड़ कर रच डालने में सिध्दहस्त है। इसी तरह के अन्य चित्रांकन बिजूका और गोफनी के बनाने में दर्शाए है। कथा की सपाटता में इस तरह की खोजे कथा को अधिक स्थायीपन देती है। सासन के क्षेत्र में स्कूल की छत गिरने की कथा भी सासनतंत्र पर गहरा व्यंग देती है।

दूसरा सर्ग-हलधर-------यथा नाम तथा काम का परिचायक हैं जो किसानों की व्यथा को उजागर करता है। इस सर्ग में दादा का चिंतन वापसी यात्रा में होता है। दादा अवचेतन अवस्था में जीवन के प्रत्येक दृश्य पर अपने आप को खोया पाते है। जीवन का पिछला समय किन कष्टों में बीता उसे उनका अवचेतन मन बार-बार कचोटता है। विषम परिस्थितियों में भी,दादा ने अपनी जमीन का न बेचना आड़ा वक्त से जोड़ा है। यह सर्ग जीवन की फक्तहाली का दृश्य भी उकेरता है जिसमें डामर की सड़क पर काम करना और मजदूर रेजाओं की दुर्दशा पर भी अपने आप को संभाला है किन्तु जीवन से हिम्मत नहीं हारी है।

तीसरा सर्ग विस्थापन------इस सर्ग में सरकार द्वारा सुभद्रा के गाँव को बाँध में आ जाने से विस्थापन करना पड़ता हैं जिसमें सुभद्रा की जमीन चली जाती हैं जिसके बदले में उसे दूसरी जगह कुछ जमीन मिल पाती है किसानों के सारे आदोलन विफल हो जाते है जबकि दादा भी उसमें सामिल रहते है। यह सर्ग किसानों के दर्दों को विशेष रुप से कहता है।

सासन की तानासाही और किसानों की बेबशी विशेष रुप से पायी गयी है।

चौथा सर्ग जादूटोना-------इस सर्ग की कहानी भी बरबादी के कगारों पर खड़ी मिली जिसमें स्वरुप को अनेक संकटों को झेलना पड़ा है। जादूटोना भी उसे संकटों के समय में सच्चा और सार्थक सा दिखा। वंशों द्वारा सर्प के विष को मंत्रों के आधार पर अपने मुँह से खींचना आश्चर्य सा लगा किंतु वंशों का लोगो द्वारा परेशान होकर धर्म परिवर्तन करना असहनीय था।यह कहानी भी जिंदगी की एक नई दास्तान सी लगी जिसमें लोग रोजी रोटी के लिये किधर से किधर चले जाते है। इस तरह की कई दास्ताने इसमें जुड़ी है जो आड़ा वक्त को सार्थक बनाती है।

पाँचवा सर्ग निष्ठा--------ईमानदारी और निष्ठा का जीवन कितना कठिन होता है जिसकी पहल इस सर्ग में पाई जाती है कथा का विस्तार बताता है कि आदमी ठोकरों के बाद ही सुधार की ओर जाता है।

स्वरुप का रिश्बत न लेना और सादा जीवन के साथ सच्चाई से जीना उसके दर्दीले जीवन की कहानी कहता है। पृष्ठ 77 का दृष्य उसकी निष्ठा का विशेष सूचक सा लगा जहाँ उसने भाभी से स्पष्ठ शब्दों में कहा था-स्वरुप तो कभी रिश्वत लेता नहीं,जो रुखी सूखी रोटी खाकर अपना परिवार निभा सके,सबकी लाज रख सके,इज्जत रखे ऐसी ही लड़की देखूँगा। यह सर्ग स्वरुप की ईमानदारी को उजागर करता है।

छठवाँ सर्ग आदत------यह सर्ग एक कहानी के माध्यम से दर्शाया गया है जिसमें सरनेम यादव साहब के माध्यम से स्वरुप के कार्यों की कहानी है। यह कहानी उसकी सच्चाई और ईमानदारी के रुप में कही गई है जो स्वरुप के जीवन को महत्वपूर्ण बनाती है।यथा-

पृष्ठ 85-छत्तीसगढ़ में हर तरह का काम कराया है यादव साहब ने,मजाल क्या कि सुपरडेण्ट इंजीनियर ने भी उनके काम में नुक्स निकाला हो। एक वर्ष दिल्ली में भी मध्यप्रदेश भवन में इंचार्ज औफीसर रहकर बन आए है मगर क्या हिम्मत कि एक पैसा का भी किसी ने कलंक लगाया हो। इससे स्पष्ठ होता दिखता है कि बड़े कलाकार थे यादव साहब। कहानी का अंत बड़े घुमाबदार लहजे में किया गया है।

यथा-शर्मा जी बोले- आप तो इस जमाने में हरीशचन्द्र ही कहे जा सकते है। आपको तो पुरुस्कार और मैडल दिए जाने चाहिए लेकिन आपके ये हरामजादे---------।

सर्ग सातवाँ-किडनी-------इस सर्ग में दादा का आड़ा वक्त स्वरुप के जीवन से खिलवाड़ करता दिखता है जिसमें स्वरुप की किडनी का ऑपरेशन होना था किंतु पैसे के अभाव में तथा दादा का जमीन का मोह जो आड़ा वक्त के रुप में सामने आता है और स्वरुप को अपने जीवन से हाथ धोने पड़ते है। जब दादा से पैसे के बारे में जमीन बेचने को कहा गया तो दादा का जवाव मिला था-अरे तुमने एक ही जिद पकड़ ली है,जमीन बेच दो,जमीन तो आड़े वक्त के लिये होती है यो कहकर दादा घर से निकल गए थे। इस प्रकार यह सर्ग आड़े वक्त के नाम ही जाता है।

सर्ग आठवाँ-किसान आदोलन------

सासन के द्वारा किसानों की जमीन हड़पने का जो रवैया रहा उससे त्रसित होकर किसानों का एक बड़ा आदोलन दादा ने भोपाल में देखा। इस आदोलन में सासन ने एक आजूबा खेल खेला जिसमें नकली किसानों द्वारा तोड़-फोड़ करबाकर आदोलन को बिफल किया गया जिसे कथाकार ने बड़े ही अनूठे तरीके से प्रस्तुत किया है।

यथा-ताज्जुब तो ये है कि किसानों को इस का पता ही न था,वह तो कबका पर्दे के पीछे जा चुका था और उसे मौहरा बनाकर,जाने कितने लोग अपनी-अपनी रोटियाँ सेक रहे थे। इसी कारण वर्षों बाद मुमकिन हो सका एक सार्थक आंदोलन,ठीक वैसा ही असफल हो गया था जैसा आजादी का पहला आंदोलन जो बिना किसी योजना और विना किसी नेतृत्व के लड़ा गया था। इस आंदोलन में भी बाहरी तत्वों के घुस आने का बुरा नतीजा मंदसौर के पाँच मासूम लोगो की जान चले जाने के रुप में सामने आया था। इस दृश्य ने दादा के ह्रदय को गहरी चोट दी और दादा उदास हो गए थे। यह सर्ग सासान तंत्र की पेचीदी कार्यवाहियों का पर्दाफास करता है।

नौवाँ सर्ग-सुभद्रा------

यह सर्ग देखने में बहुत छोटा जरुर है पर सुभद्रा के जीवन की और दादा के दर्दों को गहराई से उकेरता है। इसमें सुभद्रा के पति का जीवन दफीना खोदने की आदतों से नष्ट जाता है। उसकी जमीन पर सासन की छावनी बन जाली है जिसे सुभद्रा भोपाल दादा को देखने जाते समय रेल के डिब्बा की खिड़की से देखते हुए जाती है।

यथा-अम्मा भी बेटा और दादा के गम में एक दिन चल ही बसी तो सिर्फ दो,-सुखे से भाई-बहन रह गए थे,दादा और सुभद्रा। इस प्रकार यह सर्ग अनकहे ही बहुत कुछ कह गया था।

दसवाँ सर्ग-आड़ा वक्त----------

दादा को देखने,जो भोपाल के अस्पताल में भर्ती है सुभद्रा का जाना बहुत कुछ अनकहा कहता है। चिंतन में दादा के दर्दों को लिए तथा जमीन पर चलते बुल्डोजरों की धड़कने सुभद्रा को अधिक बेचेन करती दिखी। यथा-‘सुभद्रा ने महशूस किया कि सिर्फ आँख से आँसू नहीं बल्कि सीधे उसके दिल से कुछ बहने लगा है। बिस्थापन का दर्द झेला है उसने भी। साड़ी का पल्लू खींचकर उसने अपने चहरे पर रख लिय़ा। आँख मूँद ली-दादा की तबियत को क्या हुआ होगा।’

सुभद्रा जब अस्पताल पहुंची तो दादा के बारे में कई जानकारी मिली जैसे-स्वरुप का बेटा टिंकू द्वारा जमीन का बिस्थापन तथा दादा का आड़ा वक्त समय की कहानी कहता दिखा। अंतिम दृश्य में सुभद्रा द्वारा कहलाई गई अड़गड़ भाषा का प्रभाव भी देखने को मिला।

यथा- ‘भौचक्का होकर बुआ की बातें सुनते-सुनते पप्पू को लग रहा था कि बुआ किसी लोक नायक की कलाकार हो गई है जो बिना किसी पांण्डू लिपि,विना स्वाँग और पोसाक के खेलें जा रही हैं किसी नुक्कड़ नाटक में किसानों को जगाने के लिए सहज और मार्मिक संवाद बोल रहीं है जो दिल से निकले दिल पर चोट करते संवाद।’

इन अड़गड़ संवादों से लगा कि समय ने पलटा खाया है जो दादा के अचेतन लहमों को चेतन की ओर मोड़ रहे है। दादा करवट लेते हुए चेतन अवस्था को प्राप्त हो रहे थे। सुभद्रा और पप्पू ने उन्हे संभाला। यहाँ पर उपन्यास ने पना नया मोड़ लिया जो दुखांत होते-होते से,सुखांत बन गया और अपने सास्वत सफलता प्राप्त की। कथाकार श्री बोहरे जी की कलम यहाँ पर कमाल करती दिखी। उपन्यास की भाषा एवं कहनि बड़ी ही रोचक पूर्ण रहीं है जिसने उपन्यास के सभी तत्वों का भली भाँति संरक्षण किया है। कथा की बुनावट और सजावट विभिन्न रंगों को लिए सहज भाव से पाठक को बाँधती है। जो गूंगे के गड़ की सार्थकता सी है। उपन्यास जन जीवन के अनेको पहलुओं को छूते हुए अपने लक्ष्य को पाता है जिसके लिए कथाकार और कथाकार की पेचीदी कलम बंदनीय है-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा ग्वा.(म.प्र.)

मो. 9981284867

(इति सुभम्)