gas lighting in Hindi Moral Stories by Rama Sharma Manavi books and stories PDF | गैस लाइटिंग

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गैस लाइटिंग

गैस लाइटिंग आखिर है क्या?सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है।यह एक ऐसा दुर्व्यवहार है, जिसमें इस तरह से ब्रेन वाशिंग की जाती है कि आपको अपनी काबिलियत एवं फैसलों पर शक होने लगता है।पीड़ित होते हुए भी आप स्वयं को ही कुसूरवार समझने लगते हैं।गैस लाइटर आपके हर क्रियाकलाप में कमियां निकालकर आपको यकीन दिला देता है कि आप गलत हैं।गैस लाइटर्स सिर्फ मित्र,सहकर्मी,परिचित ही नहीं, अपितु आपका जीवनसाथी, भाई-बहन और कभी -कभी माता -पिता भी हो सकते हैं।ये तंज कसकर औऱ हर छोटी-बड़ी बात पर भ्रमित कर आपका आत्मविश्वास डगमगा देते हैं, परिणामतः आप फैसले लेने में असमर्थ हो जाते हैं।ये आपकी भावनाओं पर इस कदर नियंत्रण कर लेते हैं कि आप मानसिक रूप से पंगु हो जाते हैं, आपकी सोचने और प्रतिरोध करने की क्षमता समाप्तप्राय सी हो जाती है।

रश्मि पांच बहनों में सबसे छोटी थी,उससे छोटे दो भाई थे।थोड़ी समझदार होने पर अक्सर इस बात पर इठलाती थी कि मैं दो भाई लेकर आई हूँ।बड़ी बहनें माँ के साथ घर के कामों में हाथ बंटा लेती थीं।रश्मि अच्छे नैन-नक्श की गेहुएं रँग की युवती थी।कस्बे में निवास करने के बावजूद माता-पिता ने अपनी सभी बेटियों को इंटर के पश्चात प्राइवेट MA तक शिक्षित कर दिया था।धीरे-धीरे उपयुक्त घर-वर देखकर रश्मि की चारों बहनों का विवाह हो गया, अब रश्मि की बारी थी।हालांकि वह अभी विवाह नहीं करना चाहती थी, क्योंकि उसका सपना पुलिस में भर्ती होने का था।स्वस्थ शरीर की रश्मि की लंबाई भी अच्छी निकल आई थी।घर-गृहस्थी के कार्यों में भी उसका विशेष मन नहीं लगता था, किन्तु आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व एक मध्यमवर्गीय परिवार की कन्या के लिए यह असम्भव सा ही था।अंततः विरोध हार गया और अशोक के साथ विवाह कर ससुराल आ गई।

ससुराल में भी भरापूरा परिवार था,एक जिठानी जो अपने परिवार के साथ वहीं अलग रहती थीं, दो छोटे देवर थे।जैसे ही देवर का विवाह हुआ ,सास ने रश्मि का किचन भी अलग कर दिया। 6-7 कमरों का घर था,बीच में ढेर सारी खाली जगह थी।सास-ससुर जिनके यहाँ चाहते थे खाना खा लेते थे, लेकिन छोटे बेटे से स्नेह अधिक होने के कारण अधिकतर उसके साथ ही रहते थे एवं अपना पेंशन उसके परिवार पर खर्च करते थे।

अशोक सरकारी बैंक में क्लर्क थे।दबा हुआ गेहुआँ रँग,किन्तु व्यक्तित्व आकर्षक था।वैसे दोनों की जोड़ी बहुत अच्छी लगती थी।स्वभाव के बारे में तो धीरे-धीरे ज्ञात होता है,अच्छाइयों, कमियों की परतें तो आहिस्ता आहिस्ता उघड़ती हैं।

रश्मि घर-गृहस्थी के कार्यों में अधिक निपुर्ण नहीं थी,परन्तु धीरे-धीरे कर तो सब कुछ ही लेती थी।एक बिल्कुल भिन्न माहौल में ढलना आसान तो कदापि नहीं होता।यदि पति का मानसिक-शारीरिक सहयोग प्राप्त हो तो काफी कुछ सरल हो जाता है।किंतु हमारे समाज की विडंबना यह है कि समझौता, सामंजस्य स्थापित करने का सारा दारोमदार स्त्री के मत्थे मढ़ दिया गया है।उसपर त्रासदी यह है कि अपेक्षाओं की लिस्ट इतनी लंबी होती है कि आखिरी सांस तक वह पूर्ण नहीं हो पाती है।

खैर, अशोक पूरे सामंती मानसिकता के पुरूष थे।उनकी दृष्टि में पत्नी की स्थिति गुलाम से ज्यादा नहीं थी।क्रोध में जुबान से फर्राटेदार गालियों की बौछार निकलती थी।जरा सा मनमाफ़िक काम नहीं हुआ तो रश्मि के माँ-बाप,भाई-बहन सभी को कोसना प्रारंभ कर देते थे।बेटे के क्रोधी स्वभाव के कारण ही सास विवाह के पश्चात ही पल्ला झाड़ कर अलग हो गई थीं।

विवाह के मुश्किल से 2-3 माह पश्चात की ही बात है, दाल में नमक थोड़ा कम था,पूरी थाली फेंककर रश्मि पर दे मारी, वह एक ओर हट गई, तब भी एक कटोरी उसके हाथ पर आ लगी और खून निकल आया।अशोक तो बाहर जाकर होटल पर खाना खा आया,रश्मि भूखी-प्यासी रोती रह गई।वापस आकर एक बार भी उसका हाल नहीं पूछा अशोक ने।

पूरा परिवार खाने का बेहद शौकीन था,सब्जी, दाल में आधी कटोरी तो घी चाहिए था,कचौड़ी-जलेबी का नाश्ता तो हर दूसरे दिन होता था।250 ग्राम मिठाई रोज खाना ही खाना था,रोज रात को बाजार का रबड़ी वाला दूध पीना था।ऐसे लोगों को घर के खाने में स्वाद कहाँ मिलता है।

अशोक आए दिन गाली गलौज करता था।रश्मि के हर काम में त्रुटि निकालता था।कभी कहता कि किस फूहड़ को मेरे पल्ले बांध दिया, जिसे न पहनने-ओढ़ने की तमीज है, न सलीके से घर रखने की, न ढंग से बात करने की।अब कौन कहे कि हर दूसरे दिन तो क्रोध में सारा घर तहस-नहस कर देते हो।कमरे के चारों दीवारों पर फेंके हुए खाने के निशान हैं, कितना साफ करो,हल्दी, चिकनाई के दाग तो रह ही जाते हैं।

घर में दोस्त, रिश्तेदार मौजूद हों तो भी वह रश्मि की बेइज्जती करने से नहीं चूकता था।कमीनी,हरामजादी,बावरी तो उसका सामान्य सम्बोधन था।रश्मि तो जैसे अपना वास्तविक नाम ही भूल गई थी।बीतते समय में 14 वर्षों में दो बेटे एवं दो बेटी की माँ बन चुकी थी, इसके साथ 2-3 गर्भपात भी कराए जा चुके थे।रश्मि की सबसे बड़ी कमी थी कि वह बिना नहाए-धोए, पूजा किए बगैर कुछ खाती नहीं थी,बस एक-दो कप चाय पी लेती थी।रश्मि के छोटे बेटे के मुंडन पर उसकी भाभी भी साथ में थीं।वहीं किसी बात पर अशोक चीख पड़ा,"कमीनी,तुझे किसी बात का होश नहीं रहता।"भाभी इतनी अभद्र भाषा सुनकर हतप्रभ रह गईं, उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो वह कठोरता से बोल पड़ीं कि जीजाजी,आप जैसे शिक्षित व्यक्ति के मुख से ऐसी भाषा शोभा नहीं देती,आइंदा मेरे समक्ष ऐसी भाषा का प्रयोग न करें।

चार बच्चों की परवरिश और उसपर पति का दुर्व्यवहार उसे शरीर तथा मन से खोखला बनाता जा रहा था।औऱ अफसोस तो यह था कि पिता के द्वारा कमियां निकालते देख बच्चे भी माँ को ही बेवकूफ एवं कुसूरवार मानने लगे थे कि माँ की गलतियों के ही कारण पिता की चीखने चिल्लाने की आदत पड़ गई है।रश्मि उन्हें क्या समझाती, वह तो हर बात के लिए स्वयं को ही दोषी मानने लगी थी।अशोक ने उसके मस्तिष्क में गहरे बिठा दिया था कि वह हर कार्य में अकुशल है।रश्मि के चेहरे एवं व्यक्तित्व में निरीहता स्थाई रूप से स्थापित हो चुकी थी।जब-तब वह बिसूरने लगती कि मैं अच्छी माँ-पत्नी नहीं बन सकी,मैं समय से खाना नहीं दे पाती,घर नहीं सम्हाल पाती, मेरी जिंदगी बेकार है, आदि-आदि।

युवा होती बेटी माँ का बड़ा सम्बल होती है शारीरिक और मानसिक रूप से।किन्तु रश्मि की छोटी बेटी तो अभी छोटी ही थी,बड़ी बेटी भी पिता के सुर में सुर मिलाती।कोई कहने वाला नहीं था कि यदि माँ समय से काम नहीं कर पाती तो तुम हाथ क्यों नहीं बंटा देती,कल को तुम्हारी गृहस्थी भी क्या माँ ही सम्हालेगी।

प्यार एवं तारीफ के दो बोल क्या होते हैं रश्मि ने विवाहोपरांत आज तक जाना ही नहीं।पीरियड्स के समय ब्लीडिंग अधिक होने लगी थी, जब औषधियों से नियंत्रित नहीं हुआ तो बढ़ती कमजोरी के कारण आनन-फानन में हिस्टेरॉक्टोमी करवानी पड़ी।विवाहिता बेटी माँ की सेवा 15 दिन भी नहीं कर सकी।

दोनों बेटे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाहर रहते हैं, छोटी बेटी भी ग्रेजुएशन बाहर से ही कर रही है।तीज-त्यौहार पर बच्चे घर आते हैं, सबकी फ़रमाइशें पूरी करती रश्मि के सेहत की किसी को परवाह नहीं है।कमजोरी के कारण कभी-कभी चक्कर आ जाने से खड़े-खड़े गिर पड़ती है।अब अशोक को थोड़ा सा होश आया है या शायद समाज में अपयश के भय से घर में कामवाली लगा दिया है, फिर भी जुबान पर नियंत्रण 58 वर्ष की उम्र में भी नहीं आ सका है।अशोक के साथ साथ युवा बच्चे भी कम दोषी नहीं हैं जिन्हें माँ की तकलीफ नहीं दिखाई देती, धिक्कार है ऐसे लोगों पर।

घर में शांति के लिए सामंजस्य तो ठीक है, किन्तु समझौते करते-करते स्वयं को मिट्टी में मिला देना भी सर्वथा अनुचित है।हम सभी महिलाएं इस बात को समझती भी हैं और स्वीकारती भी हैं, लेकिन होता यह है कि समझौते करते-करते कब यह हमारी आदत में तब्दील हो जाता है, हम जान ही नहीं पाते।कई दशकों पश्चात जब परिवर्तन करना चाहते हैं तो मन एवं अशक्त शरीर साथ ही नहीं देता औऱ हम थक-हारकर यथास्थिति स्वीकार कर लेते हैं।

लेकिन कभी-कभी मन में दबा गुबार ज्वालामुखी की भांति विस्फोट कर जाता है, तब परिवार में विघटन हो जाता है, या अशान्तिपूर्ण वातावरण उत्पन्न हो जाता है।या फिर वह गम्भीर अवसाद में चला जाता है।

ऐसी परिस्थितियों से बचने का एकमात्र उपाय यही है कि प्रारंभ से ही किसी भी गलत बात को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।दृढ़ता से अपने विचार,अस्तित्व एवं स्वाभिमान की मर्यादापूर्वक रक्षा करनी चाहिए।कोई कितना भी निकटवर्ती क्यों न हो, अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं करने देना चाहिए।

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