Rishtey Tijarat nahi hote - 1 in Hindi Moral Stories by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | रिश्ते तिज़ारत नहीं होते - 1

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रिश्ते तिज़ारत नहीं होते - 1

(1)

मुझे नहीं पता था कि उम्र के चौथेपन में मुझे इन स्थितियों का सामना करना पड़ेगा। कोविड 19 की पहली लहर बीमारी से बचने, नौकरी को बचाने, ऑनलाइन पढ़ाने के तनाव में ऊपर ही ऊपर से गुजर गई थी। 
इस लहर में बीमारी से तो बच गई पर अपनी नौकरी को न बचा सकी। ऑनलाइन के झमेले खत्म हुए पर रिश्तों के झमेले शुरू हो गए। आमदनी बिल्कुल बंद हो गई थी। कॅरोना काल में नई नौकरी मिलने वाली नहीं थी। अब तक किसी पर आश्रित नहीं थी। किसी की मदद की दरकार भी न थी पर अब जीवन का वह नाजुक दौर शुरू होने वाला था, जिसमें किसी न किसी के मदद की जरूरत पड़ सकती थी। सबसे पहले बेटे ने कदम बढ़ाया कि वह मदद करेगा। उसने कहा -एक आदमी का खर्च ही कितना होता है !बस पांच किलो चावल, पांच किलो आटा, एक किलो दाल, दो -चार सौ की सब्जी महीने भर के लिए काफी होगा और क्या चाहिए? मैंने कहा- बेटा जी दाल, चावल, आटा, सब्जी के अलावा भी बहुत खर्च होता है । 

बेटे ने फरमाया--तेल, मसाला, चीनी, चाय, दूध ही न! वह सब मेरे जिम्मे रहेगा। 

'दवा, बिजली, मकान की क़िस्त, मोबाइल, टीवी आदि के खर्चे राशन से अधिक होते हैं। आँख में झिल्ली आ गई है उसका लेज़र करवाना जरूरी है। दिखाई कम पड़ने लगा है। '

--वह सब खर्च आप करिए। पी एफ और ग्रैजुएटी के पैसे तो मिले ही होंगे आपको। 

'प्राइवेट स्कूल में ये सब बहुत ही कम मिलता है। कुल चार लाख के करीब हुआ था पर वह सब तो मैंने दो साल पहले ही ले लिया था। ऊपर का किचन और बाथरूम उसी से बना है। 

-इतने दिन से क्या कमा रही थीं?

'ये दोमंजिला घर उसी से बना है न!शहर में रहने का खर्च भी तो कम नहीं होता । कहीं से कोई स्पोर्ट भी नहीं मिला। अकेले दम पर इतना ही कर सकी। सेलरी ही कितनी थी!16 सालों में 5 हजार से शुरू होकर 45 हजार पर बंद हो गई। कोई सरकारी नौकरी तो थी नहीं कि अच्छी सेलरी हो, बढ़िया ग्रेजुएटी मिले, साथ ही उम्र भर ठीक-ठाक पेंशन मिले। प्राइवेट स्कूलों में शिक्षक का हर तरह से शोषण होता है। '

मैं बेटे के सामने अपना दुखड़ा रो रही थी पर उसकी आँखों में गहरा अविश्वास था। 

--तो मैं भी क्या करूँ ?मेरे सामने तो खुद बहुत खर्चे हैं। बीबी है बच्चा है। ससुराल वाले गरीब हैं उनकी भी मदद करनी पड़ती है। अभी छोटी साली की शादी में लाख- दो लाख का खर्च मेरे जिम्मे है। पिताजी सरकारी नौकरी से रिटायर हुए हैं अच्छा पेंशन भी पाते हैं । जमीन -जायजात, खेत -बारी सब है। दूकान और मकान से लाखों का किराया आता है फिर भी सौतेली माँ और सौतेले भाइयों के नाम पर मोटा रकम वसूलते रहते हैं कि सरकारी नौकरी में हो । अच्छा कमाते हो। मैं तो परेशान हो गया हूँ। सबको मुझसे ही कुछ न कुछ चाहिए। अपना तो कोई कुछ देता नहीं। 

बेटे की बात पर मुझे गुस्सा आने लगा था, फिर भी खुद को जब्त किए हुए थी। 

मुझ पर खर्च करने से पहले ही वह अपनी मजबूरी बताने लगा था और शिकायत भी कर रहा था कि उसे कोई कुछ नहीं दे रहा। 

मेरे पास यही एक घर है जो उसके नाम वसीयत कर चुकी हूं। यह बात वह भी जानता है। पर मेरे मरने के बाद ही उसको कब्ज़ा मिलेगा, यह बात उसे खलती है। वह अभी से इस पर कब्ज़ा चाहता है। उसे डर है कि कहीं इस घर को अपने किसी भाई-बंधु को न दे दूं। मैंने कई बार उसे इस घर में आकर रहने को कहा है पर उसकी बीबी ने मना कर दिया है कि इतने छोटे घर में नहीं रह पाऊँगी। 

'तुम्हारे पिताजी क्यों तुमसे पैसे लेते हैं?'

--उन्होंने और सौतेली माँ ने पाला है उसकी कीमत ही लेते हैं। सौतेले भाई अभी आत्मनिर्भर नहीं हैं। उनका हक तो बनता ही हैं न!--उसने प्रकारांतर से मुझे फिर से ताना मारा है। 

'उन्होंने क्या तुम्हारे भरोसे बच्चे पैदा किए थे?जब तुम उनकी औलाद थे उनके पास रह रहे थे फिर उन्होंने दूसरी शादी क्यों की?

--उनकी जरूरत थी । आपसे अलगाव के बाद अकेले ही रहते क्या?मुझे पालना भी था। 

'तुम सात साल के हो चुके थे जब वे तुम्हें मेरे पास से उठा ले गए थे। '

--उसके बाद भी तो जरूरत होती है। वे मुझे स्कूल टिफिन बनाकर देती थीं। ये अहसान कम तो नहीं। 

'चलो शादी तुम्हारे पिता की जरूरत थी पर और बच्चे तो जरूरी नहीं थे। '

--क्यों नहीं थे ?माँ बनने की इच्छा तो हर औरत को होती है। 

हमेशा की तरह बेटा अपने पिता को सही साबित करने में लग गया। पिता ही नहीं, अपने ससुराल वालों, यहां तक कि सारी दुनिया से उसको सहानुभूति है । सबकी मजबूरी वह समझता है, सबकी मदद करता है सिवाय मेरी। मेरी हर बात, हर निर्णय, हर कार्य को गलत सिद्ध करने में उसकी विशेष रूचि है। रिश्ते -नाते में जहाँ भी मेरी शिकायत होती है, वहाँ आना-जाना शुरू कर देता है। बढ़ -चढ़कर मेरी बुराई में हिस्सेदारी निभाता है। पकड़े जाने या बात खुलने पर साफ़ मुकर जाता है या मुझ पर ही गलत समझने का आरोप मढ़ देता है। हर बार ऐसा ही होता है। उसका स्वभाव ही ऐसा बन चुका है । पता नहीं सच ही उसको इस बात का अहसास नहीं या वह जानबूझकर ऐसा करता है। 

ऐसा ही उसका पिता था। उसके साथ जीवन जीना इतना कठिन हो गया था कि मैं उससे अलग हो गई। पति से तो अलग हो गई बेटे से कैसे अलग हो सकती हूँ, आखिर माँ हूँ। 

पर मेरे भीतर की खुद्दार स्त्री उसकी बातों से तिलमिलाती है। 

--आप यह घर बेच दीजिए और चलकर मेरे साथ रहिए। 

'अपना घर बेचकर तुम्हारे किराए के घर में रहूँ। पूरी गृहस्थी के सामान का क्या होगा?'

--सब पुराना ही तो है कबाड़ में बेच दीजिए। घर और सामान बेचकर जो पैसा मिले वह मुझे दे दीजिए उसमें और पैसा मिलाकर बड़ा घर खरीद लेंगे। 

ओह! तो सारा उपक्रम इसीलिए है कि मैं घर बेचकर उस पर आश्रित हो जाऊँ। आश्रित ही नहीं लाचार भी। उसके अनुसार जिंदगी जीऊं। शायद रिटायरमेंट की खबर सुनते ही वर्षों बाद वह इसी योजना के तहत मेरे पास आने लगा है और कई तरीकों से मेरा ब्रेनवाश करता रहा है!पोते से मेरे भावनात्मक लगाव का भी फायदा उठाना चाहता है। मान लो मैं ऐसा कर भी दूं और उसके घर रहने लगूँ तो क्या उसके घर में उसके पिता, उसकी सौतेली माँ और भाइयों का आना -जाना रोक पाऊँगी ?मेरे सामने पड़ने पर वे लोग तानाकशी, उपेक्षा व अनादर का प्रदर्शन नहीं करेंगे ?क्या उसको सहने के सिवा मेरे पास कोई और चारा होगा?उनके घर के किसी कोने में बंधी लाचार बकरी -सी मेरी स्थिति हो जाएगी। रूठूँगी भी तो कहां जाऊंगी?अपना घर तो होगा नहीं। 

बहूरानी भी तो पूरी हीरोइन है दो टाइम का खाना बनाना भी जिसे भारी लगता है, उसे मेरे लिए दो रोटी ज्यादा बनाना खल जाएगा। कभी -कभार उसके पास जाकर उसकी मुखमुद्रा का अवलोकन कर चुकी हूँ। वह तो बिल्कुल भी नहीं चाहती कि मैं उसके घर आऊँ। उसके घर उसके मायके के एक-दो लोग परमानेंट तौर पर मौजूद रहते हैं। मेरे होने पर कुछ संकोच, कुछ सामाजिक भय से उसकी स्वच्छंदता बाधित हो जाएगी। 

मुझे बेघर, लाचार और मोहताज़ बनाने की योजना के पीछे मेरे भूतपूर्व पति का दिमाग है । बेटा तो हमेशा की तरह मात्र उसका मुहरा है। उसने सिखाया होगा कि मेरे साथ इस तरह का इमोशनल, इक्नॉमिकल, सोशल और मेंटल कार्ड खेले। उसके जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा यही रही है कि वह मुझे अपने कदमों में गिराकर मुझसे माफी मंगवाए। मुझे यह अहसास कराए कि उसे छोड़कर मैंने जीवन की सबसे बड़ी भूल की है कि अगर मैं उसके साथ होती तो एक हैप्पी लाइफ़ जी रही होती। वह अवसर मिलते ही रिश्ते- नाते, समाज, सोशल मीडिया सभी जगह मुझे गलत साबित करने की कोशिश करता रहा है साथ ही मुझसे मित्रता करने के लिए भी लालायित है। उसे यह विश्वास ही नहीं होता कि उसको मैं तीस साल पहले अपनी मर्जी से छोड़ चुकी हूं। उसे हमेशा लगता है कि मुझे भड़काया गया था। उसका खुद पर अतिरिक्त आत्मविश्वास आज भी कायम है और अपनी गलती मानने को तैयार नहीं। शायद ऐसे लोगों का मेल ईगो चरम पर होता है। उसने मुझे प्रताड़ित करने के लिए क्या- क्या नहीं किया?इतनी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक पीड़ा पहुँचाई कि नजरों से गिरा तो फिर उठा ही नहीं। मैं कभी उसे माफ़ नहीं कर पाई क्योंकि वह सुधरा ही नहीं। कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं की। आज भी मौका मिलते ही वह डंसने की कोशिश जरूर करता है। मुझे सबकी नज़रों से गिराकर खुद ऊपर उठना चाहता है। बेटे के मन में मेरे प्रति उसने इतनी कड़वाहट भर दी है कि बेटा भी मेरे प्रति ज़हरीला हो गया है। 

क्या इस चौथेपन में उसकी मंशा पूरी हो जाएगी?क्या इतनी मजबूर हो गई हूं मैं। 

---मैं आपको अधिकतम पाँच हजार रूपए दे सकता हूँ। वह भी इस शर्त पर कि आप इस बात की गारंटी दें कि आपकी सम्पत्ति का वारिस मैं ही हूँ। मुझे मकान के कागज़ात सौंप दें। आँख का ऑपरेशन भी करवा दूंगा अगर आप पैसा दें। 

बेटा अब खुलकर सामने आ गया। 

--मैं पैसा दूँगी तब ऑपरेशन होगा। कागज़ात दूँगी तो दाल- रोटी दोगे। क्या अपनी माँ के प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं। 

'कैसी माँ! आपने मेरे लिए किया ही क्या है?'

--क्यों नौ महीने पेट में नहीं रखा। दो साल तक अपना दूध नहीं पिलाया। सात साल तक तुम्हारी परवरिश नहीं की। यही तो असली समय होता है। नन्हे शिशु को बालक बनाना। बोलना, चलना, अक्षर ज्ञान कराना, रात -रात भर जागना, गीले में सोना सूखे में सुलाना...। 

'और फिर अपनी महत्वाकांक्षा में छोड़ जाना....। '

--मैं कितनी बार बताऊँ कि तुम्हें मुझसे ज़बरन अलगाया गया था। '

बेटा बार -बार अतीत को कुरेदने लगता है जबकि खुद कहता है कि पुरानी बातों को भूलकर नई शुरूवात करनी है पर अपने पिता की तरह मुझे गिराने और अपमानित करने का एक भी अवसर नहीं छोड़ता। 

--तो तुम मुझसे डील करने आए हो!मकान देने पर खर्च दोगे!तो मकान तो 50 लाख का है मुझे अधिकतम 5-10 वर्ष जीना है। 5 हजार तो बहुत कम है। मेरा खर्च 15 हजार महीने है। 

'5 से अधिक नहीं दे पाऊंगा.....!

वैसे भी पिता की जायजात से मुझे हिस्सा नहीं लेना है । सौतेले भाईयों को अपना भी हिस्सा दे दूंगा। उनके प्रति भी तो मेरा फर्ज़ है। '

आखिर ये लड़का मुझसे इस तरह की बातें क्यों कर रहा है?एक तरफ तो पिता- पक्ष के बारे में बातें करके मुझे इरिटेट कर रहा है दूसरी तरफ मुझसे सीधे- सीधे सौदेबाजी कर रहा है। मेरा ब्लडप्रेशर बढ़ रहा है। 45 हजार कमाने वाली को आज पांच हजार के लाले पड़ गए । सत्यानाश हो प्राइवेट स्कूल वालों। जीवन भर मुझसे काम कराया और अब उम्र के इस सांध्य -पहर में दूसरों का मोहताज कर दिया। 5- 10 हजार पेंशन भी दे देते तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता?

--ऐसा करो कि तुम मुझे कुछ न देना। मैंने तुमसे कुछ कहा भी नहीं था । तुम्हीं आकर खाने -खर्चे की बात करने लगे। इतनी उम्र बिना किसी मदद के गुजारी है आगे भी गुजार लूंगी। मुझे माफ़ करो और यहां से जाओ। ब्लडप्रेशर की मरीज हूँ तुम मेरा हार्ट अटैक करा दोगे। 

'पापा ठीक कहते हैं आप गैर सामाजिक, गैर पारिवारिक हैं। आपको किसी से लगाव नहीं। अपने बेटे से भी प्यार नहीं । सारा पैसा यहीं रह जाएगा। कुछ हो गया तो कोई नहीं पूछेगा। इस उम्र में परिवार की जरूरत सबको पड़ती है। '

'परिवार...समाज!यही है न जो सौदेबाजी कर रहा है। तुम जाओ, जो समझना है समझो। मैं बुरी स्त्री हूँ। हमेशा से रही हूँ अब अच्छा नहीं बनना मुझे। मैं अपनी व्यवस्था कर लूंगी। तुम लोगों की सेवा नहीं चाहिए। मैंने कुछ नहीं किया है तुम्हारे लिए, तुम भी मत करना। 

बेटा बड़बड़ाता शायद गालियाँ देता हुआ चला गया। इधर कुछ दिन उसने साग- सब्जी ला दी थी। अपने ग्वाले से आधा किलो दूध भी दिलवा रहा था। उसका पैसा अकारथ चला गया था। सौदेबाजी नहीं हुई थी । मैं शातिर, चालाक साबित हुई थी। काश, वह समझ पाता कि रिश्ते तिज़ारत नहीं होते। 

कोविड का दूसरा दौर शुरू हो गया था। इस बार उसका रूप और भी भयावह था। धड़ाधड़ मौतें हो रही थीं। घर से बाहर कदम रखना भी खतरे से खाली नहीं था। हवा थी कि हवा से भी कोविड फैल रहा है। मेरे लिए और भी मुश्किल की घड़ी थी। राशन सब्जी लाने वाला भी कोई नहीं था। दूध वाला एक दिन पैसा लेने आ गया कि दो महीने से आपके दूध का पैसा बेटे ने नहीं दिया है। डील नहीं हुई तो पैसा क्यों दे? मुझे लगा था कि वह इस हद तक तो नहीं ही गिरेगा। पर अच्छा ही हुआ । रही -सही उम्मीद भी टूट गई। सेविंग के पैसे हैं एकाध वर्ष काम चला लूंगी। वैसे भी किफायत से काम चलाने की आदत है। दूध वाला एक दिन पैसा लेने आ गया कि दो महीने से आपके दूध का पैसा बेटे ने नहीं दिया है। सौदेबाजी नहीं हुई तो पैसा क्यों दे? मुझे लगा था कि वह इस हद तक तो नहीं ही गिरेगा। पर अच्छा ही हुआ । रही -सही उम्मीद भी टूट गई। अब सिर्फ सेविंग के पैसों से ही उम्मीद थी कि एकाध वर्ष काम चल जाएगा। वैसे भी किफायत से काम चलाने की आदत रही है।