Nainam chhindati shstrani - 59 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 59

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नैनं छिन्दति शस्त्राणि - 59

59

बिना किसी टीम-टाम के दोनों शादियाँ सम्पन्न हो गईं | समिधा के पिता, सूद आँटी-अंकल, बोस पति –पत्नी, दूरदर्शन के कुछ साथी, रोज़ी, जैक्सन व उसके माता-पिता -----बस, इतने लोग दोनों शादियों में सम्मिलित हुए| जैक्सन तो अभी बंबई आया था, उसका कोई मित्र यहाँ नहीं था |आर्य-समाज व चर्च, दोनों शादियों में वही लोग थे | दोनों समय सबने एकअच्छे होटल में भोजन किया, आनंद किया और दोनों जोड़ों को शुभकामनाएँ प्रदान कीं |

इंदु को अगले ही दिन सुबह वापिस लौट जाना था अत: वह समिधा को अपने पुत्र के घर प्रवेश करवाकर जाना चाहती थी | उस दिन समिधा के पिता, सूद आंटी-अंकल समिधा के घर, दूरदर्शन परिसर में रहे |

रात में इंदु ने समिधा से बहुत सी बातें कीं, समिधा के पिता का बहुत स्म्मनीय चित्र उसके सम्मुख खींचा और अपने परिवार व सारांश के संवेदनशील स्वभाव के बारे में बताया | वैसे सारांश पहले ही अपने परिवार के बारे में बहुत कुछ अपनी दोनों मित्रों से साझा कर चुका था | समिधा को इंदु में अपनी ममताली, स्नेह व आशीषों से भारी माँ मिल गई थी | वह इंदु के पावन स्नेही आँचल के नीचे एक नन्हे शिशु की भाँति सिमट आई थी |

अगले दिन सुबह की उड़ान से इंदु चली गई और सारांश व समिधा वापिस दूरदर्शन के क्वार्टर पर आ गए | पापा व आँटी-अंकल अभी दो दिन रहने वाले थे अत: वे दोनों उनके साथ समय बिताना चाहते थे | कठिन होता है जीवन हमसफ़र के साथ ज़िंदगी की ख़ुशी और गम बाँटे बिना !इंदु का जीवन जिन काँटे भारी झाड़ियों में कभी अटककर, कभी फँसकर चलता रहा था, उसमें से बचने की जद्दोजहद में वह भीतर से टूट गई थी | उसके मन-आँगन में एक ऐसी उदासी घर कर गई थी जिसमें से निकालना उसके लिए उम्र भर की चुनौती था |उसे अपने एकमात्र पुत्र के लिए अपने मुख पर पट्टी बाँधकर रखनी थी |कभी-कभी पुत्र के तीक्ष्ण व्यंग्य-बाण भी चुप होकर सहने थे |पति विलास के सम्मान की सुरक्षा भी करनी थी |

उसके लिए यह जीवन-युद्ध सरल नहीं था, उसके जीवन के उत्साह की आहुति तो पहले ही हो चुकी थी | उसके पास अब अपना कहने को शेष ही क्या रहा था ?केवल मन का सूना आँगन !जिसे वह किसी के भी समक्ष उघाड़कर नहीं दिखा सकती थी |वह अपने पति विलास को खूब अच्छी तरह जानती, पहचानती थी | वे बहुत अच्छे अध्यापक, बहुत अच्छे मित्र, और सबसे बड़ी बात बहुत अच्छे इंसान थे | एक ऐसे इंसान जो किसीके लिए अपनी ज़िंदगी की बहुमूल्य वस्तु को कुर्बान करने में केएसएचएन भर भी नहीं हिचकते |आधी रात को भी किसी के दुख में, कष्ट में, अपनी परेशानी की परवाह किए बिना ढाल बनकर खड़े हो सकते थे |

सारांश अपने पिता के गुणों से भली प्रकार परिचित था | उसके मन को सदा एक ही प्रश्न तीर के समान बेंधता रहा था कि इतना अच्छा इंसान होने के उपरांत अपने बेटे के लिए उनके मन की गर्माहट कहाँ चली गई थी? एक पिता की संवेदनाओं को कौनसा तूफ़ानी झौंका उड़ा ले गया था ?सारांश के किस शत्रु ने उनके कान भरे थे?इन सभी प्रश्नों से वह कभी भी जूझने लगता था |जब इंदु से सारांश यह सब पूछता, वह पीड़ा से काँपने लगती, उसे कोई उत्तर नहीं सूझता | वह तो किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थी, अपना अकेलापन, अपनी पीर किसी के साथ नहीं बाँट सकती थी | उसे तो चुप रहना था और चुप रहकर अपने जीवन के चल-चित्र में अपना पात्र मुस्कुराते हुए निभाना था | इंदु के प्रेम-विवाह के बाद भी उसका पूरा जीवन एक प्रतीक्षा बनकर रह गया था |जिसके बारे में किसी से बात करना तो दूर, वह किसीको लेशमात्र शंका भी नहीं होने दे सकती थी |

प्रो.विलास चंद्र भारद्वाज की इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक अपनी ही छवि थी | एक स्तरीय प्रोफ़ेसर, एक सहृदय इंसान के रूप में उन्हें पसंद करने वालों की कमी न थी | उन्होंने विश्वविद्यालय से शेक्सपीयर व कालिदास के ग्रंथों पर तुलनात्मक अध्ययन किया था | उनकी पत्नी इंदु के बनारस विश्विद्यालय से कालिदास पर काम किया था| विलास व इंदु का बनारस में मिलना एक फिल्मी कहानी से कम न था | वह भी भारतीय पिता व अंग्रेज़ माँ के रक्त से सिंचित एक खिलता हुआ पुष्प थी | उसने विलास में एक साथी के गुण देखे थे | उन दिनों प्रेम-विवाह एक सपना मात्र था | जिस प्रकार दोनों एक बंधन में बंधे थे, यह अद्भुत था |सोलह कलाओं से युक्त इंदु के भीतर आख़िर कौनसा दाग उसे पीड़ा देता रहा था ? कोई इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता था | प्रोफ़ेसर विश्वविद्यालय के अतिरिक्त हर समय अपने अध्ययन-कक्ष में नई-नई शोध में तल्लीन रहते, जैसे वे हर पल किन्हीं सायों से घिरे रहते थे |

मन के खण्डहरों से निकलती आवाज़ें उसके मन व तन को शिथिल कर रही थीं | एक अजीब से एहसास ने इंदु की तंद्रा को झकझोर डाला, उसका सारा गात भीतर से काँप रहा था | उसकी आँखों के समक्ष बीते समय की तुरपन ऐसे उधड़ रही थी जैसे किसी पुराने कपड़े की सिलाई उधड़ने लगती है | अजीब सी बेहोशी की तंद्रा में इंदु का मन उन दिनों के बरखे पलटने लगा जब विलास को नई-नई डॉक्टरेट की डिगरी मिली थी और माँ, चंपा माँ और वह कितने खुश थे ! इलाहाबाद विश्विद्यालय से विलास को कितने आदर से निमंत्रण मिला था | विलास कृतज्ञ था इतने बड़े विश्वविद्यालय के प्रति, उसने धन्यवाद अर्पित करते हुए अपनी व परिवार की इच्छानुसारमाँ के पास रहकर कुछ वर्षों तक अपने शहर के नए खुले कॉलेज में रहकर वहाँ की व्यवस्था में हाथ बँटाना अपना कर्तव्य समझा था जहाँ उसका जन्म हुआ था और जिस मिट्टी में वह खेला था | इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने विलास को सहर्ष अनुमति देकर कहा था कि अपनी जन्मभूमि के प्रति कृतज्ञता –ज्ञापन करके जब चाहे वहाँ जा सकता था |

विलास व इंदु का एक ही कॉलेज में पढ़ाना सबके लिए सुंदर संयोग था | उस पर इंदु का नृत्यशाला खोलना, जहाँ कई लड़कियाँ शास्त्रीय नृत्य के लिए आने लगीं थीं कि शहर के लोगों की सोच में परिवर्तन आ रहा था | कोई भी परिवर्तन रातों-रात नहीं होता | समाज की धुंधली सोच से अज्ञानता की पट्टी उतारकर उस सोच को क्रमश: रोशनी की ओर अग्रसर करना होता है | इसके लिए सबसे अधिक आवश्यकता धैर्य की होती है जो परिवार के सबी सदस्यों में था|

मन में प्रेम, स्नेह, सदभावनाओं के साथ मानवता की ज्योति जलाए सारांश व समिधा हाथों में हाथ थामे अपने कर्तव्य-पाठ पर नि:शंक हो अग्रसर हो रहे थे |प्रतिदिन प्रात: भ्रमण उनकी दिनचर्या का प्रथम चरण होता | नवविवाहित जोड़ा मुँह अँधेरे राजवाहे की पगडंडियों से गुज़रते हुए घंटा भर ‘शांति बाग’ में घूमते और फिर वापिस आकर अपनी दिनचर्या में संलग्न हो जाते |माँ का कॉलेज सुबह का था | ये दोनों जब प्रात: भ्रमण से लौटते माँ निकल जातीं अथवा निकल रही होतीं |कभी कुछ देर बात हो पाती तो कभी केवल सुबह का प्रणाम भर हो पाता |

विलास की माँ अपनी खूबसूरत गुलाबी छुई-मुई सी नवोढ़ा पुत्रवधू को अपने पैर छूने की चेष्टा करते देख बीच में ही अपने अंक में भर लेतीं और उसके सुंदर भाल पर एक शुभाशीष का स्नेह चुंबन अंकित कर देतीं | माँ यदि निकाल चुकी होतीं तो इन्हें केवल चंपा माँ ही मिल पातीं | चंपा माँ के चरण स्पर्श करने पर वे इतनी स्नेहयुक्त, इतनी भावुक हो उठतीं कि इंदु को गले लगाकर उसे मातृ-स्नेह से भर देतीं |