मैं जिस तंत्र का हिस्सा हूँ; कोई भी उसमें मुझसे या मेरे होने से संतुष्ट नहीं था। अधिकतर सभी मुझे और मुझसे संबंधित को महत्व नहीं देते थे; मुझे मेरे लिये सभी की कुछ अभिव्यक्ति से तो ऐसा लगता था कि मैं उनके लिये तुच्छता की पराकाष्ठा या तुच्छता का पर्याय हूँ। मेरे कुछ सहपाठी; मेरे साथ रहना अधिकतर पसंद नहीं करते थे परंतु कयी बार स्तथि से विवशता के परिणाम स्वरूप यदि मेरे सानिध्य के अतिरिक्त कोई भी विकल्प नहीं रहें; तो मुझसे ठीक वैसा ही व्यहवार करते थे, जैसा कि मैंने निम्न जाति के लोगों के साथ, नाम के ब्राह्मणों द्वारा करते सुना हैं, अब मुझे लगता हैं कि मैं अत्यंत भावुक होने से, मेरे सहपाठीयों की अज्ञानता या बचपन को शायद कुछ अधिक ही गंभीरता से ले लेता होंगा, परंतु कारण वह हो या मैं स्वयं परंतु यह सत्य हैं कि मुझे सहपाठियों और कुछ अन्य लोगो का ऐसा करना अत्यंत उनके, मेरे या यह सभी के कारण भी, आहत करता था। इसके कारण मुझमें आत्मविश्वास की इतनी कमी हो गयी थी कि मैं छोटी हो या बड़ी, सफलता से सदैव वंचित रहता था। मुझे याद हैं कि पहली सफलता मुझे मेरी कविता रचने की कला से मिली थी; यह शायद मेरी पहली मुझसे संबंधित थी; जिसे मुझे तुच्छ समझने वाले भी महत्व देने से नहीं रुक पाते थे। मेरी इस कला का ज्ञान मुझे मेरे किसी ऐसे कर्म के परिणाम स्वरूप हुआ था जो मेरी सत्यनिष्ठा या ईमानदारी का परिणाम था अतः मैंने निश्चिय किया कि मैं इस कला का उपयोग सर्वश्रेष्ठता से करूँगा और इसके माध्यम् से जो भी बनूँगा; सर्वश्रेष्ठ बनूँगा। अब, मन में विचार आया कि यदि सर्वश्रेष्ठ कवि बनना हैं तो सर्वश्रेष्ठ लोगों का अनुगमन करना होगा। आचार्य चाणक्य, मीराबाई, अब्दुल पाकी जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम, कवि भूषण, विवेकानंद, रविन्द्र नाथ टैगोर, गोस्वामी तुलसीदास जी, रहीम खान-ई-खाना, कबीर दास आदि की रचनायें कक्षा ०८, ०९ और १० वी में पढ़ी थी और सर्वश्रेष्ठ कवि के पर्याय वही थे, सम्राट अशोक, शिवजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जी और जितने भी सर्वश्रेष्ठ लोग थे उन सभी को मैं अपना गुरु मानता था। मेरा ऐसा मानना था कि कोई भी, भले ही वह तुच्छ से तुच्छ प्रतीत हो; यदि वह कुछ ऐसा सिखायें जिससे कि उससे अपना हित हो, वह अपना गुरु हुआ, उसे गुरु मानने और महत्व देने में संकोच नहीं करना चाहिये। मैं सभी के बारे में जानता और उनके विचारों को अपने जीवन में उतारने या व्यवहार में लाने का प्रयत्न करता। मेरे मन में प्रश्न आया कि इसका क्या प्रमाण हैं कि जो भी भाव, विचार या ज्ञान मुझें प्राप्त होते हैं वह वही हैं जिसकी अभिव्यक्ति उनके मूल अभिव्यक्ति कर्ताओं ने की होगी? मेरी जानने की इच्छा की, इस बात की पुष्टि नहीं होने से संतुष्टि नहीं होती थी। तब से मैंने सर्वश्रेष्ठ लोगो का अनुगमन करने के स्थान पर ज्ञान के मूल स्रोत अर्थात् चिंतन से ज्ञान प्राप्ति का तय किया क्योंकि किसी अन्य श्रोत से यदि इसकी प्राप्ति हो भी जायें, तो मेरी जिज्ञासा की संतुष्टि के लिये यह पर्याप्त नहीं। जैसे लोगो का मैं अनुसरण करता था अब, क्योंकि ज्ञान जो उन्हें ज्ञात हुआ वह मूल स्रोत चिंतन से ही उपजा था, मेरे भी वही से प्राप्त करने से मेरे विचार मेरे गुरुओं से स्वतः मिलते हैं। मैंने कक्षा ०९ से चिंतन प्रारंभ किया और तब से आज तक मैं एक चिंतक हूँ और प्रति पल, प्रति क्षण ज्ञान की प्राप्ति ज्ञान के मूल स्रोत (चिंतन) से करता रहता हूँ। ज्ञान के अन्य स्रोतों से ज्ञान प्राप्ति को महत्व नहीं देता क्योंकि वहाँ से ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है परंतु उसके सही मायने ज्ञान के मूल स्रोत से ही प्राप्त होते है। अन्य स्रोतों का सहारा तो केवल इसकी पुष्टि के लिये करता हूँ, उस सूत्र के माध्यम् से जो मैंने चिंतन से ज्ञात किया है; उसकी कसौटी पर कस अन्य स्रोतों के ज्ञान की पुष्टि करने हेतु मैंने। जब भी ऐसा कुछ ज्ञात होता है, जिसे की सभी के लिये जानना महत्वपूर्ण है, उसकी अभिव्यक्ति यथा संभव मैं परम् अर्थ (हित) की सिद्धि हेतु अपने लेखों, कविताओं तथा उद्धरणो के माध्यम से कर देता हूँ परंतु जिस तरह मूल स्रोत (चिंतन) को छोड़ अन्य स्रोतों से ज्ञान की प्राप्ति मेरे लिये उचित नहीं क्योंकि जब तक उस ज्ञान के सही मायनों को नहीं समझ सकता, वह मेरे लिये बाबा वचन [थोड़ी सी भी या पूरे तरीके से समझ नहीं आ सकने वाली या तुच्छ/व्यर्थ बातें (ज्ञात होने वाला ज्ञान)] ही है ठीक आपके लिये भी यह वही तुच्छ या समझ से परे ज्ञान है अतः आप भी मेरी ही तरह चिंतन से इसे प्राप्त कीजिये तथा मेरी ही तरह उस सूत्र के माध्यम् से जो आप मेरी तरह चिंतन से ज्ञात करोगें; उस सूत्र की कसौटी पर कस मेरे द्वारा दिये ज्ञान की पुष्टि करोगें तभी उसके सही मायनों में ज्ञात कर सकोगें। आज मेरे चिंतन के परिणाम स्वरूप मैं ऐसा हो गया हूँ कि मुझसे अर्थात् मेरे कारण न किसी अन्य का सही मायनों में अब अहित हैं और न ही मेरे कारण अन्य द्वारा मेरा अहित हो सकता हैं। यदि मेरी जैसी विचारधारा वाले अनंत में या किसी भी तंत्र में सभी हो जायें तो सभी सदैव संतुष्ट रह सकते हैं अतः जो भी मेरे बतायें रास्ते पर चलेगा; सदैव वह तंत्र या उसका कोई भी हिस्सा संतुष्ट रहेगा। मुझे लगता था कि यदि तंत्र में अपने कारण अपना और अन्य का भी अहित न हो, यह हम सुनिश्चित कर लें पश्चात इसके अन्य के कारण भी तो उनसे अपना अहित और उनके ही कारण उनका भी अहित होगा ही, जिसके लिये वह हमें कारण मानेंगे; तो तंत्र में सभी का सत्य से भिज्ञ होना आवश्यक हैं परंतु यदि हम ही योग्य हो जायें तो, हम स्वतः ही ऐसी आत्माओं का या उनके तंत्र का हिस्सा अपनी योग्यता के आधार पर बन जायेंगे जो कि हमारी तरह ही सर्वश्रेष्ठ हैं। यह यात्रा तुच्छ आत्मा से सर्वश्रेष्ठ आत्मा बन जाने की हैं। हाँ! मैंने जो यात्रा की और सफलता पायी वह मोक्ष पाने की हैं। वह यात्रा सदैव के लिये परम् संतुष्टि या मोक्ष प्राप्त कर संतुलित और संतुष्ट हो जाने की हैं।
© - रुद्र संजय शर्मा