Suhag, Sindoor aur Prem - 4 in Hindi Love Stories by Saroj Verma books and stories PDF | सुहाग, सिन्दूर और प्रेम - भाग(४)

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सुहाग, सिन्दूर और प्रेम - भाग(४)

शादी के लिए संयम के हाँ करते ही पूरा परिवार सरगम को देखने गया लेकिन संयम नहीं गया वो बोला...
दादाजी! आपने जब सब कुछ तय कर ही लिया है तो लड़कीं को देखने का क्या फायदा? मेरी हाँ या ना से क्या फर्क पड़ने वाला है? उसे नापसंद करने से थोड़े ही मेरी शादी उससे टल जाएगी।।
पूरे परिवार ने जब लड़की देखा तो वो सबको बहुत पसंद आई,सब बोले बस थोड़ी नादान है,उम्र कम है ना इसलिए,बड़ो की मर्जी से सरगम और संयम का रिश्ता पक्का भी हो गया और दो तीन महीने बाद शादी की तिथि भी निकल आई।।
इस शादी से सबसे ज्यादा संतोषी खुश थी और कनकलता सबसे उदास,कनकलता को ये बात खटक रही थी कि आखिर लड़का सरगम को देखने क्यों नहीं आया?सबने तो सरगम को पसंद कर लिया लेकिन अगर लड़के को सरगम ना पसंद आई तो,उसने ये बात दिनेश से भी कही तो दिनेश बोला....
ये बात तो मुझे भी खटक रही है ना जाने हमारी सरगम के नसीब में क्या लिखा है?
बस ऐसे ही सबके मन की उधेडबुन के बीच शादी की तैयारियाँ होतीं रहीं,सरगम के लिए तो शादी का मतलब अच्छे अच्छे कपड़े और अच्छा अच्छा खाने से था,उसे ये नहीं पता था कि अब उसकी जिन्दगी एक अलग ही दुनिया में कदम रखने जा रही है,वो इन सब से बिल्कुल बेखबर सी अपनी शादी का जश्न मनाने में लगी हुई थी...
और फिर वो दिन आ ही पहुँचा जिसका जगजीवनराम जी को बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार था,संयम दूल्हा बनकर घोड़ी में चढ़ा और फिर आ पहुँचा सरगम के द्वारे बारात लेकर,संतोषी और रघुवरदयाल जी ने बड़ी ही धूमधाम से दूल्हे और बरातियों का स्वागत किया।।
ब्याह की रस्में शुरू होते होते रात हो चुकी थी,दुल्हन को फेरों की रस्म के लिए बाहर मण्डप में बुलाया गया,सरगम को सम्भालने के लिए कनकलता को उसके साथ आना पड़ा वो सरगम के पीछे बैठकर सारे वक्त बस उसे ही सम्भालती रही,पेट्रोमैक्स के उजाले में सारी रस्में निभाईं जा रहीं थीं।।
संयम भी लालयित था अपनी दुल्हन को देखने के लिए,उसने कितने भी नाराजगी में ब्याह किया हो लेकिन अब तो उस लड़की को उसकी गाँठ से जोड़ दिया गया था,ताउम्र के लिए ही अब वो उसकी संगिनी थी,नाराजगी उसे अपने घरवालों से थी,इस मासूम लड़की का भला इसमें क्या दोष? इससे भी तो बिना पूछे इसका ब्याह मेरे संग तय कर दिया गया होगा,इसने भी तो मुझे अब तक नहीं देखा,ये सब सवाल संयम के मन में चल रहे थे और वो उनके जवाब भी खुद ही ढ़ूंढ़ रहा था।।
वो बार बार अपनी नई नवेली दुल्हन का चेहरा देखने की कोशिश करता लेकिन असफल रहता,कनकलता जरा भी सरगम का घूँघट उठने ही नहीं दे रही थी,बार बार सरगम और उसके जोड़े को सम्भाल देती,संयम को केवल अपनी दुल्हन के मेंहदी लगी हथेलियाँ और महावर लगे पाँव ही दिखाई पड़ रहे थे,लेकिन उसे तो अपनी दुल्हन का मुँखड़ा देखना था,जो कि वो नहीं देख पा रहा था।।
ब्याह की रस्में भी पूरी हो गई लेकिन संयम अपनी दुल्हन का मुँखड़ा नहीं देख पाया,ब्याह के सारे कार्य सम्पन्न हो चुके थे,अब विदाई का वक्त था,कनकलता और दिनेश फूट फूटकर रो पड़े,दो चार झूठे आँसू संतोषी ने भी बहा लिए लेकिन रघुवरदयाल जी अपनी सोनचिरैया को विदा होते देख स्वयं को नहीं सम्भाल पा रहे थे,खुलकर रो भी नहीं सकते थे,पुरूष जो ठहरें क्योंकि समाज में रोने वाला नियम पुरूषों पर लागू नहीं होता,ये तो केवल स्त्रियों के लिए ही बना है।।
लेकिन कितना रोकते स्वयं को आखिरकार फफक ही पड़े और वहीं सरगम की आँखों में ना आँसू थे और ना मन में कोई दुख,वो खुशी खुशी विदाई वाले ताँगें में जा बैठी,बिना आँसू बहाए,उसे ऐसे देखकर सब दाँतों तले उँगलियाँ दबाकर रह गए।।
कनकलता ने बात को सम्भालते हुए कहा.....
अभी बच्ची है,उम्र ही क्या है बेचारी की,वो तो समधी साहब जिद कर बैठे कि उन्हें तो सरगम को अपने पोते की बहु बनाना है इसलिए ब्याह जल्दी रचाना पड़ा,नहीं तो अभी हम लोंग इसका ब्याह करते ही नहीं जब तक थोड़ी अकल ना आ जाती।।
वैसे भी गाँववाले तो सरगम की हरकतों से अच्छी तरह से वाकिफ़ थे ही और जगजीवनराम जी भी सरगम को बहुत अच्छी तरह जानते थे इसलिए उन्होंने अपनी तरफ के मेहमानों को भी ठीक तरह से समझा दिया कि बहु थोड़ी नादान है।।
विदा हो गई और रघुवरदयाल जी के घर को सूना करके सरगम ससुराल आ पहुँची,बहु का स्वागत विधिवत किया गया,सारे नेगचार निभाने के बाद बहु को खाना वाना खिलाया गया,जगजीवनराम ने अपनी बालविधवा बेटी दयमंती से कहा....
बेटी! बहु का जरा ध्यान रखना,अभी अल्हड़ है रीतिरिवाजों को ठीक से नहीं जानती अगर कोई कुछ कहें तो जरा सम्भाल लेना।।
ठीक है बाबूजी! दयमंती बोली।।
बेचारी दयमंती का ब्याह बचपन में हो गया था,जगजीवनराम जी ने सोचा था कि सात-आठ साल मे दयमंती का ब्याह करके सोलह-सत्रह साल में गौना कर देगें,लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि उनके दमाद को दस साल का होते ही साँप डँस लेगा और वो काल के गाल में चला जाएगा,
बेचारी दयमंती भी तब नौवें साल में ही लगी थी,जगजीवनराम जी का दमाद दयमंती से केवल एक साल ही बड़ा था,जगजीवनराम जी तब रोते किलपते रह गए थे,इकलौती बेटी वो भी बाल विधवा,उन्होंने कोशिश भी की कि दयमंती का दूसरा ब्याह हो जाए लेकिन घरवालों और रिश्तेदारों ने ही इस बात के लिए मना कर दिया कि अगर उन्होंने बालविधवा बेटी का दोबारा ब्याह किया तो वें सब उनके घर का पानी भी नहीं पिएंगे इसलिए वें उसका दोबारा ब्याह ना करा सकें और उन्होंने फिर दयमंती को उसके ससुराल भी नहीं भेजा ,
जगजीवनराम जी बोले ससुराल में केवल वो लोंग उसे नौकरानी ही बनाकर रखेंगें उसकी वहाँ कोई इज्जत भी नहीं रहेंगी इससे अच्छा है ये मेरे घर पर ही रहे ,कम से कम सदैव मेरी आँखों के सामने ही तो रहेंगी।।
दयमंती भी अपने भाई भाभियों के साथ मायके में ही रम गई,सबका काम करती रहती और मुँह से कभी उफ़ भी ना करती इसलिए वो किसी को खटकती भी नहीं थी,साल में दो सफेद धोती मिल जाती और खाने को खाना,इतना काफी था उसके लिए।।
अपने और भी भतीजों के अलावा दयमंती का अपने भतीजे संयम से कुछ ज्यादा ही लगाव था क्योंकि बचपन से ही संयम अपनी माँ के पास कम अपनी दयमंती बुआ के पास ज्यादा रहता था,संयम की माँ शुभद्रा के पास घर की भी जिम्मेदारियाँ थीं क्योंकि वो घर की बड़ी बहु थी और शुभद्रा की सास उसके ससुराल आने के पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी,फिर शुभद्रा के संयम के अलावा और भी दो संयम के छोटे भाई बहन थे ,संयम सबमें बड़ा था इसलिए शुभद्रा ने संयम की जिम्मेदारी अपनी ननद दयमंती को सौंप दी थी।।
संयम अपनी माँ शुभद्रा की तो कम लेकिन दयमंती की ज्यादा बात मानता था,एक तरह से दोनों के बीच माँ बेटे जैसा ही रिश्ता था,ये बात जगजीवनराम जी बहुत अच्छी तरह जानते इसलिए वे चाहतें थे कि सरगम की देखभाल दयमंती करें,उसे तौर तरीके से वाकिफ़ कराएं और दयमंती ने ये जिम्मेदारी ठीक से उठाई भी .....
रात को दयमंती ने ही सरगम का सब श्रृंगार किया,जब कि इस बात का विरोध दयमंती की छोटी भाभी ने किया कि सुहागिन का श्रृंगार बालविधवा कैसे कर सकती हैं?लेकिन शुभद्रा को इससे कोई एतराज़ ना था वो अपनी देवरानी से बोली....
छोटी बहु किस जमाने में जी रही हो? किसने कहा कि अगर दयमंती बिन्नो सरगम बहु का श्रृंगार करेगी तो अपशगुन हो जाएगा,ऐसा कहीं कुछ नहीं होता,मैं ये सब नहीं मानती।।
शुभद्रा के विचार सुनकर जगजीवनराम जी भी खुश हुए.....
सरगम को तैयार करके दयमंती ने सरगम को उसके फूलों से सजे हुए कमरें में ले जाकर बिस्तर पर बैठा दिया और बोली....
सरगम! संयम आएं तो सबसे पहले उसके चरण स्पर्श कर लेना।।
मेरे दूल्हे का नाम संयम है ना ! बुआजी,सरगम ने पूछा।।
हाँ! अच्छी बहुएँ अपने पति का नाम नहीं लिया करतीं,दयमंती बोली।।
नाम नहीं लेती तो फिर क्या कहती हैं? सरगम ने पूछा।।
सुनिए जी...ए जी...ऐसे पुकारा करो संयम को ,दयमंती बोली।।
ठीक है बुआ जी,मैं अब से नाम ना लूँगी,सरगम बोली।।
ठीक है तो अब मैं जाती हूँ,ये पान रखा है,संयम को खिला देना,इतना कहकर दयमंती चली गई।।
काफी रात गए संयम अपने दोस्तों से फुरसत पाकर अपने कमरें में आया,दयमंती ने उससे कमरें में जाने को कहा....
संयम ने जैसे ही कमरें में प्रवेश किया और धीरे से कमरें के किवाड़ लगाएं,उसने देखा कि सरगम बिस्तर पर पैर पसार सोई पड़ी हैं,वो उसके पास गया और ध्यान से उसके चेहरे को देखने लगा,लालटेन की पीली रोशनी में लाल जोड़े और गहनों से लदी सरगम बिल्कुल नन्ही सी गुड़िया की तरह लग रही थी,उसकी मुँदी पलके और गुलाब की पंखुड़ी के समान होंठ उसकी खूबसूरती की गवाही दे रहे थें,मेंहदी से रचीं हथेलियाँ , लाल लाल चूडियों से सँजी सुन्दर गोल कलाइयाँ,महावर रँगे पाँव जिनमें घुँघरू वाली पायल थी,सरगम ने करवट ली तो चूड़ियाँ और पायल साथ साथ बज पड़ी और इधर संयम के दिल में हलचल सी मच गई।।
संयम ने आज पहली बार अपनी दुल्हन का मुँह देखा था और उसका दिल जोरों से धड़क उठा ,सच में दादा जी ने उसके लिए नायाब और खूबसूरत मोती चुना था, वो सच में सरगम को पाकर निहाल हो उठा,वो आज स्वयं को बहुत ही खुशकिस्मत समझ रहा था कि उसे इतनी सुन्दर दुल्हन मिली है,फिर उसने धीरे से सरगम को चादर ओढ़ा दी, बिस्तर से एक तकिया उठाया ,फर्श पर चटाई बिछाई और चुपचाप चादर ओढ़कर सो गया।।
भोर हो चुकी थी ,पेड़ो पर चिड़ियाँ चहचहा रहीं थीं,शायद पाँच बज चुके थे,दयमंती बुआ ने कमरे के किवाड़ो की कुण्डी को हौले से खड़काया,सरगम तो कुण्डी खड़काने की आवाज नहीं उठी क्योंकि उसे तो जल्दी उठने की आदत ही नहीं थी लेकिन संयम उठ गया और दरवाजा खोला।।
दमयंती बुआ बोली....
बहु कहाँ हैं,आज उसे पूजा करके रसोई छूनी है और कुछ पकवान भी बनाने होगें।।
संयम ने बिस्तर की ओर इशाराकरते हुए कहा....
वो रही आपकी प्यारी बहु,जगा लीजिए।।
दयमंती ने जैसे ही कमरें का नजारा देखा तो कमरे की हालत देखकर आवाक् रह गई,नीचे चटाई और बिस्तर पर बहु,इसका मतलब है कि....
तब संयम बोला....
मैं जब कमरें में पहुँचा तो वो सो चुकी थी,सोते हुए बहुत प्यारी लग रही थी इसलिए उसे जगाना मुझे अच्छा नहीं लगा,अब मैं भी जाता हूँ तैयार होता हूँ.....
दयमंती ने मन में सोचा कि कितना समझदार है संयम,सरगम को उसने अभी से इतना समझ लिया,भगवान करें इनका रिश्ता ऐसे ही बना रहें।।
फिर सरगम को दयमंती ने जगाया,जागते ही सरगम ने पूछा....
बुआ जी! रात को तो मेरा दूल्हा कमरें में आया ही नहीं,मैं उसका इन्तज़ार करते करते सो गई।।
वो आया था बहु! लेकिन तू सो गई थी इसलिए उसने तुझे जगाया नहीं,दयमंती बोली।।
दयमंती उसे बाहर ले गई,उसे तैयार किया ,साड़ी पहनने में उसकी मदद की और रसोई में पूरे समय उसी के साथ लगी रही,सरगम को रसोई का काम बहुत ही उबाऊ लग रहा था,दयमंती बोली....
बहु! तू बस इन सब में हाथ लगा दे बाक़ी सब मैं कर लूँगी।।
सारा खाना दयमंती ने ही तैयार किया,जगजीवनराम जी तो सारी सच्चाई जानते थे कि सरगम को घर के कोई भी काम नहीं आते इसलिए उन्होंने सबको हिदायत दे दी कि अगर बहु से कुछ ना बने तो उसे ताने मत मारना,सब सीख जाएगी धीरे धीरे।।
अभी भी घर पर जगजीवनराम जी का वर्चस्व था इसलिए उनकी बात को कोई भी नहीं नकार सकता था,सरगम को भी सब कुछ भी नहीं कहते।।
इसी तरह पूरा दिन गुजर गया,सरगम दिनभर कुछ ना कुछ रस्में निभाती रही फिर रात हुई और दयमंती बुआ ने सरगम को फिर से तैयार करके बैठा दिया,सरगम ने आज भारी साड़ी पहनने से इनकार कर दिया इसलिए आज दयमंती ने उसे हल्की साड़ी ही पहनाई,सरगम को गहने भी पसंद नहीं थे इसलिए दयमंती ने उसे बिल्कुल थोड़े ही गहने पहनाएं फिर दयमंती बोली....
आज मत सोना,आज दूल्हे से थोड़ी ही सही लेकिन बातें जरूर कर लेना।।
ठीक है बुआ! नींद ना आई तो देखूँगी,सरगम बोली।।
ये रहे पान और आज जरूर खिला देना,दयमंती बुआ जाते जाते हिदायत दे गई....
संयम रात को कमरें में आया तो सरगम जाग रही थी,संयम ने दरवाज़े बंद किए तो सरगम ने उसके चरण स्पर्श किए फिर बोली.....
लो पान खा लो,क्योंकि मुझे बहुत जोरों की नींद आ रही है।।
सरगम की बात सुनकर संयम हँस पड़ा....
अरे,हँस क्यों रहे हो? सरगम बोली।।
कुछ नहीं ऐसे ही ,लाओ मुझे पान दे दो और तुम सो जाओ,संयम बोला।।
ठीक है,इतना कहकर सरगम ने उसे पान दिया और बिस्तर पर जाकर लेट गई।।
संयम ने भी चटाई बिछाई और लेटने लगा तो सरगम बोली....
तुम फर्श पर लेटोगें,
हाँ! बिस्तर पर तो जगह ही नहीं रहती,तुम पाँव पसारकर जो सोती हो,मैने रात को देखा था,संयम बोला।।
सच,में मैं इस तरह से सोती हूँ,सरगम ने पूछा।।
हाँ! तुम ऐसे ही सोती हो, संयम बोला।।
तो तुम नीचे ही लेट जाओ,तुम अगर बिस्तर में लेटे तो कहीं भूल से पाँव लग गया तो मुझे पाप पड़ेगा,मामी ने समझाया था कि पति को पाँव नहीं लगना चाहिए,सरगम बोली।।
ठीक है तो तुम आराम से सो जाओ,मैं फर्श पर ठीक हूँ,संयम बोला।।
तुम कितने अच्छे हो,अपना बिस्तर मुझे दे दिया,सरगम बोली।।
इस कमरें में जो कुछ है वो सब तुम्हारा भी तो है,मैं भी ,संयम ने बाद वाले शब्द धीरे से कहे....
तुम सच कहते हो,ये सब अब मेरा भी है,सरगम ने पूछा....
हाँ,सब कुछ,संयम बोला।।
तुम सच में बहुत अच्छे हो और इतना कहकर सरगम सो गई.....
और तुम कितनी भोली हो,मेरे मन की बात ही नहीं समझती,संयम ने मन में कहा।।

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....